सवा मॉस बृज की छटा… चारों ओर मचे हुडदंग

बसंत की बेला आती है, आम के बौरों के शाखों पर मुस्काने के साथ। पेड़ सूखे पत्ते उतार देता है। नए और स्निग्ध पत्तों को जगह देने के लिए। सर्द हवाएं सुगंधित और मखमली झोंको में बदल जाती हैं। लेकिन दीन-दुनिया से अलग ब्रज की अलग परिपाटी है। बसंत आते ही ब्रज की आबोहवा में अबीर-गुलाल, गलियों में फाग रमता है। ब्रज में बसंत का मतलब होरी (होली) और होरी का मतलब उल्लास, उमंग और आनंद। शुरुआत बसंत पंचमी से होती है। चहुंदिसि होरी आने की तैयारी का उत्साह दिखता है। हर चौराहे पर होलिका जमा दी जाती है। श्यामा-श्याम के श्रंगार में अबीर की रंगत भी रहती है। होली से सवा महीने पहले से ही शुरू हो जाने वाला यह त्योहार विश्व का अनूठा आयोजन है।
वैसे, ब्रज के हर एक मंदिर में होली का उत्सव बसंत पंचमी से शुुरू होता है और होली तक मंदिरों में बसंती छटा बिखर जाती है। लेकिन ब्रज के कुछ क्षेत्रों में होली के पर्व पर विशेष आयोजन होते हैं।

फाग खेलन बरसाने आए हैं …
मथुरा से 47 किमी. की दूरी पर बसा है बरसाना। राधारानी का मंदिर यहीं हैं। मंदिर परिसर में लठामार होली से एक दिन पहले लडडूूओं की होली होती हैं। इस मौके पर बरसाना गांव में नंदगांव के कान्हा स्वरूप हुरियारे होरी खेलने आते हैं। इस दिन लोग एक-दूसरे को लडडू बांटते हैं और लुटाते भी हैं। मान्यता है कि कृष्ण के आगमन के साथ सखाओं ने खूब लडडू बांटे थे। और फिर बरसाने की गोपियों को गुलाल मलकर खूब छकाया था।

बरसाना की प्रसिद्ध लठामार होली…
लठामार होली में एक दिन पहले बरसाना आए कृष्ण स्वरूप हुरियारों को बरसाना की लंहगा-ओढऩी में सजी हुरियारिनें जी भरकर लाठियां भांजती हैं। वहीं, नंदगांव के हुरियारे फाग गा-गाकर गोपी स्वरूपा हुरियारिनों को खूब छकाते भी है। और उकसाते भी। समूची ओबाहवा गुलाल और रंग में नहा उठती है।

नंदगांव के कुंवर कन्हैया बरसाने की छोरी…
लठामार होती नंदगांव में भी है। लेकिन बरसाने से एक दिन बाद। मथुरा से 54 किमी. दूर स्थित कान्हा के गांव में। बरसाने के हुरियारे नंदगांव में अपना एक झंडा लेकर जाते हैं। जिसे बरसाने की हुरियारिनें रोक देती हैं, गोप जबरन घुसते हैं और बस यहीं से इन पर प्रेम में पगी लाठियां बरसने लगती हैं। प्रेमपूर्वक बदला लेने की भावना लिए हुरियारों और हुरियारिनों के बीच की इस मनोहारी नौंक-झोंक की अनुपम तस्वीरें नंदगांव में ही देखने को मिलती हैं।

होरी खेलन आयो श्याम आज याहै रंग में बोरौ री….
मथुरा में वैसे तो बसंत पंचमी से ही होली की धूम रहती है। लेकिन कन्हैया के जन्मस्थान में मनाई जाने वाली होली की अपनी अलग ही पहचान है। समाज गायन के बाद होने वाली श्यामा श्याम की होली में भक्त भी भावविभोर हो नाच उठते हैं। और पूरा वातावरण अबीर और गुलाल के उड़ते बादलों से ढक जाता है। इसके अलावा मथुरा के द्वारिकाधीश मंदिर में भी होली की उमंग अपने चरम पर रहती है।

आज नाय छोडुंगी तोय कान्हा…
सब जग होरी..। होरा की तर्ज पर ब्रज के भिन्न-भिन्न स्थानों पर लठामार होली के बाद रंग खेलनी होली यानि की धुलेड़ी वाले दिन मथुरा से लगभग 22 किमी. दूर बलदेव के दाऊजी मंदिर में हुरंगा का आयोजन किया जाता है। इस दिन कृष्ण के बड़े भाई बलदेव जी का डोला निकाला जाता है। हुरंगा में गांव की महिलाएं, गांव के ही पुरूषों पर पोतना फटकारती हैं। और हुरियारे अपना बचाव करते हुए गीत गाते हैं।

वृन्दावन आज मची होरी…
मथुरा से करीब 12 किमी की दूर वृंदावन की होली सबसे आकर्षक, मनोहारी, उल्लासमयी और आनंदप्रद होती है। यहां आयोजनों से परे श्यामा और श्याम की प्रेमपूर्ण होली मनाई जाती है। बसंत पंचमी से ही शुरू हो जाने वाली इस होली में भगवान भक्तों के साथ होली खेलते हैं। चौड़े-चौड़े कलशों में भरा टेसू के फूलों का कुनकुना पानी जब पिचकारियों में भरकर भक्तों पर डाला जाता है तो होली का एक अप्रतिम उत्सव देखने को मिलता है। चारों ओर वातावरण में उड़ता अबीर-गुलाल और हवा में बहती फूलों की मादक खुशबू में मन डूब जाता है। वृंदावन की यह मनोहारी होली हर मंदिर में मनाई जाती है।

 

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