संघ के उदार दृष्टिकोण में नये भारत के सूत्र

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– ललित गर्ग –
महामना मदनमोहन मालवीय की बगिया कहा जाने वाला काशी हिन्दू विश्वविद्यालय इनदिनों संस्कृत विद्या धर्मविज्ञान संकाय के एक नवनियुक्त सहायक प्राध्यापक डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति को लेकर विरोध, धरना-प्रदर्शन एवं आन्दोलन की भूमि बन गया है जबकि यह कभी अपनी अकादमिक विशिष्टता के लिए ख्यात था। राष्ट्रव्यापी स्तर पर हो इस मसले पर हो रही राजनीति एवं संकीर्ण साम्प्रदायिक घेरेबंदी से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने स्वयं को न केवल अलग रखा है इस नियुक्ति का समर्थन भी किया है, जो उसकी व्यापक सोच, उदार जीवनमूल्यों, एकात्म भारतीयता और सर्वांगीण जीवन दृष्टि का परिणाम है। संघ का मानना है कि संस्कृत साहित्य को समर्पित व श्रद्धा भाव से पढ़ाने वाले योग्य शिक्षक का विरोध नहीं होना चाहिए। यह संस्कृत भाषा एवं साहित्य के प्रसार का प्रभाव है, जिसका लाभ संपूर्ण विश्व को मिलना चाहिए। किसी भी व्यक्ति का सांप्रदायिक आधार पर विरोध विधि विरुद्ध है। इस प्रकार का विरोध सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने वाला है। संघ इस वृत्ति, प्रवृत्ति का विरोध करता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ नेता इंद्रेश कुमार ने डॉ. फिरोज खान की नियुक्ति को भारतीय एकता एवं साम्प्रदायिक सौहार्द के रूप स्वीकार करते हुए कहा इस प्रकरण के नतीजे काफी सकारात्मक होंगे।’ संस्कृत भारत की समावेशी प्रवृत्ति व समृद्ध परंपरा को परिलक्षित करती है। यह मत भूलिए कि संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। कोई भी व्यक्ति दूसरे धर्म के लोगों को संस्कृत के पठन-पाठन से कैसे रोक सकता है? किसी भी भारतीय के लिए कोई अन्य भारतीय पराया नहीं हो सकता, क्योंकि सभी के पुरखे समान हैं, रिलीजन, भाषा या वंश के आधार पर नहीं, अपितु जीवनदृष्टि और जीवनमूल्यों के आधार पर। यही भारत का राष्ट्रजीवन का आधार है, जिसमें भारत की 5000 वर्ष पुरानी सर्वसमावेशक विविधता और विश्व को परिवार मानने वाली जीवनदृष्टि और परंपरा का गौरवपूर्ण समावेश है। चूंकि यही जीवनदृष्टि और मूल्य संविधान में भी अभिव्यक्त हुए हैं इसलिए यह संविधान हमारी धरोहर है। इसे पूर्व राष्ट्रपति डाॅ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने हिंदू जीवन दृष्टि कहा है।
उदारता, मानवीयता एवं एकात्मकता हमारी जीवनशैली एवं जीवनमूल्य हैं। हम सदियों से ऐसे रहे हैं इसलिए हमारा संविधान ऐसा है। उसका सम्मान और पालन सभी को करना है। संघ ने यह लगातार किया है। संघ पर घोर अन्यायपूर्वक लादे गए प्रतिबंधों एवं विरोध का प्रत्युत्तर भी संघ ने ऐसे ही आदर्श जीवन मूल्यों के आधार पर अहिंसात्मक ढंग से दिया। उसने इन विरोेधी, अलगाववादी एवं दूराचारी स्वरों के लिये समय-समय पर संविधान सम्मत मार्ग से जो सत्याग्रह किये वे अभूतपूर्व देशव्यापी, शांतिपूर्ण और अनुशासित थे। ऐसा अन्य किसी भी दल या संगठन का इतिहास नहीं है। संघ को संविधान विरोधी, अलोकतांत्रिक, हिंसक प्रचारित करने वाले किसी भी संगठन या दल का एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है जो संघ के सत्याग्रह के समान व्यापक, शंातिपूर्ण और अनुशासित हो। संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले ही संघ को संविधान का पाठ पढ़ाने का प्रयास करते दिखते हैं। संघ ने भारत को तोड़ने का नहीं, बल्कि जोड़ने एवं उसे सशक्त बनाने का ही उपक्रम किया है।
संघ भारत की संस्कृति एवं संस्कारों जीवंत करने का एक गैर-राजनीतिक आन्दोलन है। उसका मानना है कि किसी भाषा को क्षेत्र, जाति या धर्म के बंधन में बांधा गया, वह धीरे-धीरे दम तोड़ती गई। भाषा का विकास तभी संभव है, जब वह लोक व्यवहार में अधिक से अधिक घुलमिल जाए। शिक्षा दान की विषय वस्तु है और जो अर्जित करेगा, वही दान करेगा। सहायक प्राध्यापक के साक्षात्कार में सबसे अधिक अंक प्राप्त होने का स्पष्ट आशय है कि मुस्लिम शिक्षक ने अन्य अभ्यर्थियों के मुकाबले संस्कृत का अधिक ज्ञान अर्जित किया था। शिक्षक केवल और केवल शिक्षक होता है, उसका जाति धर्म नहीं होती। हर प्रकरण को अपने अपने धर्म के चश्मे से देखने के बजाय यह देखना चाहिए कि जिस शिक्षक को अस्वीकार किया जा रहा है, उनके खुद के जीवन एवं परिवार में संस्कृत भाषा कितनी गहराई तक घुली-मिली है, संस्कृत श्लोकों का आलाप करते हुए उनके पिता एवं उनका चेहरा दमक उठता है।
संघ ने भारत की भूमि में सभी धर्मों, समाजों, भाषा, जाति, वर्ग-वर्ण के लोगों को समानरूप से जीने की वकालत की है। यही कारण है कि आज संघ में मुस्लिम, ईसाई स्वयंसेवक और प्रशिक्षित कार्यकर्ता हैं। हिंदू के नाते हम मतांतरण में विश्वास नहीं करते। इसलिए वे वर्षों से स्वयंसेवक रहते हुए अपनी ईसाई या मुस्लिम उपासना का ही अनुसरण करते हैं। इसका उदाहरण है 1998 में विदर्भ प्रांत हुआ भव्य शिविर, जिसमें तीन दिन के लिए 30,000 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में तंबुओं में रहे। ऐसे शिविर में व्रत रखने वाले कार्यकर्ताओं के लिए व्रत खोलने की अलग व्यवस्था होती है। तभी ध्यान आया कि वह रमजान का समय था और कुछ स्वयंसेवक रोजा रखने वाले हैं। उन रोजा रखने वाले 122 स्वयंसेवकों के लिए रात देर से रोजा खोलने की व्यवस्था की गई। यदि रमजान नहीं होता तो शायद यह पता भी नहीं चलता कि शिविर में रोजा रखने वाले स्वयंसेवक भी हैं।
ध्यान दीजिए, सर्वसमावेशिता में सहिष्णुता अंतर्निहित है और इसमें असहिष्णु आचरण करने वालों का भी समावेश है, किंतु कुछ लोग यह बात नहीं समझते। इनके लिए संघ के नजदीक जाना ही महापराध और ईशनिंदा है। संघ के व्यापक सोच एवं उदारता की यह बात जड़ और फासिस्ट कम्युनिस्टों को कभी भी मान्य नहीं रही है। इनकी बिरादरी में आप उनके आदर्शों का गुणगान और हिंदुत्व की भत्र्सना नहीं करेंगे तो आप बाहर कर दिए जाएंगे। इसलिए कम्युनिष्टों के ‘स्वर्ग समान’ केरल में संघ का काम करने के कारण मार्च 1965 से मई 2017 तक 233 संघ कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है। इनमें से 60 प्रतिशत कार्यकर्ता वे थे जो कम्युनिष्ट पार्टी छोड़कर संघ में आए थे। हिंदू राष्ट्र की सर्वसमावेशक सांस्कृतिक कल्पना आप कितनी भी बार समझाइए, कम्युनिस्ट, उनके सहचर एवं संकीर्ण मानसिकता वाले दलों-समाज उसे संकीर्ण, विभाजक और विभेदक ही बताएंगे, लेकिन संघ इन जटिल एवं समाज-राष्ट्र तोड़क स्थितियों के बीच भी भारत निर्माण के संकल्प को लेकर आगे बढ़ता रहा है।
संघ के प्रति लोगों की सोच बदलनी चाहिए क्योंकि इसकी सच्चाइयों एवं वास्तविकताओें को अब तक बिना जाने-समझे एवं तथाकथित पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों के चलते एक खास खांचे में फिट करके देखते रहेे हैं। एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय संगठन के रूप में संघ देश और शायद दुनिया  का सबसे विशाल संगठन है। जिसने हमेशा नई लकीरें खींची हैं, एक नई सुबह का अहसास कराया हैं। जिसने हिंदुत्व और भारतीयता को एक ही सिक्के के दो पहलू बताया है। सरसंघचालक मोहन भागवतजी  समाज के प्रभावशाली लोगों से मिलते हैं। एक सुप्रसिद्ध उद्योगपति ने मिलते समय हिंदू के स्थान पर भारतीय शब्द का प्रयोग करने का सुझाव दिया। तब भागवतजी ने कहा कि हमारी दृष्टि से दोनों में बहुत बड़ा गुणात्मक अंतर नहीं है। परन्तु भारत शब्द के साथ प्रादेशिक संदर्भ आता है और हिंदू शब्द पूर्णतया गुणात्मक है। इसलिए आप भारतीय कहें, हम हिंदू कहेंगे, हम इतना समझ लें कि हम सभी एक ही बता रहे हैं। उन्होंने और अधिक स्पष्ट कर दिया कि मुसलमान लोग भी हिंदुत्व के दायरे के बाहर नहीं हैं। संघ के हिंदुत्व का अर्थ है, विविधता में एकता, उदारता, सहनशीलता, सह-जीवन आदि। उसने न केवल हिंदुत्व को संगठित किया बल्कि नए ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की है। संघ  शोषण और स्वार्थ रहित समाज चाहता है। संघ ऐसा समाज चाहता है जिसमें सभी लोग समान हों। समाज में कोई भेदभाव न हो। दूसरों के अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता आदर्श जीवनशैली का आधार तत्व है और संघ इसे प्रश्रय देता है। इसके बिना अखण्ड राष्ट्रीयता एवं समतामूलक समाज की स्थापना संभव ही नहीं है। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व की तरह दूसरे के अस्तित्व को अपनी सहमति नहीं देगा, तब तक वह उसके प्रति संवेदनशील नहीं बन पाएगा। जिस देश और संस्कृति में संवेदनशीलता का स्रोत सूख जाता है, वहाँ मानवीय रिश्तों में लिजलिजापन आने लगता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक विचारधारा है, एक संस्कृति है, चूंकि विविध विचारधाराओं में एक बड़ी विचारधारा यह भी है, यही कारण है कि संघ ने हमेशा संघ की विचारधारा का विरोध करने वालों का ही नहीं बल्कि भारतीयता का विरोध करने हिन्दूवादी संगठनों का भी विरोध किया। क्योंकि इस प्रकार के उद्देश्यहीन, उच्छृंखल एवं विध्वंसात्मक वातावरण के द्वारा किसी का भी हित सधता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। ऐसी आलोचना या आरोप-विरोध की संस्कृति समय एवं शक्ति का अपव्यय है तथा बुद्धि का दिवालियापन एवं भारतीयता पर बड़ा आघात है।

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