व्यंग्य बाण : कुर्सी की दौड़ में

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वैसे तो सभी बच्चे शरारती होते हैं, और जो शरारती न हो, वह बच्चा ही क्या ? पर शर्मा जी के मोहल्ले बच्चे, तौबा-तौबा। वे कब, क्या कर डालेंगे, भगवान को भी नहीं मालूम।

शर्मा जी के घर के बरामदे में एक अति प्राचीन ऐतिहासिक कुर्सी रखी है। हम लोग हंसी में उसे महाभारतकालीन कहते हैं। वे उसी पर बैठकर अखबार पढ़ते और चाय पीते हुए मित्रों से गप लगाते हैं। कुर्सी से उन्हें इतना प्रेम है कि सुबह-शाम की पूजा की तरह वे दिन में दो बार उसकी धूल झाड़ते हैं। कभी कोई और उस पर बैठ जाए, तो उनका गुस्सा देखते ही बनता है।

पर पिछले दिनों बड़ा गजब हो गया। वे कुछ दिन के लिए एक विवाह में शामिल होने अपने गांव गये थे। उनके पीछे मोहल्ले के बच्चों ने उस कुर्सी का उपयोग क्रिकेट खेलते हुए विकेट की तरह कर लिया। इस चक्कर में पचासों बार उस पर गेंद आकर लगी। एक दिन दोनों टीमों में झगड़ा हो गया और बल्ले चलने लगे, तो कुछ बल्ले उस बेचारी के हिस्से में भी आये और उसकी एक टांग शहीद हो गयी। पहले तो बच्चे घबराये; पर फिर उन्होंने उसे चुपचाप वहीं रख दिया, जहां से उठाया था।

शर्मा जी गांव से लौटकर जब कुर्सी पर बैठने लगे, तो गिरते-गिरते बचे। कुर्सी की दुर्दशा देखकर उनका पारा चढ़ गया। वे समझ तो गये कि यह काम किसका है; पर मोहल्ले के बच्चों से झगड़ा करने का अर्थ जल में रहकर मगर से बैर करने जैसा था। इसलिए वे खून का घूंट पीकर रह गये; पर उन्होंने उसी क्षण तय कर लिया कि चाहे जो हो; पर अब वे इस टूटी टांग वाली कुर्सी पर नहीं बैठेंगे। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी निश्चय किया कि अब बैठेंगे, तो सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ही बैठेंगे, जिससे किसी की उसे छूने की हिम्मत ही न हो। बस यह निश्चय होते ही उन्होंने वह टूटी कुर्सी उठाई और ‘होली चौक’ पर लकडि़यों के ढेर में रख दी।

शर्मा जी को हर काम को बड़े व्यवस्थित ढंग से करने की आदत है। इसलिए अब वे प्रधानमंत्री बनने की योजना बनाने लगे। कल सुबह पार्क में मिले, तो इसी विषय पर चर्चा छिड़ गयी।

– वर्मा, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए मैं क्या करूं ?

– आप कुर्सी पर एक चिट लगा दें ‘प्रधानमंत्री की कुर्सी’, और फिर उस पर बैठ जाएं।

– अभी होली में कई दिन बाकी हैं। इसलिए मजाक छोड़कर पूरी गंभीरता से इस बारे में बताओ।

– फिर तो इसके लिए वर्तमान और भावी प्रधानमंत्री पद के दावेदारों से मिलकर उनके अनुभव जानना ठीक रहेगा।

यह बात शर्मा जी की समझ में आ गयी। अगले दिन वे मनमोहन जी के घर जा पहुंचे। वहां देखा, तो वे अकेले बैठे ताश के पत्ते उलट-पलट रहे थे। शर्मा जी ने बिना किसी औपचारिकता के अपना प्रश्न उनके सामने रख दिया – सर, मैं भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहता हूं। मुझे इसके लिए क्या करना चाहिए।

– मेरे विचार से इसके लिए ‘कुछ करने’ की बजाय ‘कुछ नहीं करना’ ज्यादा जरूरी है। पिछले दस साल में मैंने कुछ नहीं किया। जो भी करना है, वह मैडम इटली या फिर राहुल बाबा करते हैं।

– पूछना तो नहीं चाहिए; पर आप अकेले ताश खेल रहे हैं…?

– तो क्या हुआ ? वैसे तो मेरे पास अब भी कुछ काम नहीं है; पर दो महीने बाद तो मैं बिल्कुल खाली हो जाऊंगा। इसलिए अभी से अकेले खेलने का अभ्यास कर रहा हूं।

दस साल तक मौन रहने वाले सरदार जी की यह स्पष्टवादिता देख शर्मा जी उठे और यही प्रश्न राहुल बाबा से पूछ लिया। राहुल बाबा तो उल्टा उनके ही गले पड़ गये – श्रीमान जी, इसका उत्तर ढूंढने के लिए ही तो मैं देश भर में धक्के खा रहा हूं।

– लेकिन फिर भी, कुछ तो बताइये.. ?

– तो सुनिये। कांग्रेस में प्रधानमंत्री बनने के लिए नाम के साथ चाहे असली हो या नकली; पर गांधी लगा होना जरूरी है।

यहां से भी निराश होकर उन्होंने केजरीवाल का दरवाजा खटखटाया। वे खांसते हुए बोले – देखिये, हमारा मुख्य सूत्र है गाली देकर भागना। बड़े लोगों को गाली देने से खूब प्रचार होता है। इसी तरह मैं मुख्यमंत्री बना और ऐसे ही प्रधानमंत्री भी बन जाऊंगा।

– मुख्यमंत्री पद आपने डेढ़ महीने में छोड़ दिया, तो प्रधानमंत्री पद कितने दिन में छोड़ेंगे ?

– डेढ़ दिन से लेकर डेढ़ सप्ताह तक कुछ भी हो सकता है। हम सब छोड़ सकते हैं; पर विदेशी चंदा और आंदोलन नहीं छोड़ेंगे।

शर्मा जी मुलायम सिंह के पास गये, तो वे कुछ लोगों की दाढ़ी सहला रहे थे। लाल होकर वे बोले – देख नहीं रहे हम क्या कर रहे हैं ? प्रधानमंत्री बनने के लिए यही जरूरी है; पर इसमें हमसे आगे कोई नहीं निकल सकता। समझे…?

जब तक शर्मा जी इसका अर्थ समझते, तब तक मुलायम सिंह के अंगरक्षकों ने उन्हें धकिया दिया। शर्मा जी ने अगले कुछ दिन में ममता, मायावती और जयललिता से भी संपर्क किया। ममता जी अन्ना हजारे के साथ व्यस्त थीं, तो जयललिता वामपंथियों के संग। मायावती ने ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ गाते हुए कहा कि जो मुझे प्रधानमंत्री बनाएगा, मैं उसी के साथ हूं।

शर्मा जी नीतीश कुमार से भी मिले; पर मिलने के लिए ‘हाथ’ बढ़ाते ही वे भड़क गये और दरवाजा बंद कर लिया। लालू जी अपनी भैसों के दूध और चारे के हिसाब में लगे थे। पूछने पर बोले कि मेरी रुचि प्रधानमंत्री बनने में नहीं, बनवाने में है।

कई दिन धक्के खाकर भी शर्मा जी प्रधानमंत्री की कुर्सी पाने का कोई सर्वसम्मत सूत्र नहीं तलाश सके। कल शाम उन्होंने सब मित्रों के बीच अपने अनुभव बांटे। यह सुनते ही गुप्ता जी हंसने लगे – शर्मा जी, आपने इतना परिश्रम किया; पर जो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाला है, उस नरेन्द्र मोदी से तो आप मिले ही नहीं..?

मोदी का नाम सुनते ही शर्मा जी का चेहरा राहुल बाबा की तरह पीला और नीतीश कुमार की तरह नीला पड़ गया। वे समझ गये कि इस जन्म में तो प्रधानमंत्री की कुर्सी के सपने देखना व्यर्थ है। अतः रात के अंधेरे में वे चुपचाप ‘होली चौक’ गये और टूटी टांग वाली अपनी पुरानी कुर्सी उठाकर फिर बरामदे में रख ली।

3 COMMENTS

  1. “कुर्सी की दौड़” तथ्यों पर आधारित, तीखे तेवर वाला,धारदार एवं सशक्त आलेख है। इसके व्यंग्य-बाण अद्यतन भारत में होने वाले चुनावी दंगल के लिये उपयुक्त और सराहनीय हैं । आलेख आद्योपान्त रोचकता से भरपूर है ।
    पढ़कर मज़ा आ गया ।लेखक को साधुवाद ।।

  2. बहुतै बढ़़िया (गहरी चोट की है ) .काहे से कि इटलीवारी , इंडिया की बहुरिया अहै ,.तुम जान्यो ,बूढ़ पुरनियाँ कहत रहीं – ई कलजुग माँ ,बहुरियाँ,घर माँ रहि जायँ तौन सासु के सिर पे चढि के नाच दिखउती हैं . .

  3. सत्य तथ्यों पर आधृत चुटीले , धारदार एवं सशक्त वाद-संवाद अत्यन्त प्रभावी और रोचक हैं । पढ़ते समय हँसी रोके नहीं रुकी ।
    लेखक के व्यंग्य-बाण सराहनीय हैं । उनको साधुवाद !!
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