जानने के हक पर अंकुश की कवायद

संदर्भ :- निजता के बहाने सूचना के अधिकार पर अंकुश की कवायद

प्रमोद भार्गव

निजता के बहाने जानने के अधिकार, मसलन सूचना के अधिकार पर अंकुश लगाने की कवायद तेज होती दिखार्इ दे रही है। हालांकि अधिकार के पर कतरने की शुरुआत तो तभी हो गर्इ थी, जब मनमोहन सिंह सरकार ने सीबीआर्इ को सूचना के अधिकार कानून के दायरे से बाहर कर दिया था। अब प्रधानमंत्री ने केंद्रीय सूचना आयुक्तों के सातवें सम्मेलन में कहा है कि लोगों के जानने के अधिकार से अगर किसी की निजता का हनन होता है तो निश्चित रुप से इसका दायरा निर्धारित होना चाहिए, जिससे इसके निरर्थक प्रयोग पर प्रतिबंध लगे। क्योंकि जो जानकारियां व्यापक लोकहित की पूर्तियां करने वाली नहीं हैं, वे मानव संसाधन को क्षति पहुंचाने वाली हैं। प्रधानमंत्री की इस सिलसिले में यह चिंता तो समझ में आती है कि आरटीआर्इ का दुरुपयोग न हो, लेकिन इस बहाने कानून के पर ही कतर दिए जाएं, इस औचित्य को कतर्इ तार्किक नहीं ठहराया जा सकता ? वह भी तब, जब यह कानून आजादी के बाद एक ऐसा क्रांतिकारी कानून बनकर अपनी सार्थकता साबित कर चुका है। आम नागरिक इसे कारगर हथियार के रुप में इस्तेमाल कर, भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ार्इ में सीधे आगे आकर लोकसेवकों और नौकरशाहों को जवाबदेही के लिए मजबूर कर रहा है।

सच कहा जाए तो सूचना का अधिकार विधायिका और कार्यपालिका की अटटालिकाओं में खोली गर्इ ऐसी इकलौती खिलाड़ी है, जो देश के आम नागरिक को जानने का हक देती है। लोकसेवकों और नौकरशाहों को पारदर्षी जवाबदेही सुनिश्चित करने को विवश करती है। लेकिन इस खुली खिड़की के दरवाजे बंद करने की कवायद लगता है, तेज होने जा रही है। सूचना के इस अचूक अस्त्र की धार शायद कुंद कर दी जाए। प्रधानमंत्री सूचना के अधिकार और निजता के अधिकार के बीच जिस संतुलन को बनाए रखने की बात कर रहे हैं, निजता के उस अधिकार की रक्षा तो संविधान सम्मत है, किंतु इसके हनन का भ्रम पैदा करके लोकहित से जुड़ी जानकारियों को गोपनीय बनाए रखने की कोशिशों का क्या औचित्य है, यह समझ से परे है। इस तरह की मांग तब ज्यादा उठ रही है, जब सेवानिवृत्त नौकरशाहों और न्यायाधीषों की संख्या बतौर सूचना आयुक्त बढ़ी है। भारतीय प्रशासनिक व पुलिस सेवा के अधिकारियों की अपने कार्यकाल में हमेशा ही कोशिश रही है कि काले- कारनामों पर परदा पड़ा रहे। सीबीआर्इ को सूचना के अधिकार से मुक्त करके भी केंद्र सरकार ने यही साबित किया था कि वह भ्रष्टाचार से जुड़ी गड़बडि़यों पर परदा डाले रखना चाहती है। विदेशों में जमा काले धन की वापिसी में अंहम भूमिका की दरकार सीबीआर्इ से है, लेकिन अब सीबीआर्इ से कोर्इ आरटीआर्इ कार्यकर्ता यह जानकारी हासिल नहीं कर सकता कि वह इस बाबद क्या काला-पीला कर रही है। सीबीआर्इ के आरटीआइ से मुक्त होने के बाद विदेश और वित्त मंत्रालयों से जुड़े विभाग प्रमुखों का भी सरकार पर दबाव है कि उन्हें इस दायरे से मुक्त किया जाए। इसके लिए ये लोग अंतरराष्ट्रीय मामलों व शर्तों और प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश के बाबत कंपनियों को दी जाने वाली रियायतों को सार्वजनिक करना नहीं चाहते। प्रवर्तन निदेशालय भी इस दायरे से छुटकारा चाहता है। ऐसे में विडंबना यह है कि देश के प्रधानमंत्री भी एक नौकरशाह हैं, लिहाजा नौकरशाह प्रधानमंत्री के रहते हुए आरटीआर्इ के नखदंत कब तक बचे रह सकते हैं ? वैसे भी केंद्रीय जांच ब्यूरो पर सूचना का अधिकार अधिनियम लागू न होने का फैसला संसद की मंशा की बजाए, सरकार के तब के सबसे आला अधिकारी रहे कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर की इच्छानुसार हुआ था। उन्होंने सेवानिवृत्त होने के ठीक एक दिन पहले इस सिफारिश पर सरकार का अंगूठा लगवा लिया था। यह सिथति सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अवेहलना तो थी ही, उन निर्वाचित सांसदों को भी ठेंगा दिखाना थी, जिन्होंने 2005 में संसदीय बहुमत से इस अधिकार को अधिनियम में बदला था। इस मनमानी से यह भी तय हुआ कि लोकतंत्र के शीर्शस्थ सदन लोकसभा और राज्यसभा से कहीं ज्यादा हैसियत देश के एक नौकरशाह में है।

न्यायालय और न्यायाध्ीश भी आरटीआर्इ के दायरे में आना नहीं चाहते। इन्हें दायरे में लाने की दृष्टि से मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की थी। जिसका मकसद था कि इस कानून के तहत सुप्रीम व हार्इकोर्ट के न्यायाधीषों की पारिवारिक संपतित का ब्यौरा मांगा जा सके। लेकिन तत्कालीन न्यायमूर्ति केजी बालकृष्णनन ने इस मांग को इस दलील के साथ ठुकरा दिया था कि उनका दफतर सूचना के दायरे से इसलिए बाहर है, क्योंकि वे संवैधानिक पदों पर नियुक्त हैं। जबकि विधि और कार्मिक मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में न्यायपालिका को सूचना कानून के दायरे में लाने की सिफारिश की है। इस समिति ने यह भी दलील दी थी कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी लोकसेवक हैं, इसलिए सूचना का अधिकार उन पर लागू होना चाहिए। लेकिन यहां विडंबना है कि संसद न्यायपालिका को कोर्इ दिशा-निर्देश नहीं दे सकती और न्यायपालिका का विवेक मानता है कि वह सूचना के अधिकार से उपर है। यहां गौरतलब है कि जब यह अधिकार संसद पर लागू हो सकता है, तो न्यायपालिका पर क्यों नहीं ? यदि प्रजातंत्र में प्रजा सर्वोपरि है तो नागरिक को न्यायपालिका के क्षेत्र में जानकारी लेने का अधिकार मिलना चाहिए। यह तब और जरुरी हो जाता जब कोलकाता उच्च नयायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते, संसद में महाभियोग लाकर बर्खास्त किया जाता है। न्याय-प्रकि्रया को तो आरटीआर्इ से मुक्त रखा जाए, किंतु यदि किसी न्यायाधीश की संपतित में अनुपातहीन वृद्धि हुर्इ है तो उसे इस कानून के दायरे में लाना जरुरी है। अब यहां संकट यह है कि आरटीआर्इ को शिथिल करने की मंशा रखने वाली सरकार बिल्ली के गले में घंटी बांधने का जोखिम कैसे उठा सकती हैं ?

प्रधानमंत्री की यह दलील कतर्इ न्याय संगत नहीं है कि इससे निजी गोपनीयता का हनन और मानव संसाधन को क्षति पहुंच रही है। किसी अधिकारी की निजी गोपनीयता तो तब भंग होती, जब उससे इस कानून के तहत अंतरंग प्रसंग या घरेलू कि्रया-कलापों की जानकारी मांगी जाती ? संभव है, सवा अरब की आबादी में एकाध ऐसी बेहूदी मांग भी किसी ने की हो, लेकिन इसे बहुमत की मांग नहीं ठहराया जा सकता। और फिर ऐसी मांग पेश आर्इ भी है तो उसकी पूर्ति करना आरटीआर्इ में कहां बाध्यकारी है ? ऐसी अनुचित मांगों को ठुकराने का पर्याप्त अधिकार आरटीआर्इ में है। इसके उलट वास्तव में निजी हानि और मानव संसाधन की क्षति तो उन भंडाफोड़ करने वाले कार्यकत्ताओं की हुर्इ है, जिन्होंने जान जाखिम में डालकर जानने के अधिकार का सदुपयोग किया। सत्येन्द्र दुबे समेत अब तक 17 आरटीआर्इ कार्यकर्ता मारे गए हैं। क्या एकाध भ्रष्ट नेता या अधिकारी ऐसा है, जिसकी जानकारी मांगने पर जान जोखिम में आर्इ हो और परिवार को मानवीय क्षति का सामना करना पड़ा हो ? तय है, नहीं। भ्रष्टाचार से जुड़ा मामला जितना संगीन होता है, उससे जुड़े नेता, नौकरशाह और ठेकेदारों का गठजोड़ उतना ही शकितशाली होता है, इसलिए अव्वल तो पारदर्षिता से जुड़ी जानकारियां देने में टाला-टूली की जाती है और यदि जानकारी किसी बड़े घोटाले अथवा माफिया सरगना से जुड़ी है तो कार्यकर्ता के जान के लाले भी पड़ जाते हैं। इस लिहाज से कार्यकर्ताओं की सरुक्षा के लिए विहसलब्लोअर कानून को संसद में लाने की मांग भी उठ रही है। विधि आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार से इस कानून को वजूद में लाने की पैरवी की है। लेकिन इस कानून को पारित होने में सबसे कानून को पारित होने में सबसे बड़ी बाधा कार्यपालिका है। वह जानती है कि आरटीआर्इ की छत्रछाया में वजूद में आए पूर्णकालिक इन भण्डाफोड़ कार्यकर्ताओं को कानूनी सुरक्षा मिल गर्इ तो सरकारी तंत्र को तो काम करना ही मुश्किल हो जाएगा। इसमें कोर्इ दो राय नहीं कि चंद पत्रकारों अथवा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सूचना अधिकार को प्रतिष्ठा व आजीविका हासिल करने का धंधा बना लिया है, लेकिन दुरुपयोग तो राजस्व, पुलिस व वन कानूनों का भी होता है, बावजूद ये कानून अमल में हैं। आरटीआर्इ का भी यदि कोर्इ बेजा इस्तेमाल करता है तो उस पर दण्डात्मक कार्यवाही के प्रावधान है, लेकिन फिर वही कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?

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