
अजीत कुमार सिंह
भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन का ऐसा नाम जिससे पूरा देश परिचित है। जी हाँ! आज हमारे देश के ऐसी महान विभूति का शहादत दिवस है जिसका नाम लेते ही गर्व से समस्त भारतवासी का सीना चौड़ा हो जाता है। जिन्होंने अपनी अल्प अवस्था में देशभक्ति,आत्मबलिदान,साहस की जो मिसाल प्रस्तुत किया।एक साधारण मनुष्य अपने जीवन में कल्पना भी नहीं कर सकता। आज के युवा देश की एकता,अखंडता को तार-तार करने में तुले हैं। जिस उम्र में लोग अपनी दुनिया में खोये रहते हैं। आखिर क्या बात थी कि इतनी कम उम्र में भी शहीद-ए-आजम ने भारत मातृभूमि के लिए अपने जीवन का परवाह किए बगैर ब्रिटीश हुकूमत की ईंट से ईंट बजा दी। अंग्रेजों की नींद हराम कर दी । भारत राष्ट्र के निर्माण में भगत सिंह के महान कार्यो का अपनेआप में अद्वितीय है।इसके लिए भारत युगों-युगों तक ऋणी रहेगा। आज जहां देश में क्षेत्रियता का जहर देश में छाया हुआ है। इस समय में शहीद-ए-आजम का जीवन अनुकरणीय साबित हो सकता है। पंजाब में जन्म लेकर भी उनका दृष्टिकोण केवल पंजाब तक ही सीमित नहीं था। समस्त भारत भूमि उनकी मातृभूमि थी।वे समस्त भारतीयों के अपने थे। जाति,धर्म के दलदल से उन्होंने अपने आप को हमेशा दूर रखा। भगत सिंह के लिए पूरा भारत ही उनका परिवार था। उन्होंने भारत के हितों को देखकर ही अपने जीवन को बलिदान किया था।
जन्म एवं बचपन
भारत भूमि के लिए 29 सितंबर 1907 का दिन स्वर्णिम दिन था जिस दिन महान बलिदानी भगत सिंह का जन्म हुआ था। भगत सिंह का जन्म पंजाब के लायलपुर में हुआ था। भगत सिंह अपने माता-पिता के दूसरी संतान थे। सरदार किशन सिंह के सबसे बड़े पुत्र का नाम जगत सिंह था।जिसकी मृत्यु केवल 11 वर्ष की छोटी अवस्था में ही हो गई थी। भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता तथा दोनो चाचा देश की आजादी के लिए जेलों में बंद थे। घर में उनकी मां श्रीमति विद्यावती,दादा अर्जुन सिंह तथा दादी जयकौर थी। किंतु बालक भगत सिंह का जन्म ही शुभ था अथवा दिन ही अच्छे आ गये थे कि उनके जन्म के तीसरे दिन ही उसके पिता सरदार किशन सिंह तथा चाचा सरदार स्वर्ण सिंह जमानत पर छूट कर आ गये तथा लगभग इसी समय दूसरे चाचा सरदार अजीत सिंह भी रिहा कर दिये गये। इस प्रकार उनके जन्म लेते ही घर में एकाएक खुशियों की बहार आ गई।अतः जन्म को शुभ समझा गया।
इय भाग्यशाली बालक का नाम उनकी दादी ने भागवाला अर्थात् अच्छे भाग वाला रखा। इसी नाम के आधार पर उन्हें भगत सिंह कहा जाने लगा।
देशप्रेम की शिक्षा भगत सिंह को अपने परिवार से विरासत में मिली थी। उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह को अंग्रेजों से घृणा थी। उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजित सिंह गदर पार्टी के सदस्य थे। गदर पार्टी की स्थापना ब्रिटिश शासन को भारत से निकालने के लिए अमेरिका में हुई थी। परिवार का माहौल युवा भगत सिंह के मस्तिष्क पर बड़ा असर हुआ और बचपन से उनकी नसों में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भर गई। इस प्रकार के परिवार में जन्म लेने के कारण भगत सिंह को देश भक्ति और स्वतंत्रता का पाठ अनायास ही पढ़ने को मिला था। किसी ने ठीक ही कहा है कि पूत के पांव पालने में ही दिखाई पड़ते हैं।
1916 में लाहौर के डीएवी विद्यालय में पढ़ते समय युवा भगत सिंह जाने-पहचाने क्रातिकारी नेता जैसे लाला लाजपत राय और रासबिहारी बोस के संपर्क में आये। उस समय पंजाब राजनैतिक रूप से काफी उत्तेजित था। जब जालियांवाला बाग हत्या कांड हुआ तब भगत सिंह सिर्फ 12 वर्ष के थे। इस हत्याकांड ने उन्हें बहुत व्याकुल कर दिया। हत्याकांड के अगले ही दिन भगत सिंह जालियांवाला बाग गए और उस जगह से मिट्टी इकट्ठा कर इसे पूरी जिंदगी एक निशानी के रूप में रखा। इस हत्याकांड ने उनके अंग्रेजों को भारत से निकाल फेंकने के संकल्प को और सुदृढ़ कर दिया।
क्रांतिकारी जीवन
1921 में जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ असहयोग आंदोलन का आह्वान किया तब भगत सिंह ने अपनी पढ़ाई छोड़ आंदोलन में सक्रिय हो गए। वर्ष 1922 में जब महात्मा गांधी ने गोरखपुर के चोरी-चोरा में हुई हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन बंद कर दिया तब भगत सिंह बहुत निराश हुए। अहिंसा में उनका विश्वास कमजोर हो गया और वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सशस्त्र क्रांति ही स्वतंत्रता दिलाने का एक मात्र उपयोगी रास्ता है। अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए भगत सिंह ने लाहौर में लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित राष्ट्रीय विद्यालय में प्रवेश लिया। यह विद्यालय क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था और यहां पर वह भगवती चरण वर्मा, सुखदेव और दूसरे क्रांतिकारीयों के संपर्क में आये।
विवाह से बचने के लिए भगत सिंह भाग कर कानपुर चले गए। यहां वह गणेश शंकर विद्यार्थी नामक क्रांतिकारी के संपर्क मे आये। जब उन्हें अपने दादी मां के बीमारी की खबर मिली तो भगत सिंह घर लौट आये। उन्होंने अपने गांव से ही अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखा। वह लाहौर गए और 1926 में ”नौजवान भारत सभा”नाम से एक क्रांतिकारी संगठन बनाया। उन्होंने पंजाब में क्रांति का संदेश फैलाना शुरू किया। वर्ष 1928 में उन्होंने दिल्ली में क्रांतिकारियों की एक बैठक में हिस्सा लिया और चंद्रशेखर आजाद के संपर्क में आये। दोनों ने मिलकर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशनका नाम बदलकर ”हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन”कर दिया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य था सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारत में गणतंत्र की स्थापना करना।
फरवरी 1928 में इंग्लैंड से साइमन कमीशन नामक एक आयोग भारत दौरे पर आया। उसके भारत दौर का मुख्य उद्देश्य था-भारत के लोगों की स्वायत्ता और राजतंत्र में भागेदारी। पर इस आयोग में कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था जिसके कारण साइमन कमीशन के विरोध का फैसला किया। लाहौर में साइमन कमीशन के खिलाफ नारेबाजी करते समय लाला लाजपत राय पर क्रूरता पूर्वक लाठी चार्ज किया गया जिससे वह बुरी तरह से घायल हो गए और बाद में उन्होंने दम तोड़ दिया। भगत सिंह ने लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए ब्रिटिश अधिकारी स्कॉटजो उनकी मौत का जिम्मेदार था,को मारने का संकल्प लिया। उन्होंने गलती से सहायक अधीक्षक साण्डर्स को स्कॉट समझकर मार गिराया। मौत की सजा से बचने के लिए भगत सिंह को लाहौर छौड़ना पड़ा।
ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को अधिकार और आजादी देने और असंतोष के मूल कारण को खोजने के बजाय अधिक दमनकारी नीतियों का प्रयोग किया। ”डिफेन्स ऑफ इंडिया एक्ट”के द्वारा अंग्रेजी सरकार ने पुलिस को दमनकारी अधिकार दे दिया। इसके तहत पुलिस संदिग्ध गतिविधियों से संबधित जुलूस को रोक और लोगों को गिरफ्तार कर सकती थी। केंद्रीय विधान सभा में लाया गया यह अधिनियम एक मत से हार गया। फिर भी अंग्रेज सरकार ने इसे जनता के हित में कहकर एक अध्यादेश के रूप में पारित किये जाने का फैसला किया।
भगत सिंह ने स्वेच्छा से केंद्रीय विधान सभाजहां अध्यादेश पारित करने के लिए बैठक का आयोजन किया जा रहा था,में बम फेंकने की योजना बनाई। यह एक सावधानी पूर्वक रची गई साजिश थी जिसका उद्देश्य किसी को मारना या चोट पहूंचाना नहीं था बल्कि सरकार का ध्यान आकर्षित करना था और उनको यह दिखाना था कि उनके दमन के तरीको कों और अधिक सहन नहीं किया जायेगा।
8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय विधान सत्र के दौरान विधान सभा भवन में बम फेंका। बम से किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचा। उन्होंने घटनास्थल से भागने के बजाय जानबूझ कर गिरफ्तारी दे दी। अपनी सुनवाई के दौरान भगत सिंह ने किसी भी बचाव पक्ष के वकील को नियुक्त करने से मना कर दिया। जेल में उन्होंने जेल अधिकारियों द्वारा साथी राजनैतिक कैदियों पर हो रहे अमानवीय व्यवहार के विरोध में भूख हड़ताल की। 7 अक्टुबर 1930 को भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरू को विशेष न्यायालय द्वारा मौत की सजा सुनाई गई। भारत के तमाम राजनैतिक नेताओं द्वारा अत्यधिक दबाव और कई अपीलों बावजूद भगत सिंह और उनके साथियों को 23 मार्च 1931 को फांसी दे दी गयी। निश्चित रूप से भगत सिंह और उनके साथियों में जोश और जवानी चरम सीमा पर थी। राष्ट्रीय विधान सभा में बम फेंकने के बाद चाहते तो भाग सकते थे किंतु भारत माता की जय बोलते हुए फांसी की बेदी पर चढ़ना मंजूर किया।
जवाहलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- भगत सिंह एक प्रतीक बन गया। साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा।
भगत सिंह के शोहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है- यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भगत सिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था,जितना कि गांधीजी का।
लाहौर के उर्दू दैनिक समाचार पत्र ”पयाम”ने लिखा था- हिंदुस्तान इन तीन शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊंचा समझता है। अगर हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार भी गिराएं तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगो,अगर तुम हिंदुस्तान को आजाद करा लो,तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ! भगत सिंह,राजगुरू और सुखदेव,अंग्रेज खुश हैं कि तुम्हारा खून कर दिया। लेकिन वो गलती पर है। उन्होंने तुम्हारा खून नहीं किया,उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है। तुम जिंदा हो और हमेशा जिंदा रहोगे।
आज हम उन शहीदों को बिल्कुल भुल चुके हैं।जिन्होंने देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों की बलिवेदी दे दी। आज आजाद भारत में भारत के बर्बादी के नारे लगाये जा रहें हैं वो भी देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के परिसर में। देश विरोधी नारे लगाने के आरोप में गिरफ्तार हुए एक छात्र जो कि हाल में 6 महीने के अंतरिम जमानत पर बाहर आया है।उसको तथाकथित बुद्विजीवी,समाजसेवी,पत्रकार और राजनेता महिमामंडित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। भारत की सबसे पुरानी पार्टी के कद्दावर नेता ने इसे आज का भगत सिंह तक कह डाला। वास्तव में वर्तमान समय की हालात को देखकर शहीद-ए-आजम की आत्मा कराहती होगी। कुल मिलाकर कहें तो कुछ लोगों ने शहीदों के शहादत को शर्मशार कर दिया है।