
—विनय कुमार विनायक
सनातन संस्कार कभी बासी नहीं होते,
सदाचार छोड़के जीने वाले हमेशा रोते!
लोग घूमते रोम, काबा, काशी मगर हो,
इरादे नापाक तो कोई ना शाबाशी देते!
दुश्मन तो जालिम होते हैं हमेशा से ही,
अच्छा होता तुम ही खुद को बदल लेते!
कब समझोगे कि आज,कल से निकलते,
तुम्हारा अतीत वर्तमान सोचने नहीं देते!
अबतक उपेक्षा भाव, जिनपर दिखाते रहे,
वे तो बदल गए, तुम खुद कब बदलोगे?
तुममें अपनापन कहां है,वो उदारपन कहां?
तुम भीतर और बाहर से अलग ही दीखते!
तुम जाति में बंटे हो, भाषा से भी कटे हो,
कोयल सी बोली नहीं, झूठ के हंस बनते?
ज्ञान गुणी सा बढ़ा नहीं, अहं भी मरा नहीं,
उपाधि फिर क्यों तिस्मार खां जैसी रखते?
राजनीति के मंच पर छल प्रपंच करते हो,
धर्मनिरपेक्ष बनके निज पूर्वजों को कोसते!
संस्कृति की बातें सिखाते नहीं घरवालों को,
हमेशा अपनी आस्था पर ही सवाल उठाते!
तुम्हारा समीकरण जाति फिरकापरस्ती में है,
भारतीयता से घृणा, विदेशी से प्रीत जताते!
जो बातें करते हमेशा गंगा यमुना तरजीह की,
वे निज गर्भनाल अरब-फारस में क्यों गाड़ते?
जहां मजहब बदलते ही राष्ट्रीयता बदल जाती,
स्वदेशी जुबान में जो अपना नाम नहीं रखते!
जो प्रेम करते हैं सिर्फ धर्म बदलने के लिए ही,
वो प्रेम कैसा जो स्वदेशी नाम तक बदल देते!
—विनय कुमार विनायक