साहित्‍य

सेक्युलर भारत तस्लीमा को वीज़ा दे

-के. विक्रम राव

फिर यदि भारत के प्रबुद्ध मुसलमानों ने लेखिका तस्लीमा नसरीन के बीजा की मियाद (18 अगस्त) बढ़ाने की मांग के पक्ष में पुरानी खामोशी बनाई रखी तो कई हिन्दुओं का सन्देह पुख्ता हो जाएगा कि सेक्युलरवाद को इन मुसलमानों ने मजहवी कट्टरता का कवच बना लिया है। उनकी पंथनिरपेक्षता ढकोसला है। सोनिया-नीत संप्रग सरकार की असलियत भी उजागर हो जाएगी कि वह सेक्युलरवाद को राष्ट्रीय आस्था मानती है अथवा वोट-पकडू क़ूटयुक्ति। यह गौरतलब इसलिए भी है क्योंकि भाजपाई प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने इस मुद्दे पर उनके चुनावक्षेत्रीय भाषा मेें (बकौल लखनवी जबां में) दुम दबा ली थी। राजग सरकार ने (6 अक्टूबर 1998 को) तस्लीमा नसरीन को बीजा देने से इन्कार कर दिया था। इनकी पार्टी के छत्तीसगढ़ी मुख्यमंत्री डा. रमण सिंह स्वीकृति देने के पश्चात भी रायपुर के एक सार्वजनकि समारोह (20 फरवरी 2005) से नदारद रहे क्योंकि तसलीमा नसरीन संबोधित करने वाली थी। मगर भाजपा से शिकायत नहीं हो सकती है क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दु उसे वोट नहीं देते हैं, क्याेंंकि उनकी आस्था पंथनिरपेक्षता पर खरी और हढ़ है। सवाल घेरता है भारतीय मुसलमानों को कि वे मजहबी कट्टरवाद से दो-दो हाथ करने में जुटेंगे या फिर दुम दबा लेंगे। आज तस्लीमा नस्रीन को वीजा देने का मसला भारतीय पारम्परिक समभाव के लिए चुनौती है।

भारत की जनवाणी को अपने राष्ट्रीय सर्वेक्षण (1 अगस्त 2009) में एक हिन्दी दैनिक ने प्रतिलक्षित किया था। तब जगजाहिर हुआ था कि पछपन प्रतिशत लोग लेखिका तस्लीमा नसरीन की भारत वापसी के पक्षधर रहे। इस लोकाभिव्यक्ति को मनमोहन सिंह सरकार नहीं माना। हालांकि उनके विदेश मंत्री ने सेक्युलर नीति को संदिग्ध और दुहरी बना दी थी जब चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन से भारत लौटने का अनुरोध तो प्रणव मुखर्जी ने किया मगर तस्लीमा नसरीन की बाबत उनका मौन शोरभरा लगा।

ईमानदार सेक्युलर नीति का तकाजा है कि नागरिक, न कि वोटर, ही समधर्म समभाव का आधार माना जाय। पिछली बार जिन हालातों में तस्लीमा नसरीन को भारत छोड़ कर जाना पड़ा वह दुखद था। एक क्लीव प्रशासन द्वारा भीरूता की स्वीकारोक्ति थी। तस्लीमा की अवस्था देखकर छोटे पर्दे पर मोटरगाड़ी कम्पनी वाला एक विज्ञापन याद आता है। एक महिला पूछती है, ”कहां चले गये ये सारे मर्द?” (वेयर हेव आल मेन गॉन?)। उन नरपुंगवों खोजना होगा आज। जवाब चाहिए कि एक अकेली के पीछे फिरकापरस्त पड़ गये और कोई उसे बचा नहीं पाया? इस्लामी कट्टरपंथियों के समक्ष सभी सेक्युलर भारतीयों ने घुटने टेक दिए हैं। तस्लीमा नसरीन को पहले भारत सरकार ने विवश कर दिया कि यदि यहां पनाह पाना है तो अपनी किताब द्विखण्डिता के कुछ अंश काट दें।मायने यही हुए कि संप्रग सरकार को भारत के अल्पसंख्यकों को खुश करने हेतु बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों की अनदेखी करने में हिचक नहीं हैं।

अत: मुद्दा अब उन भारतीय मुस्लिम मधयमवर्गीय, शिक्षित और युवा तबके के समक्ष है जो भारत को हिन्दू गणराज्य नहीं बनना देना चाहेगा। हर सेक्युलर भारतीय मुसलमान के लिए यह चुनौती है, बल्कि कसौटी है, कि वह साबित कर दिखाये कि भारत का शासन गणतंत्रीय संविधाान पर आधारित है, निज़ामे मुस्तफ़ा पर नहीं। इन सेक्युलर भारतीय मुसलमानों को मोर्चा लेना होगा उन कठमुल्लों से जिनको वोट बैंक की सियासत में महारत है। वे हर सियासी पार्टी से सौदा पटाते हैं। गुलाम हिन्दुस्तान की जिन्नावादी मुस्लिम लीगवाली राजनीति का खेल दुबारा नहीं चलने दिया जाएगा। तस्लीमा नसरीन से जन्मे विवाद के परिवेश में यह दुबारा स्पष्ट होना अब अपरिहार्य है कि नागरिकता और राष्ट्र का आधार मज़हब कभी भी नहीं हो सकता। यही गांधीवादी सिध्दांत है। मोहम्मद अली जिन्ना ने इसे नहीं माना और मुसलमानों को पृथक कौम करार दिया था।

भारत ही नहीं एशिया के हर सेक्युलर नागरिक की हार्दिक छटपटाहट होगी कि पीड़िता तस्लीमा के मसले पर करूणा से गौर किया जाय। इस परिवेश में इतना तो स्पष्ट है कि देवबन्द और बरेलवी मरकजों से तो पंथनिरपेक्षता की कुछ भी पहल अपेक्षित करना मृगमरीचिका होगी। भले ही वे सब लगातार फतवा देते रहे कि बुर्का अनिवार्य है, पितातुल्य नेल्सन मण्डेला द्वारा शबाना के गाल पर स्नेहिल चुम्बन मजहबविरोधी है, सानिया मिर्जा का स्कर्ट घुटनों को ढका रखे, बच्चन की मधुशाला शराब की ताइद करती है, इत्यादि। मगर देश अपेक्षा करेगा मुस्लिम दानिश्वरों से, अदीबों से, शायरों से, अदाकारों से, सहाफियों से कि वे नार्थ ब्लाक वाले गृह मंत्रालय कार्यालय तक मौन जुलूस निकालें और पलनिअप्पन चिदम्बरम से आग्रह करें कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर तस्लीमा का वीजा बेमियाद बढ़ाया जाय। वे सब कह सकते हैं कि तस्लीमा के विचारों से उनका घोतरम विरोध है मगर किसी भी असहमति की आवाज को घोंटना वे गुनाह मानते हैं। अगर इस वक्त ये मुस्लिम बौध्दिक नहीं उठे तो फिर उन्हें क्या हक होगा जब कट्टर हिन्दू इन अल्पसंख्यकों की अभिव्यक्ति पर पाबन्दी की मांग करेंगे ? उन्हें कुचलना चाहेंगे। क्या तब सरकार वैसा ही रूख अपनाये जैसा वह आज तस्लीमा को वीजा पर अपना रही है ? इस यथार्थ को सभी को स्वीकारना होगा कि स्वतंत्रता अविभाज्य होती है, मजहब के आधार पर दी अथवा ली नहीं जा सकती है।

तस्लीमा नसरीन का गुनाह यही है कि वह अनीश्वरवादी है। वह समझती हैं कि इस्लाम में पुरूषों की तुलना में महिलाओं को गौण स्थान मिला हैं। वह कोख पर महिला का नियंत्रण चाहती है। यूं भी नारी कोई जननेवाली मशीन मात्र नहीं है कि वह केवल ”नूर” ही पैदा करती जाए! तस्लीमा नसरीन को सेक्युलर राष्ट्र में जो आस्था की आज़ादी मिली है, वह किसी दारूल इस्लाम में नहीं मिल सकती। इसीलिए वह भारत में रहना चाहती है, जहां सनातनी धार्मिक प्रतिमानों की खुली अवमानना तथा ईशनिन्दा के बावजूद हिन्दू प्रतिशोधात्मक हिंसा पर कम ही आमादा होता है। छिटपुट वारदातें बस अपवाद हैं। यूं भी हिन्दू ऐतिहासिक रूप से कायर रहा है। जजिया देता रहा, धर्मान्तरण्ा स्वीकारता रहा। और जब अंग्रेज आए तो उनका प्यादा और गुलाम बनना गवारा कर लिया। हजारों जुल्म हुए पर हजार सालों में भी कोई संगठित बगावत नहीं हुई ताकि सत्तासीन उखाड़ दिये जाय। इस बुजदिली को सहिष्णुता का पर्याय माना जाता है। इसी भावना की भद्दी परिणति है कि अकेली महिला पर कठमुल्ले हमला करें और आम भारतीय दुबका बैठा रहे। श्रेष्ठतम बागी महात्मा गांधी इसीलिए प्रभावित करते जाते हैं।

ऐसे भीरु भारतीयों के सिरमौर हैं लालचन्द किशिनचन्द आणवाणी। जब उन्होंने एक युवा शरणार्थी के रूप में सिंध की सरहद पारकर गांधाीधााम (गुजरात) को अपना दूसरा घर माना था और संसद को अगला सदन बनाया, तो उनसे अपेक्षा बढ़ी थी कि भारत आनेवाले हर शरणार्थी के प्रति आडवाणी जी का दिल धड़केगा। मगर जब वे राजग सरकार के गृहमंत्री थे तो तस्लीमा नसरीन की भारतीय नागरिकता वाली दर्खास्त उन्होंने खारिज़ कर दी थी। शायद इसलिए कि प्रार्थिनी का नाम तरूणिमा नहीं, तस्लीमा था? उनके उदार मुखौटेवाले प्रधाानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने वही डरभरा रुख दिखाया था। जब तस्लीमा ने वाराणसी में दीपा मेहता को ”वाटर” फिल्म बनाने हेतु अनुमति की मांग का समर्थन किया था, तो भाजपा ने तस्लीमा का वीसा खारिज करने की ज़िद की थी। ऐसी वीरगाथा है इन हिन्दु पक्षघरों की।

कांग्रेसी कुछ कम ख़तावार नहीं है। मुसलमानों को कांग्रेस से दूर करने वाले प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहा राव ने सबसे पहले (1995) तस्लीमा नसरीन को वीसा देने से इंकार कर दिया था। कारण था कि उनके गृहमंत्री शंकरराव चह्वाण को सरकारी नौकर रहे मुस्लिम कट्टरवादी सांसद शाहाबुद्दीन ने धमकी थी कि मुस्लिम भारतीय इसे गवारा नहीं करेंगे। फलत: गृह मंत्रालय एक अबला की मदद करने से कतरा गया। यही हरकत गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने (19 फरवरी 2005) की, जब मनमोहन सिंह सरकार ने तस्लीमा का नागरिकता प्रदान करने वाला अनुरोधा ठुकरा दिया था। एक इतालवी महिला को भारतीय नागरिकता सुगमता से मिल गई मगर तस्लीमा की भारतीय नागरिक बनने की आरजूओं (फरवरी 2005) को सोनिया गांधी ने भी सुना ही नहीं।

सेक्युलरिज्म के अग्रदूत, स्वयंभू विश्ववादी माक्र्सवादी कम्युनिस्टों का तस्लीमा के प्रति जो रूख रहा वह सभी प्रगतिशील, नई सुबह की बाट जोहने वाले हर भारतीय के लिये दिली सदमा होगा। इस्लामी बांग्लादेशी सरकार से प्रतिस्पर्धा करते हुए पश्चिम बंगाल के साहित्यकार मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य ने तस्लीमा की किताब ”द्विखण्डिता” पर पाबन्दी ठोक दी। ढाका में ऐसा प्रतिबंध पहले ही लग चुका था। पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादियों और पड़ोसी इस्लामवादियों की सोच में अद्भुत साम्य है! गनीमत रही कि कोलकता हाईकोर्ट ने माकपा सरकार के आदेश को खारिज़ कर दिया, तस्लीमा की किताब को मान्यता दे दी। उसी दौर में नन्दीग्राम में सत्ताविरोधी जनाक्रोश से ध्यान बटाने के लिए माकपा सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों को तस्लीमा के विरूध्द उकसाया था, और कलकत्ताा में आठ घंटे तक घड़ी देखकर दंगा करा डाला। चाल बस नूरी ही थी।

उधर भारत के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग जो मुसलमानों के हितों की रक्षा करता है, ने तस्लीमा का वीसा रद्द करने का आदेश दिया। मुसलमानों को बरगलाने वाले इस घोर सांप्रदायिक आयोग को भंग कर देना ही राष्ट्रहित में होगा।

मीडिया कर्मी होने के नाते मुझे भला लगा कि हैदराबाद के उर्दू दैनिक ”सियासत” और ”मुंसिफ” ने तस्लीमा का विरोध करने वाले मजलिसे इत्तिाहादे मुसलमीन की आलोचना की। यह मज़लिस भारत-विरोधी निज़ामराज के सरगना कासिम रिजवी के रजाकार गुण्डों का वारिस हैं। मुम्बई में उर्दू लेखक संघ और लखनऊ की सांझी दुनिया ने तस्लीमा के लिये न्याय की मांग की। कई प्रगतिशील साहित्यकारों ने तस्लीमा का पक्ष लिया है। लिस्ट लम्बी है जिसमें सबसे ऊपर वामपंथी लेखिका महाश्वेता देवी हैं।

अब आम भारतीय को मानना होगा कि तस्लीमा नसरीन का विरोध मात्र मजहबी नहीं हैं, यह जिन्नावादी मुस्लिम लीग की पृथकतावादी मुहिम का नया संस्करण है। तस्लीमा आज सेक्युलरिज्म का पर्याय बन गई है। भारतीय मुसलमानों को अहसास करना होगा कि गणतंत्रीय संविधाान ही सेक्युलर भारत में सबसे ऊपर। निज़ामें मुस्तफा लिबिया या सूडान के लिए ही मुफ़ीद होगी।