सरदार पटेल की विलक्षण उपलब्धि

लालकृष्ण आडवाणी

हाल ही में एक अत्यंत रोचक पुस्तक: इण्डियन समर% दि सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ दि एण्ड ऑफ एन एम्पायर देखने को मिली। इसकी लेखिका एक जर्मन महिला हैं। जिनका नाम है आलेक्स फॉन टूनसेलमान। यह उनकी पहली पुस्तक है।

पुरस्कार विजेता इतिहासकार विलियम डलरिम्पल ने इस पुस्तक को ‘एक श्रेष्ठ कृति‘ और ”स्वतंत्रता तथा भारत व पाकिस्तान विभाजन पर मेरे द्वारा पढ़ी गई निस्संदेह उत्तम पुस्तक” के रुप में वर्णित किया है।

जब भारत पर अंग्रेजी राज था तब देश एक राजनीतिक इकाई नहीं था। इसके दो मुख्य घटक थे: पहला, ब्रिटिश भारत; दूसरा, रियासतों वाला भारत। रियासतों वाले भारत में 564 रियासतें थी।

वी.पी. मेनन की पुस्तक: दि स्टोरी ऑफ इंटग्रेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स में प्रसिध्द पत्रकार एम.वी. कामथ ने लेखक के बारे में यह टिप्पणी की है:

”जबकि सभी रियासतों-जैसाकि उन्हें पुकारा जाता था-को भारत संघ में विलय कराने का श्रेय सरदार को जाता है, लेकिन वह भी ऐसा इसलिए कर पाए कि उन्हें एक ऐसे व्यक्ति का उदार समर्थन मिला जो राजाओं की मानसिकता और मनोविज्ञान से भलीभांति परिचित थे, और यह व्यक्ति कौन था? यह थे वापल पनगुन्नी मेनन-वी.पी. मेनन के नाम से उन्हें जल्दी ही पहचाना जाने लगा।”

”वीपी के प्रारम्भिक जीवन के बारे में कम जानकारी उपलब्ध है। एक ऐसा व्यक्ति जो सभी व्यवहारिक रुप से पहले, अंतिम वायसराय लार्ड लुईस माउंटबेटन और बाद में,, भारत के लौह पुरुष महान सरदार वल्लभ भाई पटेल के खासमखास बने, ने स्वयं गुमनामी में जाने से पहले अपने बारे में बहुत कम जानकारी छोड़ी। यदि वह सत्ता के माध्यम से कुछ भी पाना चाहते तो जो मांगते मिल जाता।”

यह पुस्तक वी.पी. मेनन द्वारा भारतीय इतिहास के इस चरण पर लिखे गए दो विशाल खण्डों में से पहली (1955) है। दूसरी पुस्तक (1957) का शीर्षक है: दि ट्रांसफर ऑफ पॉवर इन इण्डियाA

जिस पुस्तक ने मुझे आज का ब्लॉग लिखने हेतु बाध्य किया, उसमें रियासती राज्यों के मुद्दे पर ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐप्पल्स‘ शीर्षक वाला अध्याय है। इस अध्याय की शुरुआत इस प्रकार है:

”18 जुलाई को राजा ने लंदन में इण्डिया इंटिपेंडेंस एक्ट पर हस्ताक्षर किए और माउंटबेटन दम्पति ने अपने विवाह की रजत जयंती दिल्ली में मनाई, पच्चीस वर्ष बाद उसी शहर में जहां दोनों की सगाई हुई थी।”

यह पुस्तक कहती है कि रियासती राज्यों के बारे में ब्रिटिश सरकार के इरादे ”अटली द्वारा जानबूझकर अस्पष्ट छोड़ दिए गए थे।” माउंटबेटन से यह अपेक्षा थी कि वह रियासतों की ब्रिटिश भारत से उनके भविष्य के रिश्ते रखने में सही दृष्टिकोण अपनाने हेतु सहायता करेंगे। नए वायसराय को भी यह बता दिया गया था कि ‘जिन राज्यों में राजनीतिक प्रक्रिया धीमी थी, के शासकों को वे अधिक लोकतांत्रिक सरकार के किसी भी रुप हेतु तैयार करें।”

माउन्टबेंटन ने इसका अर्थ यह लगाया कि वह प्रत्येक राजवाड़े पर दबाव बना सकें कि वह भारत या पाकिस्तान के साथ जाने हेतु अपनी जनता के बहुमत के अनुरुप निर्णय करें। उन्होंने पटेल को सहायता करना स्वीकार किया और 15 अगस्त से पहले ‘ए फुल बास्केट ऑफ ऐपल्स‘ देने का वायदा किया।

9 जुलाई को स्टेट्स के प्रतिनिधि अपनी प्रारम्भिक स्थिति के बारे में मिले। टुनसेलमान के मुताबिक अधिकांश राज्य भारत के साथ मिलना चाहते थे। ”लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्यों में से चार-हैदराबाद, कश्मीर, भोपाल और त्रावनकोर-स्वतंत्र राष्ट्र बनना चाहते थे। इनमें से प्रत्येक राज्य की अपनी अनोखी समस्याएं थीं। हैदराबाद का निजाम दुनिया में सर्वाधिक अमीर आदमी था: वह मुस्लिम था, और उसकी प्रजा अधिकांश हिन्दू। उसकी रियासत बड़ी थी और ऐसी अफवाहें थीं कि फ्रांस व अमेरिका दोनों ही उसको मान्यता देने को तैयार थे। कश्मीर के महाराजा हिन्दू थे और उनकी प्रजा अधिकांशतया मुस्लिम थी। उनकी रियासत हैदराबाद से भी बड़ी थी परन्तु व्यापार मार्गों और औद्योगिक संभावनाओं के अभाव के चलते काफी सीमित थी। भोपाल के नवाब एक योग्य और महत्वाकांक्षी रजवाड़े थे और जिन्ना के सलाहकारों में से एक थे: उनके दुर्भाग्य से उनकी रियासत हिन्दूबहुल थी और वह भारत के एकदम बीचोंबीच थी, पाकिस्तान के साथ संभावित सीमा से 500 मील से ज्यादा दूर। हाल ही में त्रावनकोर में यूरेनियम भण्डार पाए गए, जिससे स्थिति ने अत्यधिक अंतर्राष्ट्रीय दिलचस्पी बड़ा दी।”

इस समूचे प्रकरण में मुस्लिम लीग की रणनीति इस पर केंद्रित थी कि अधिक से अधिक रजवाड़े भारत में मिलने से इंकार कर दें। जिन्ना यह देखने के काफी इच्छुक थे कि नेहरु और पटेल को ”घुन लगा हुआ भारत मिले जो उनके घुन लगे पाकिस्तान” के साथ चल सके। लेकिन सरदार पटेल, लार्ड माउंटबेंटन और वी.पी. मेनन ने एक ताल में काम करते हुए ऐसे सभी षडयंत्रों को विफल किया।

इस महत्वपूर्ण अध्याय की अंतिम पंक्तियां इस जोड़ी की उपलब्धि के प्रति एक महान आदरांजलि है। ऑलेक्स फॉन टुनेसलेमान लिखती हैं:

”माउंटबेटन की तरकीबों या पटेल के तरीकों के बारे में चाहे जो कहा जाए, उनकी उपलब्धि उल्लेखनीय रहेगी। और एक वर्ष के भीतर ही, इन दोनों के बारे में तर्क दिया जा सकता है कि इन दोनों ने 90 वर्ष के ब्रिटिश राज, मुगलशासन के 180 वर्षों या अशोक अथवा मौर्या शासकों के 130 वर्षों की तुलना में एक विशाल भारत, ज्यादा संगठित भारत हासिल किया।”

जो जर्मन महिला ने जो अर्थपूर्ण ढंग से लिखा है उसकी पुष्टि वी.पी. मेनन द्वारा दि स्टोरी ऑफ इंटीगिरेशन ऑफ दि इण्डियन स्टेट्स‘ के 612 पृष्ठों में तथ्यों और आंकड़ों से इस प्रकार की है।

”564 भारतीय राज्य पांचवा हिस्सा या लगभग आधा देश बनाते हैं: कुछ बड़े स्टेट्स थे, कुछ केवल जागीरें। जब भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान एक पृथक देश बना तब भारत का 364, 737 वर्ग मील और 81.5 मिलियन जनसंख्या से हाथ धोना पड़ा लेकिन स्टेट्स का भारत में एकीकरण होने से भारत को लगभग 500,000 वर्ग मील और 86.5 मिलियन जनसंख्या जुड़ी जिससे, भारत की पर्याप्त क्षतिपूर्ति हुई।”

स्टेट्स के एकीकरण सम्बंधी अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में वी.पी. मेनन लिखते हैं: यह पुस्तक स्वर्गीय सरदार वल्लभभाई पटेल को किए गए वायदे की आंशिक पूर्ति है। यह उनकी तीव्र इच्छा थी कि मैं दो पुस्तकें लिखूं, जिसमें से एक में उन घटनाओं का वर्णन हो जिनके चलते सत्ता का हस्तांतरण हुआ और दूसरी भारतीय स्टेट्स के एकीकरण से सम्बन्धित हो।

टेलपीस (पश्च्यलेख)

30 अक्टूबर, 2012 को सरदार पटेल की जयंती की पूर्व संध्या पर ‘पायनियर‘ ने एक समाचार प्रकाशित किया कि कैसे प्रधानमंत्री नेहरु हैदराबाद की मुक्ति के सरदार की योजना को असफल करना चाहते थे।

समाचार इस प्रकार है:

”तत्कालीन उपप्रधानमंत्री और भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल जिनकी 137वीं जयंती 31 अक्टूबर को है, को तब के प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरु द्वारा एक केबिनेट मीटिंग के दौरान अपमानित और लांछित किया गया। ”आप एक पूर्णतया साम्प्रदायिक हो और मैं तुम्हारे सुझावों और प्रस्तावों के साथ कभी पार्टी नहीं बन सकता”-नेहरु एक महत्वपूर्ण केबिनेट बैठक में सरदार पटेल पर चिल्लाए जिसमें निजाम की निजी सेना-रजाकारों के चंगुल से, सेना की कार्रवाई से हैदराबाद की मुक्ति पर विचार हो रहा था।

हतप्रभ सरदार पटेल ने मेज पर से अपने पेपर इक्ट्ठे किए और धीरे-धीरे चलते हुऐ कैबिनेट कक्ष से बाहर चले गए। यह अंतिम अवसर था जब पटेल ने कैबिनेट बैठक में भाग लिया। 1947 बैच के आईएस अधिकारी एम के नायर ने अपने संस्मरण ”विद नो इल फीलिंग टू एनीबॉडी” में लिखा है कि ”उन्होंने तब से नेहरु से बोलना भी बंद कर दिया।”

हालांकि नायर ने उपरोक्त वर्णित कैबिनेट बैठक की सही तिथि नहीं लिखी है, परन्तु यह हैदराबाद मुक्ति के लिए चलाए गए भारतीय सेना के अभियान ऑपरेशन पोलो, जो 13 सितम्बर, 1948 को शुरु होकर 18 सितम्बर को समाप्त हुआ, के पूर्ववर्ती सप्ताहों में हुई होगी।

जबकि सरदार पटेल 2,00,000 रजाकारों के बलात्कार और उत्पात से हैदराबाद को मुक्त कराने के लिए सेना की सीधी कार्रवाई चाहते थे, उधर नेहरु संयुक्त राष्ट्र के विकल्प को प्राथमिकता दे रहे थे।

नायर लिखते हैं कि सरदार पटेल के प्रति नेहरु की निजी घृणा 15 सितम्बर, 1950 को उस दिन और खुलकर सामने आई जिस दिन सरदार ने बॉम्बे (अब मुंबई) में अंतिम सांस ली। ”सरदार पटेल की मृत्यु का समाचार पाने के तुरंत बाद नेहरु ने राज्यों के मंत्रालय को दो नोट भेजे, इनमें से एक में नेहरु ने मेनन को लिखा कि सरदार पटेल द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली के कडिल्लक(Cadillac) कार को उनके कार्यालय को वापस भेज दिया जाए। दूसरा नोट क्षुब्ध कर देने वाला था। नेहरु चाहते थे कि सरकार के जो सचिव सरदार पटेल की अंतिम क्रिया में भाग लेने के इच्छुक थे, वे अपने निजी खर्चे पर ही जाएं।

”लेकिन मेनन ने सभी सचिवों की बैठक बुलाई और जो अंतिम क्रिया में जाना चाहते थे, की सूची मांगी। नेहरु द्वारा भेजे गए ‘नोट‘ का उन्होंने कोई उल्लेख नहीं किया। जिन लोगों ने सरदार की अंतिम यात्रा में जाने की इच्छा व्यक्त की थी उनके हवाई यात्रा के टिकट का पूरा खर्चा मेनन ने चुकाया।”

5 COMMENTS

  1. आडवानी जी, आप की उपलब्धियां भी कम विलक्षण नहीं है, भारत के पहले बटवारे का श्रेय तो आप को नहीं मिल सकता लेकिन भारत को साप्रदायिकता के आधार पर बाटने का श्रेय आपको ज़रूर मिलेगा. भारत में धर्म निरपेक्षता की हत्या आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि है. एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के राजनेता होने के बावजूद आपने सिर्फ मंदिर का समर्थन किया ? आपके के लिए सभी धर्म स्थल एक समान होने चाहिए थे. जब पार्टी और नेता ही धर्म निरपेक्ष नहीं तो सरकार और देश धर्म निरपेक्ष कैसे बनेगे ?
    बाबरी मस्जिद की शहादत और बहुत सारे दंगे आपकी सबसे बड़ी उपलब्धि है. आप अपनी पार्टी का नाम भारतीय दंगा पार्टी क्यों नहीं रख देते ? बस आप सिर्फ एक ही उपलब्धि अपने नाम नहीं कर पाए, वो हैं गुजरात के दंगे. अगर ये उपलब्धि भी आपके नाम हो जाती तो आपही सबसे ज्यादा उपलब्धि वाले होते.
    अंत में आपसे एक प्रश्न – अगर आप जैसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बनता है तो क्या देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बाकि रहेगा? क्या सभी धर्म वालों के साथ आप इंसाफ कर सकते हैं?

  2. – नेहरु और इस परिवार के बारे में सत्य को उजागर करने वाली फिल्म तब तक असम्भव है जब तक सोनिया का वर्चस्व इस देश पर है.
    – लगता है कि अब इन दुर्जनों की अन्तिम पारी होगी और देश इनके पंजे से अब मुक्त हो सकेगा.
    – अडवानी जी के सभी लेख तथ्यों से परिपूर्ण और मार्गदर्शक होते हैं, आजकल के राजनैतिक नेताओं जैसे नहीं. साधुवाद.

  3. हमारे देश का दुर्भाग्य, जो नेतृत्व हमें मिला, अदूर्दृष्टा नेतृत्व था.
    और दुर्भाग्य की, उसके पीछे ठप्पामार अन्धानुयायी भी थे.
    न वोह राष्ट्र भाषा प्रस्थापित कर पाया, न पाक बलात्कारित कश्मीर को वापस ले पाया.
    और हमारी कश्मीर की समस्या का जनक भी वही है.

    ५६३ देशी राज्यों को रातोरात सम्मिलित करवाने वाला वल्लभ भाई पटेल कहाँ?
    और एक कश्मीर को समस्याग्रस्त कर हमारे लिए धरोहर के रूपमें छोड़ने वाला वाला नेहरुत्व कहां?

    पर, अब दूसरा “वल्लभ भाई पटेल” जन्म ले चुका है.
    अवसर ना खोना.
    नहीं तो आजीवन पछताना पडेगा.

  4. इस देश की अधिकांश समस्याएं नेहरूजी की मूर्खतापूर्ण नीतियों का कुफल हैं.नेहरु की इन देशघातक नीतियों को आधार बनाकर एक फिल्म बननी चाहिए ताकि नयी पीढ़ी को सच्चाई का पता चल सके और हमने पिछले पेंसठ वर्षों मे देश की आज़ादी के इतिहास के बारे में जो झूठी कहानियां सुनाई हैं उनका पर्दाफाश हो सके.देश की नयी पीढ़ी को देश का सच्चा और गौरवशाली अत्तेत भी बताया जाना आवश्यक है. अभी एक सप्ताह पूर्व श्री चन्दन मित्र जी नए पत्रकारों के एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में मेरठ पधारे थे. उन्होंने प्रशिक्षु पत्रकारों से विशेष तौर पर आग्रह किया की देश के बहार भी भारतीय सभ्यता और संस्कृति के चिन्ह बिखरे पड़े हैं उनकी जानकारी स्वयं भी करें और देश के लोगों को भी बताएं.कितने लोग है जिन्होंने भिक्षु चमनलाल की पुस्तक “हिन्दू अमेरिका” पढ़ी है? १९४० में प्रथम बार प्रकाशित हुई ये पुस्तक अब इंटरनेट पर फ्री डाउनलोड की जा सकती है.वास्को दी गामा का भारत आने का वास्तविक उद्देश्य ‘असभ्य’ भारतीयों को ईसाईयत के झंडे के नीचे लाना था. ये समस्त जानकारी भी आज अंतरताने (इंटरनेट) पर उपलब्ध है. देश में दो बार भाजपा को सत्ता में आने का अवसर मिला लेकिन नेहरूवादी अभारतीय इतिहास से पीछा नहीं छुड़ाया जा सका.शायद भविष्य में स्थिति बेहतर हो सकेगी.सरदार पटेल के बारे में तो बहुत कम जानकारी देश की युवा पीढ़ी को है. अडवाणीजी का ये लेख संभवतः कुछ जानकारी देने में सफल हो सकेगा.

  5. भारत वासियों का भाग्य ही ख़राब था भी और है भी इससे ज्यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता। जो योग्य थे वो कुछ कर नहीं पाए और अयोग्य ?????–
    सादर,

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