सांप और सीढ़ी

0
217

careerपरसों शर्मा जी के घर गया था। वहां उनसे गपशप का सुख तो मिलता ही है, कभी-कभी शर्मा मैडम के हाथ की गरम चाय भी मिल जाती है; लेकिन परसों शर्मा मैडम घर में नहीं थीं, इसलिए चाय की इच्छा अधूरी रह गयी।

तभी शर्मा जी ने बताया कि उनके पड़ोस में एक नये किरायेदार वर्मा जी आये हैं। पति-पत्नी दोनों ही पढ़े-लिखे हैं। सैकड़ों पुस्तकें तो साथ लाये ही हैं, कई पत्र-पत्रिकाएं भी मंगाते हैं। क्यों न उनके पास चलें ? परिचय के साथ ही चाय और थोड़ा मानसिक व्यायाम भी हो जाएगा।

मुझे भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी ? उनके कमरे की तरफ बढ़े, तो बाहर से ही पता लग गया कि दोनों में किसी बात को लेकर भारी बहस हो रही है। शर्मा जी ने खट-खट की, तो दरवाजा खुल गया। हम लोग अंदर जाकर बैठ गये; लेकिन हमारे जाने से भी बहस बंद नहीं हुई।

देखो जी, साफ-साफ सुन लो। हमें चाहे जो करना पड़े; पर हम अपने बेटे को डॉक्टर बनाकर ही रहेंगे।

बिल्कुल नहीं। डॉक्टर की जान को आजकल सौ मुसीबत हैं। रात हो या दिन, ठीक से दो रोटी भी नहीं खा सकता। इलाज में कुछ टेढ़ा-तिरछा हो गया, तो लोग मारपीट पर उतर आते हैं। इसलिए हम उसे आई.ए.एस. अधिकारी बनाएंगे।

झंझट तो हर काम में रहते हैं जी; पर आजकल बीमारियां बहुत बढ़ रही हैं। ऐसे में अपने घर में ही कोई डॉक्टर हो, तो बड़ी सुविधा रहती है। इस काम में पैसा भी बहुत है।

पैसा ही सब कुछ नहीं होता मैडम। आई.ए.एस. अधिकारी तो अपने क्षेत्र में राजा होता है। उसके एक आदेश पर बड़े से बड़े डॉक्टर को हाजिर होना पड़ता है।

चलो बेटे के बारे में तुम्हारी बात मान लेते हैं; पर बेटी को तो डॉक्टर बनाना ही होगा।

मेरा विचार है कि उसे हम कम्प्यूटर इंजीनियर बनायें। आगे आने वाला समय कम्प्यूटरों का ही है। तुमने देखा नहीं, हर मुख्यमंत्री अपने राज्य में छात्रों को कम्प्यूटर बांट रहा है।

दोनों के लिए क्या आप अपनी मरजी चलाएंगे ? यह नहीं होगा।

तुम चाहे जो कहो, पर यही होगा।

यह बहस बहुत देर तक होती रही। जब मुझे लगा कि मामला बात से होता हुआ कहीं हाथ और लात पर न पहुंच जाए, तो मैंने हस्तक्षेप करना ठीक समझा।

भाई साहब, बिना मांगे सलाह देने वाला वैसे तो मूर्ख माना जाता है; पर यह खतरा उठाते हुए भी मैं निवेदन करना चाहता हूं कि क्यों न एक बार बच्चों से भी पूछ लें। कई बार हम अपनी इच्छाएं बच्चों पर थोप देते हैं, जबकि उनकी रुचि कुछ और ही होती है।

लेकिन अभी से हम उससे कैसे पूछ सकते हैं ? वर्मा जी ने थोड़ा संकोच में कहा।

क्यों ?

हमारा विवाह तो पिछले महीने ही हुआ है। हम तो चर्चा इस बात पर कर रहे थे कि जब कभी बच्चे होंगे, तो उन्हें क्या बनाएंगे ?

मैंने अपना सिर पीट लिया। शर्मा जी के चेहरा भी कुछ ऐसी ही कहानी कह रहा था। जरूरत से ज्यादा बुद्धिमानों के बीच में पड़ने का शायद यही परिणाम होता है। इसलिए हमने चाय की आशा छोड़कर वापस चलना ही उचित समझा।

घर पहुंचे, तो वहां बरामदे में मोहल्ले के कुछ बच्चे सांप-सीढ़ी खेल रहे थे। कभी उनमें से कोई अचानक सीढ़ी चढ़कर खुश होता; पर थोड़ी देर बाद किसी सांप के काटने से फिर नीचे आ जाता। सीढ़ी और सांप के चक्कर से निकलकर यदि कोई अंतिम पंक्ति में पहुंचता, तो उसका पाला एक लम्बे सांप से पड़ता था। उससे बचना बहुत ही  कठिन था। शायद ही कोई खिलाड़ी उसके काटे से बच सका हो। हम भी बच्चों में बच्चे बने बहुत देर वहां खड़े रहे; पर अंतिम पंक्ति वाले उस सांप को कोई पार नहीं कर सका।

पिछले कुछ समय से भारत में भी ऐसा ही तमाशा हो रहा है। वर्मा दम्पति की तरह कुछ लोगों ने तय कर लिया है कि हम इस या उसको प्रधानमंत्री बनाकर ही रहेंगे। इसके लिए वे सीढि़यां लिये खड़े हैं; पर वे अंतिम पंक्ति वाले उस सांप को भूल रहे हैं, जिसकी अपनी नियति में तो जीत वाले बिन्दु तक पहुंचना नहीं है; पर किनारे तक आ जाने वाले को काटकर नीचे तो भेज ही सकता है।

हिन्दी में सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा’, ‘झोली में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने’, ‘अपने पैरों कुल्हाड़ी मारना’.. आदि कई कहावतें प्रचलित हैं। इनमें से कौन सी कहावत कहां फिट बैठेगी, इस बारे में अपनी राय आप मुझे जरूर बताएं। 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,213 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress