कविता

चंद शब्दों के अंश

कुछ कहानियां और किस्से

गाँव से बाहर के हिस्से में

पुरानें बड़े दरख्तों पर

टंगे हुए.

 

कुछ कानों और आँखों में

कही बातें

जो थी किसी प्रकार

कोमल स्निग्ध पत्तों पर

टिकी और चिपकी हुई

और

चंद शब्दों के अंश

जो टहनियों पर

बचा रहें थे अपना अस्तित्व.

 

यही कुछ तो था

जो जीवन कहला रहा था.

 

जीवन के बहुत से

बिसरते बिसरातें

और बीतते वनों में

कितना ही सुन्दर था

इन सबके भावार्थों को

अपनें भीतर तक उतर जानें का अवसर देना

और

गहरें समुद्री हरे रंगों में

स्वयं को घोल देना.

 

अब भी कहीं

उन अंशों में रत-विरत होते हुए

और

सूखे धुपियाए पत्तों पर

पदचाप की आवाज भर से बचने के

भावनातिरेक को

जरुरत होती ही है तुम्हारी.

 

दरख्तों पर

टंगे कहानियों और किस्सों से

अब भी गिरतें है कुछ

शब्द और गूढ़ शब्दार्थ राहगीरों पर

और उनमें भर देतें हैं

अनथक यायावर  हो सकनें की अद्भुत क्षमता