कुमार कृष्णन
सुप्रसिद्ध पत्रकार संकर्षण ठाकुर से मेरी पहली मुलाकात 1989 में भागलपुर दंगे के दौरान हुई,जब वे द टेलीग्राफ की ओर से रिपोर्टिग भागलपुर आए थे। उन दिनों चार पांच दिन भागलपुर में थे। उनकी रिर्पोटिंग काफी असरदार थी. रिपोर्टिग का नतीजा था कि राज्य सरकार ने स्थिति को संभालने के लिए उस समय के कलेक्टर अरूण झा के उपर विशेष जिला पदाधिकारी के रूप में अशोक कुमार सिंह को नियुक्त किया। अशोक कुमार सिंह बाद में झारखंड के मुख्य सचिव भी हुए। भागलपुर दंगा में अपने आप में भयावह था। 1989 के भागलपुर दंगे मे भागलपुर जिले में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हिंसा हुई। 24 अक्टूबर 1989 को दंगे प्रारम्भ हुए और 2 महीने तक हिंसक घटनाएं जारी रहीं जिससे भागलपुर शहर और उसके आसपास के 250 गांव प्रभावित हुए। हिंसा के परिणामस्वरूप 4000 से अधिक लोग मारे गए अन्य 50,000 विस्थापित हुए। यह उस समय स्वतंत्र भारत में हिंदू-मुस्लिम हिंसा का सबसे खराब उदाहरण था।
भागलपुर में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास रहा है। इसमें लौंगाय काफी चर्चित रहा। भागलपुर के जगदीशपुर के लोगाई गाँव में 27 अक्टूबर, 1989 को हुई दंगे में 116 लोगों को मार कर दफ़ना दिया गया था और खेत में गोभी उगा दी गयी, उस समय का प्रशासन इसे दफन करने की कोशिश में था लेकिन संकर्षण ठाकुर की रिर्पोटिंग के बाद यह नहीं हो पाया। संकर्षण ठाकुर के साथ उन दिनों मुझे और छायाकार मनोज सिंहा के साथ दो बार लोगाई और चंदेरी जाने का मौका मिला। बाद में वहां उस समय के डीआईजी अजीत दत्ता की मौजूदगी में 116 नरकंकाल बरामद हुए थे। नरकंकाल बरामद होने का कारण यह था कि लोगों को मारकर खेत में गाड़ दिया गया।। इस दौरान मैने और संकर्षण ठाकुर कई स्टोरी र्और रिपोताज लिखे। संकर्षण ठाकुर की रिर्पोटिंग का एक एक शब्द बोलता था। उसके बाद कई बार उनसे दिल्ली में मुलाकात हुई, काफी गर्मजोशी से मिले। यदा कदा फोन से बात होती रहती थी।
संकर्षण ठाकुर का जाना सिर्फ़ एक व्यक्ति का जाना नहीं, बल्कि उन शब्दों का मौन हो जाना है जो समाज की गंध और सच्चाई को पकड़ते थे। पटना की मिट्टी से निकले इस पत्रकार ने कश्मीर से बिहार तक कहानियों को दर्ज किया। उनका लेखन पत्रकारिता के लिए अमिट धरोहर है। उनका जाना केवल एक व्यक्ति का जाना नहीं है। यह उन शब्दों का जाना है, जो जीवन की कच्ची गंध और सच्चाई को पकड़ते थे।वह आवाज़ जो भीड़ में भी अलग सुनाई देती थी। उनके न रहने से पत्रकारिता का चेहरा थोड़ा और उजाड़ लगने लगा है। द टेलीग्राफ़ की सुर्ख़ियों और उनके लेखन में उनकी निर्भीकता हमेशा साफ़ झलकती थी। वे उन पत्रकारों में से थे जिनके लिए पत्रकारिता महज़ पेशा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा थी। उनकी कलम सत्ता का साथ देने वाली नहीं, बल्कि उसका सबसे सशक्त प्रश्नकर्ता हुआ करती थी।
पत्रकारिता जगत में उनके प्रशंसक ही प्रशंसक हैं, आलोचक कोई नहीं। नए पत्रकारों को आगे बढ़ाना और अपने अखबार के उन पत्रकारों का प्रोत्साहन करना जिन्होंने अच्छी रिपोर्ट लिखी है, आज के संपादकों को उनका तरीका सीखना चाहिए. 1962 में पटना में जन्मे संकर्षण ठाकुर बिहार की उस ज़मीन से निकले थे, जिसने उन्हें गहरी दृष्टि और जिजीविषा दी। गंगा के किनारे बसा यह शहर सदियों से इतिहास और स्मृतियों का संगम रहा है।वही मिट्टी, वही गंध, वही संघर्ष उनके भीतर भी उतर गया।
संकर्षण ठाकुर के पिता श्री जनार्दन ठाकुर भी बहुत बड़े पत्रकार थे और उन्होंने 77 के बाद ऑल द प्राइम मिनिस्टर्स मैन नाम की पुस्तक लिखी थी जिसकी बहुत चर्चा हुई और वह आज भी पढ़ी जाती है। योग्य पिता के सुयोग्य पुत्र संकर्षण ठाकुर द टेलीग्राफ के संपादक थे। टेलीग्राफ के पहले संपादक श्री एम जे अकबर थे। अकबर साहब ने टेलीग्राफ को हिंदुस्तान के प्रथम श्रेणी के अंग्रेजी अखबारों में शामिल कर दिया था। संकर्षण ठाकुर श्री एमजे अकबर के सुयोग्य उत्तराधिकारी थे।
संकर्षण ठाकुर सिर्फ संपादक नहीं थे, वे बुनियादी तौर पर पत्रकार थे और उन्होंने जिन घटनाओं को रिपोर्ट किया है, वह घटनाएं उनके लिखने के तरीके के कारण लोगों के दिमाग में स्थाई रूप से बस गई है।
पारिवारिक परिवेश ऐसा था, जहां पढ़ाई और संस्कार दोनों का महत्व था। सेंट जेवियर्स, पटना की पढ़ाई और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदू कॉलेज से राजनीति विज्ञान की शिक्षा ने उन्हें ज्ञान, अपने समय और समाज को देखने का नया नजरिया दिया।1983 में पढ़ाई पूरी करने तक वे समझ चुके थे कि भारत की राजनीति और समाज की धड़कन कहाँ और किस तरह दर्ज होती है।
पत्रकारिता ने उन्हें बहुत जल्दी अपना लिया। 1984 में संडे पत्रिका से शुरू हुआ था उनका सफ़र। उन दिनों पत्रकारिता अभी डिजिटल नहीं हुई थी। पत्रकार का सबसे बड़ा औज़ार उसका पैर और उसका कान होता था, सड़क पर चलना और लोगों की बात सुनना। बाद के वर्षों में वे इंडियन एक्सप्रेस, टेलीग्राफ और तहलका से जुड़े पर जहाँ भी रहे, उन्होंने ख़ुद को मेज़ पर बैठे हुए संपादक की तरह नहीं देखा। वे हमेशा ‘रोविंग एडिटर’ रहे, यानी एक ऐसा संपादक, जो खबर के पीछे निकल पड़ता है, चाहे वह कश्मीर की घाटी हो या बिहार का कोई गांव.
उनकी रिपोर्टिंग में कठोरता और करुणा दोनों साथ चलते थे। वे सच से कभी नहीं कतराते थे, और न ही पीड़ा से। संकर्षण ठाकुर की किताबें राजनीतिक जीवनी के साथ – साथ हमारे समय की गवाही भी हैं। ‘द मेकिंग ऑफ़ लालू यादव: द अनमेकिंग ऑफ़ बिहार’ उनकी सबसे प्रसिद्ध और अनिवार्य पठनीय कृति है जिसमें बिहार की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का जीवंत चित्रण है। सबाल्टर्न साहेब में उन्होंने लालू प्रसाद यादव के उभार और बिहार के विघटन को दर्ज किया है। यह केवल एक नेता की कहानी नहीं, बल्कि उस समाज का दस्तावेज़ है जिसने उसे जन्म दिया। सिंगल मैन में नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा और उनके द्वंद्व की गाथा है। वहीं, द ब्रदर्स बिहारी लालू और नीतीश, दोनों की समानांतर यात्राओं का चित्रण करता है जिन्होंने बिहार को दो अलग दिशाओं में खींचा।
इन पुस्तकों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि नेताओं के पीछे खड़े लोग भी जीवंत होते हैं, गांव की चौपालें, थके हुए खेतिहर, उखड़ी हुई सड़कें और उम्मीद से भरे युवा।
बिहार की यह सामूहिक छवि ही संकर्षण ठाकुर के लेखन को विशिष्ट बनाती है। इसके अलावा उन्होंने करगिल युद्ध, पाकिस्तान और उत्तर प्रदेश की ऑनर किलिंग्स पर भी किताबें लिखीं। आकार में छोटी ये किताबें अपने भीतर पूरे इतिहास का बोझ समेटे हुए, पाठक को घटनाओं और समाज के तलघट में ले जाती हैं। संकर्षण ठाकुर एक चित्रकार भी थे। खाली समय में वे कैनवास पर उतरते थे। उनके चित्रों में वही बेचैनी, वही गहराई और वही मौन दिखाई देती थी, जो उनकी रिपोर्टिंग में थी।उनके लिए लिखना और चित्र बनाना, दोनों ही गवाही के तरीके थे। शब्दों से उन्होंने समय को दर्ज किया, और रंगों से अपने भीतर की खामोशी को।
संकर्षण ठाकुर को उनकी उत्कृष्ट पत्रकारिता के लिए 2001 में प्रेम भाटिया पुरस्कार और 2003 में अप्पन मेनन फेलोशिप से सम्मानित किया गया। एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने उनके निधन पर शोक जताते हुए कहा, “संकर्षण ऐसे लेखक थे, जिन्होंने भारत की कई ऐतिहासिक घटनाओं को अपनी लेखनी से जीवंत किया।” सोशल मीडिया पर ठाकुर के निधन के बाद श्रद्धांजलियों का दौर जारी है। वरिष्ठ पत्रकार एजे फिलिप ने अपने लेख “संकर्षण ठाकुर: ए रीपोर्टर हू रोट विद ए पोएट्स पेन” में उनकी कारगिल युद्ध की रिपोर्टिंग को याद किया। उन्होंने लिखा, “जब ठाकुर गोवा में छुट्टियां मना रहे थे, तब कारगिल युद्ध की खबर सुनते ही वे तुरंत वहां पहुंचे। उनकी रिपोर्ट्स में वह गहराई थी जो केवल प्रिंट मीडिया ही दे सकता है।”
संकर्षण ठाकुर जितने गर्मजोशी से भरे थे, उतने ही अनुशासित भी। वे दिखावे और पाखंड को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करते थे। युवा पत्रकारों से वे हमेशा उच्च उम्मीद रखते थे। उनकी आलोचना कई बार तीखी लगती थी लेकिन उसमें हमेशा छिपा सत्य और मार्गदर्शन स्पष्ट दिखाई देता था। वे केवल सिखाने वाले वरिष्ठ नहीं थे; वे सुनने वाले भी थे। गांव की चौपाल हो या संसद भवन —हर जगह उनका ध्यान और एकाग्रता समान रहती थी। ऐसा लगता था जैसे वे हर व्यक्ति की कहानी पहली बार सुन रहे हों, हर बात को संवेदनशीलता और गंभीरता के साथ अपने भीतर उतार रहे हों।उनका असमय जाना, पत्रकारिता जगत की अपूरणीय क्षति है। उन्होंने पत्रकारिता और लेखन, दोनों में अभूतपूर्व काम किये हैं।उनका काम और नाम, हमेशा अमर रहेगा।
कुमार कृष्णन