संन्यास आश्रम की महत्ता पर संन्यासी स्वामी दयानन्द का उपदेश

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sami dayanandमहर्षि दयानन्द के प्रसिद्ध ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ संस्कारविधि है। इस ग्रन्थ में उन्होंने वेदों पर आधारित 16 संस्कारों का व्याख्यान किया है। इस व्याख्यान में सभी संस्कारों के स्वरूप का वर्णन करने के साथ उनकी विधि वा पद्धति भी दी गई है। संस्कारविधि से ही हम उनके संन्यास आश्रम पर उपदेश को पाठकों के लाभ हेतु सम्पादन के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

‘संन्यास-संस्कार’ उसे कहते हैं कि जिसमें मोह आदि आवरण व पक्षपात छोड़ कर तथा विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरण किया करते हैं। प्रथम वानप्रस्थ आश्रम के प्रसंग में जो बताया गया है कि ब्रह्मचर्य पूरा करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वानप्रस्थ तथा वानप्रस्थ होके संन्यासी होवे, यह क्रम संन्यास, अर्थात् अनुक्रम से आश्रमों का अनुष्ठान करता-करता वृद्धावस्था में जो संन्यास लेना है, उसी को ‘क्रम-संन्यास’ कहते हैं। संन्यास का दूसरा प्रकार यह है कि जिस दिन दृढ़ वैराग्य प्राप्त हो, उसी दिन चाहे वानप्रस्थ का समय पूरा भी न हुआ हो, अथवा वानप्रस्थ आश्रम का अनुष्ठान न करके गृहाश्रम से ही संन्यासाश्रम ग्रहण करें क्योंकि संन्यास में दृढ़ वैराग्य और यथार्थ ज्ञान का होना ही मुख्य कारण है। संन्यास आश्रम का तीसरा प्रकार यह है कि यदि पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य, सच्चा वैराग्य और पूर्ण ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त होकर विषयासक्त की इच्छा आत्मा से यथावत् उठ जावे, पक्षपातरहित होकर सबके उपकार करने की इच्छा होवे और जिसको दृढ़ निश्चय हो जावे कि मैं मरण-प्र्यान्त यथावत् संन्यास-धर्म का निर्वाह कर सकूंगा तो वह न गृहाश्रम करे न वानप्रस्थाश्रम, किन्तु ब्रह्मर्याश्रम को पूर्ण करके संन्याश्रम को ग्रहण कर लेवे।

 

वेदों में संन्यास आश्रम ग्रहण करने के प्रमाण उपलब्ध हैं। महर्षि दयानन्द जी ने संस्कारविधि में वेदों के 11 प्रमाण दिये हैं। लेख की सीमा के कारण हम यहां प्रथम दो प्रमाणों के ही उनके किये हुए हिन्दी अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। वह वेद मन्त्र का शब्दार्थ करते हुए कहते हैं कि ‘मैं ईश्वर संन्यास लेनेवाले तुझ मनुष्य को उपदेश करता हूं कि जैसे मेघ का नाश करनेवाला सूर्य हिंसनीय पदार्थों से युक्त भूमितल में स्थित सोमरस को पीता है, वैसे संन्यास लेनेवाला पुरुष उत्तम मूल, फलों के रस को पीवे और अपने आत्मा में बड़े सामथ्र्य को उत्पन्न करूंगा, ऐसी इच्छा करता हुआ दिव्य बल को धारण करता हुआ परमैश्वर्य के लिए, हे चन्द्रमा के तुल्य सबको आनन्दित करनेहारे पूर्ण विद्वन् ! तू संन्यास लेके सब पर सत्योपदेश की वृष्टि कर।’ हे सोमगुण सम्पन्न सत्य से सबके अन्तःकरण को सींचनेवाले, सब दिशाओं में स्थित मनुष्यों को सच्चा ज्ञान देके पालन करनेवाले, शमादिगुणयुक्त संन्यासिन् ! यथार्थ बोलने, सत्यभाषण करने से सत्य के धारण में सच्ची प्रीति और प्राणायाम, योगाभ्यास से, सरलता से निष्पन्न होता हुआ अपने शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि को पवित्र कर। परमैश्वर्ययुक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए सब प्रकार से प्रयत्न कर।

 

वेदों के प्रमाणों को प्रस्तुत करने के बाद महर्षि दयानन्द जी ने मनुस्मृति के 23 श्लोक प्रस्तुत कर उनके अर्थ दिये गये हैं जिनमें से 17 श्लोकों के अर्थ लेख की सीमा को ध्यान में रखकर प्रस्तुत हैं। यह अर्थ क्रमशः इस प्रकार कहे हैं। (वानप्रस्थ) काल में जंगलों में आयु का तीसरा भाग, अर्थात् अधिक-से-अधिक पच्चीस वर्ष अथवा न्यून-से-न्यून बारह वर्ष तक विहार करके आयु के चैथे भाग, अर्थात् सत्तर वर्ष के पश्चात् सब मोह आदि संगों (परिवार आदि संबंधों) को छोड़कर संन्यासी हो जावे।।1।। विधिपूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम में सब वेदों को पढ़, गृहाश्रमी होकर धर्म से पुत्रोत्पत्ति कर, वानप्रस्थ में सामथ्र्य के अनुसार यज्ञ करके मोक्ष, अर्थात् संन्यासाश्रम में मन को लगाये।।2।। प्रजापति परमात्मा की प्राप्ति के निमित्त प्राजापत्येष्टि कि जिसमें यज्ञोपवीत और शिखा को त्याग दिया जाता है, इनका त्याग कर आह्वनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि संज्ञक अग्नियों को आत्मा में समारोपित करके, ब्राह्मण विद्वान गृहाश्रम से ही संन्यास लेवे।।3।। जो पुरुष सब प्राणियों को अभयदान, सत्योपदेश देकर गृहश्रम से ही संन्यास ग्रहण कर लेता है, उस ब्रह्मवादी, वेदोक्त  सत्योपदेशक संन्यासी को मोक्षलोक और सब लोक-लोकान्तर तेजोमय-ज्ञान से प्रकाशमय हो जाते हैं।।4।। जब सब कामों (इच्छाओं, कामनाओं आदि) को जीत लेवे और उनकी अपेक्षा न रहे, पवित्रात्मा और पवित्रान्तःकरण और मननशील हो जावे तभी गृहाश्रम से निकलकर संन्यासाश्रम का ग्रहण करे अथवा ब्रह्मचर्य ही से संन्यास का ग्रहण कर लेवे।।5।।

 

वह संन्यासी अनग्निः अर्थात् आह्वनीयादि अग्नियों से रहित और कहीं अपना स्वाभिमत घर (मठ, आश्रम आदि) भी न बांधे और अन्न-वस्त्रादि के लिए ग्राम का आश्रय लेवे। बुरे मनुष्यों की उपेक्षा करे और स्थिरबुद्धि व मननशील होकर परमेश्वर में अपनी भावना का समाधान करता हुआ विचरे।।6।।  न तो अपने जीवन में आनन्द और न अपने मृत्यु में दुःख माने, किन्तु जैसे क्षुद्र भृत्य अपने स्वामी की आज्ञा की बाट देखता रहता है, वैसे ही काल और मृत्यु की प्रतीक्षा करता रहे।।7।। चलते समय आगे-आगे देख के पग धरे। सदा वस्त्र से छानकर जल पीवे। सबसे सत्य वाणी बोले अर्थात् सत्योपदेश ही किया करे। जो कुछ व्यवहार करे, वह सब मन की पवित्रता से आचरण करे।।8।। इस संसार में आत्मनिष्ठा में स्थित, सर्वथा अपेक्षारहित, मांस-मद्यादि का त्यागी, आत्मा के सहाय से ही सुखार्थी होकर विचरा करे और सबको सत्योपदेश करता रहे।।9।। सब शिर के बाल, दाढ़ी-मूंछ और नखों का समय-समय पर छेदन कराता रहे। पात्री, दण्डी और कुसुंभ के रंगे हुए वस्त्रों को धारण किया करे। सब भूत-प्राणिमात्र को पीड़ा न देता हुआ दृढ़ात्मा होकर नित्य विचरण करे।।10।।

 

जो संन्यासी बुरे कामों से इन्द्रियों के निरोध, राग-द्वेषादि दोषों के क्षय और निर्वैरता से सब प्राणियों का कल्याण करता है, वह मोक्ष को प्राप्त होता है।।11।। चाहे संन्यासी को संसारी मूर्ख लोग निन्दा आदि से दूषित वा अपमानित भी करें, तथापि वह धर्म ही का आचरण करे। ऐसे ही अन्य ब्रह्मचर्य आश्रम आदि के मनुष्यों को करना उचित है। सब प्राणियों में पक्षपातरहित होकर समबुद्धि रक्खे–इत्यादि उत्तम काम करने ही के लिए संन्यासाश्रम का विधान है, किन्तु केवल दण्डादि चिन्ह धारण करना ही संन्यास धर्म का कारण नहीं है।।12।। यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल जल को शुद्ध करनेवाला है तथापि उसके नामग्रहणमात्र से जल शुद्ध नहीं होता, किन्तु उसको ले, पीस, जल में डालने ही से जल शुद्ध होता है। वैसे नाममात्र आश्रम से कुछ भी नहीं होता, किन्तु अपने-अपने आश्रम के धर्मयुक्त कर्म करने ही से आश्रमधारण सफल होता है, अन्यथा नहीं।।13।। इस पवित्र संन्यास आश्रम को सफल करने के लिए संन्यासी पुरुष विधिवत् योगशास्त्र की रीति से सात व्याहृतियों के पूर्व सात प्रणव लगा के  (अर्थात् ओं भूः। ओं भुवः ओं स्वः। ओं महः ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्। बोलकर्), उसे मन से जपता हुआ तीन प्राणायाम भी करे तो जानों अत्युत्कृष्ट तप करता है।।14।। जैसे अग्नि में तपाने से धातुओं के मल छूट जाते हैं वैसे ही प्राण के निग्रह से इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं।।5।। इसलिए संन्यासी लोग प्राणायामों से मन व शरीरादि के दोषों को, धारणाओं से अन्तःकरण के मैल को, प्रत्याहार से संग से हुए दोषों और ध्यान से अविद्या, पक्षपात आदि अनीश्वरता (नास्तिकता) के दोषों को छुड़ाके पक्षपातरहित आदि ईश्वर के गुणों को धारण कर, सब दोषों को भस्म कर देवे।।16।। जो अन्तर्यामी परमात्मा बड़े-छोटे प्राणी और अप्राणियों में अशुद्ध आत्माओं से देखने के योग्य नहीं है, उस परमात्मा की गति व कार्यों को ध्यानयोग से ही संन्यासी देखा करे।।17।।

 

स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वयं संन्यासी थे। उन्होंने अपने जीवन में संन्यास के सभी कर्तव्यों व मर्यादाओं का प्राणपण से पालन किया। उन्होंने जो बातें वेद और मनुस्मृति के आधार पर अपने व्याख्यान में कही हैं, उन सब का आचरण उनके जीवन में परिलक्षित होता है। संन्यास आश्रम पर उनके द्वारा संस्कारविधि में दिये गये प्रमाणों और मनुस्मृति के अन्य उपदेशों को जानने के लिए पाठक महानपुभाव कृपया संस्कारविधि का अध्ययन करें। वैदिक आश्रम व्यवस्था ईश्वर से प्रेरित व स्थापित है और श्रेष्ठ समाज, समुन्नत देश व विश्व तथा मनुष्य की आत्मा की सर्वांगीण उन्नति व जीवन के चरम लक्ष्यों धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सफलता की दृष्टि से रची गई है। सृष्टि के आरम्भ काल से महाभारत काल तक यह आश्रम व्यवस्था अपने यथार्थ रूप में प्रचलित रही। उसके बाद इसमें ह्रास की स्थिति उत्पन्न हुई जिसका कारण अज्ञान व अन्धविश्वासों का देश व समाज में प्रसार होना था। इसका परिणाम देश की पराधीनता व सभी मनुष्यादि प्राणियों को नानाविध दुःख के रूप में हुआ। यद्यपि संन्यास आश्रम का पालन कठिन अवश्य है परन्तु असंभव नहीं है। सृष्टि के आरम्भ काल से असंख्य व कोटिशः लोगों ने इसका पालन किया है। आज इसका पर्याप्त संख्या व यथार्थ रूप में पालन न होने से ही विश्व में सर्वत्र अशान्ति व क्लेश का वातावरण है। आज भी आर्यसमाज में सहस्रों संन्यासी हैं जो संन्यास धर्म का पालन करते हुए समाज व देश से अन्धकार दूर करने का प्रयास कर रहे हैं जिसके कारण वैदिक धर्म व संस्कृति जीवित है। लेख को विराम देने से पूर्व हम निवेदन करना चाहते हैं कि सभी बन्धुओं को संस्कारविधि का अध्ययन कर ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय, ग्रन्थ की आत्मा व गहराई को समझना चाहिये और अपने हित व अहित को ध्यान में रखकर जो उन्हें ग्राह्य लगे उसे आचरण में लाना चाहिये।

 

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