अंग संस्कृति का अंग भंग कर बना संथाल परगना झारखण्ड

—विनय कुमार विनायक
यह अंगभूमि,अंग संस्कृति एवं अंगिका भाषी समाज की विडंबना ही है कि सर्वाधिक प्राचीन भूगोल एवं गौरवशाली इतिहास वाला
पौराणिक अंग जनपद सदा से राजनैतिक छल-छंदों का शिकार होकर अंग-भंग होता रहा है। शायद देवाधिदेव महादेव के क्रोध से
कामदेव के अंग की भष्मी को अपने में समाहित करके अंग संज्ञाधारी इस वसंत भूमि के पतझड़ के दिन अभी लदे नहीं हैं। वृक्ष से गिरती पत्तियों की तरह अंग क्षेत्र के कटते अंगों पर शायद ही कभी किसी ने विरोध जताया हो। यही वजह है कि 645 ई. में भारत की यात्रा करने वाले चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में जिस अंग प्रदेश का विस्तार उत्तर में लखीसराय से संपूर्ण राजमहल पहाड़ी क्षेत्र सम्प्रति संथाल परगना
(झारखण्ड) तक था वह पश्चिम से पूर्व की ओर चीरती गंगा के उसपार उत्तर में नौगछिया, गोपालपुर एवं बिहपुर प्रखंडों तथा इस पार दक्षिण में सुल्तानगंज, नाथनगर, सबौर, कहलगांव एवं पीरपैंती प्रखण्डों का एक सीमित क्षेत्र भागलपुर जिला मात्र रह गया है। ‘प्राग् मौर्य बिहार के इतिहास’ में डॉ देव सहाय त्रिदेव के अनुसार अंग महाजनपद का विस्तार संथाल परगना समेत,मानभूम,वीरभूम, मुर्शिदाबाद तक था। शक्ति संगम तंत्र के अनुसार अंगभूमि उड़िसा के भुवनेश्वर तक फैली थी। यह किंवदंती नहीं हकीकत है कि आजादी के बाद भाषा के आधार
पर प्रांतों के निर्माण करने के क्रम में भी अंग क्षेत्र को प्रदेश बनाने के लिए वांछित प्रयास नही किया गया बल्कि पण्णिकर रिपोर्ट के मद्देनजर अंगिका भाषी क्षेत्र के रूप में भागलपुर प्रमंडल का गठन किया गया और प्रमंडल कि नियति है मण्डल-अनुमंडल में टूटना। अगर आजादी
के बाद बंगला, उड़िया भाषियों के लिए बंगाल-उड़िसा राज्यों के तर्ज पर इस प्राचीन भाषा अंगिका भाषियों के संपूर्ण अंग क्षेत्र को राज्य का दर्जा दिया गया होता,जिसका यह क्षेत्र सहज अधिकारी था, तो आज संथाल परगना में अंगिका भाषी समाज को संस्कृति विहीन होकर अपनी
ही मातृभूमि में दिकु-सदान (बाहरी-बिहारी) जैसी धकियाऊँ संज्ञा का बेवजह शिकार नहीं होना पड़ता।
यह अंग्रेजी साजिश ही थी कि बौद्ध-सिद्ध कवियों के चर्यापदों की अंगिका भाषा को मैथिली की उपभाषा-बोली बताई गई। अंगिका भाषी पौराणिक जाति-वर्णाश्रमियों की आदिभूमि राजमहल पहाड़ी क्षेत्र को सुल्तानगंज पहाड़ी क्षेत्र से अलगाकर दामिन-इ-कोह (दुमका) के रूप में
चिह्नित कर 1833 ई में सरकारी भूमि घोषित की गई और मिदनापुर,मयूरभंज से आए संथाल जनजाति के नाम पर संथाल परगना कर दी गई जो इस क्षेत्र के लिए नवागंतुक थी। अंग्रेजों द्वारा अंग क्षेत्र की राजमहल पहाड़ी के 1366 वर्गमील भूमि का नामकरण संथाल परगना करने के पीछे संथाल को सम्मानित करने की पवित्र भावना नहीं थी बल्कि इस क्षेत्र के मूल निवासी विद्रोही वर्णाश्रमी जातियों सहित पहाड़िया जनजाति को इस क्षेत्र की दावेदारी से बेदखल करने तथा भविष्य में संथाल जनजाति से इन्हें लड़ाने की दुर्भावना थी। आजादी के तिरेपन वर्ष बाद पंद्रह सितंबर दो हजार ई को झारखंड राज्य के गठन की निर्णायक घड़ी में अंग प्रदेश की भाषाई संस्कृति को नजरंदाज करके इसके आधे हिस्से को बिहार में तथा आधे हिस्से को संथाल परगना के रूप में झारखण्ड में शामिल करके अंग्रेजी साजिश को जस का तस स्वीकार कर लिया गया। संथाल परगना का सच वह नहीं है जो अंग्रेजों ने दिखाया था या संथाल परगना का सच वह भी नहीं है जो झारखण्ड के आदिवासी और सदान नेता आज हमें दिखा रहे हैं। अंग्रेजों ने जो कोर कसर छोड़ दिया था उसे आज के जातिवादी वोट परस्त राजनेताओं ने पूरा कर दिया।


अंग क्षेत्र का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि मुद्दत के बाद आदिवासियों, गैर आदिवासियों के सम्मिलित प्रयास एवं जन आंदोलन से झारखण्ड के अलग राज्य बनने पर अंग्रेजों के फूट डालो राज करो की उस बदनीयती को राजनेताओं द्वारा एकदम नहीं समझा गया। संथाल परगना के सच के रुप में स्वीकृत सबसे बड़ा झूठ यह है कि अक्सरा पढ़ें लिखे नेता भी इस राजमहल पहाड़ी क्षेत्र को संथालों की आदि भूमि (होम लैण्ड) समझते हैं और अठारहवीं सदी के अंत में संथालों के यहां आने तथा बस जाने के पूर्व इस तेरह सौ छियासठ वर्गमील के संथाल परगना (दामिन-इ-कोह) क्षेत्र को जन शून्य मानते हैं किन्तु सच्चाई उलट है जिसे 1855 ई. के संथाल हूल के बाद सोची समझी साज़िश के तहत इस क्षेत्र
का एक जनजाति विशेष नाम संथाल परगना कर देने से आसानी से समझी नहीं जा सकती,इस संदर्भ में 1772-80 ई. के पहाड़िया विद्रोह तथा 1783-85 ई.के तिलका मांझी उर्फ जाबरा पहाड़िया के नेतृत्व में इस क्षेत्र के मूलवासी जाति-जन जाति जन आंदोलन को याद किया जा सकता है। ये आंदोलन भागलपुर गंगा नदी के दक्षिणी किनारे में स्थित सुल्तान गंज पहाड़ी से लेकर राजमहल पहाड़ी क्षेत्र में बसे मूलवासी वर्णाश्रमी
जातियों तथा पहाड़िया जनजाति का अंग्रेजों के विरुद्ध यहां संथालों को लाने और बसाने के पूर्व का सम्मिलित विद्रोह था। सच तो यह भी है कि इस क्षेत्र में संथालों के आने के पूर्व में जाति और जनजाति के नाम से कोई परायापन व भेदभाव नहीं था। 1781-82 ई.का विद्रोह सर्वाधिक असरदार था जिसमें महेशपुर राज की रानी सर्वेश्वरी देवी ने कंपनी शासन के विरुद्ध काफी खुलकर मुखर बगावत की थी जिसमें यहां के पहाड़िया सरदारों ने रानी सर्वेश्वरी की मदद की थी। अंग्रेजों ने इसी सदान पहाड़िया के सम्मिलित विद्रोह को कुचलने तथा यहां की मूल जातियों
-जनजातियों की एकता को सदा के लिए तोड़ने की मंशा से ही 1824 ई. में इन जातियों जनजातियों की मातृभूमि अंगदेशीय राजमहल क्षेत्र को दामिन-इ-कोह के रुप सीमांकित करके सरकारी सम्पत्ति घोषित कर दिया था। भागलपुरी गंगा कछार सुल्तानगंज पहाड़ी, राजमहल पहाड़ी के छापामार स्वतंत्रता सेनानी जाबरा पहाड़िया उर्फ तिलका मांझी ने अपनी इसी मातृभूमि की आजादी के लिए 1785 ई.में अंग्रेज सेना नायक आगस्टीन क्लीवलैंड को भागलपुर में तीर से घायल कर दिया था जिसे अंग्रेजों ने पकड़कर वर्तमान तिलका मांझी चौक भागलपुर के
बरगद वृक्ष की डाली पर लटका कर फांसी दे दिया था। तिलका मांझी न सिर्फ पहाड़िया बल्कि स्थानीय सदान जातियों के भी मुक्ति दाता थे। अंग्रेजों से लुटे गए खजाने को वे बिना किसी भेदभाव के स्थानीय जातियों और जनजाति पहाड़िया में बांट दिया करते थे।
यह तो अंग संस्कृति की असीम सहिष्णुता ही है कि झारखंड के कट जाने के बावजूद भागलपुर विश्वविद्यालय को आदिम जाति पहाड़िया के शहीद तिलका मांझी के नाम स्मृति में सादर समर्पित किया गया है जबकि झारखण्ड की उप राजधानी दुमका जो अंगभूमि का ही खंडित भूगोल है, इतना अधिक अनुदार और असहिष्णु हो चुकी है कि इस राज्य सीमा से सटे खडहरा,बांका बिहार के अंगदेशीय अमर शहीद सतीश प्रसाद झा के नाम यहां कोई चौक चौराहा भी नहीं है। और तो और राजमहल पहाड़ी क्षेत्र दुमका में तिलका मांझी की स्मृति कोई निशानी नहीं है। इस
उदाहरण से अंगदेशीय जाति-जनजाति एकता की सामाजिक संस्कृति को तोड़ने के पीछे अंग्रेजों की कूटनीति को समझी जा सकती है किन्तु आजाद देश के जन प्रतिनिधियों द्वारा अंग्रेजी साजिश को नही समझ सकने की प्रवृत्ति से कैसे निपटा जा सकता है। अस्तु आज समय की मांग है कि वक्त रहते झारखण्ड राज्य गठन में हुई भूल को सुधार लिया जाए तथा पण्णिकर रिपोर्ट के आलोक में स्थानीय अंगदेशीय भाषा अंगिका की दक्षिणी स्वरुप खोरठा भाषा के मद्देनजर भागलपुर जिला के सुल्तानगंज पहाड़ी क्षेत्र समेत मंदार पर्वतीय क्षेत्र बांका जिला एवं मुंगेर जिला के दक्षिणी जमुई आदि पहाड़ी क्षेत्रों को झारखंड राज्य में समाहित किया जाना गंगा के इस पार के अंगदेशीय जनता के साथ वास्तविक सामाजिक न्याय होगा। इसके साथ ही दिकु सदान स्वतंत्रता सेनानी के नाम से कालेज आदि का नामकरण किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में संथाल परगना में हर सरकारी संस्थाओं का नामकरण सिदो कान्हु मुर्मू एवं परिवार के नाम से किया जाता है। जिससे इस क्षेत्र के दिकु सदान जातियों के स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति घोर उपेक्षा भाव दृष्टिगोचर होता है।
—विनय कुमार विनायक

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