“शतपथ ब्राह्मण का महत्वपूर्ण लघु परिचयात्मक ग्रन्थ शतपथ सुभाषित”

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मनमोहन कुमार आर्य

शतपथ ब्राह्मण पर स्मृति-शेष प्रतिष्ठित आर्य विद्वान पं. वेदपाल जी ने ‘शतपथ सुभाषित’ नाम से एक लघु पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1998 में हुआ। डा. भवानीलाल भारतीय जी ने इस ग्रन्थ पर अपनी सम्मति दी है जिसे हम प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि शतपथ ब्राह्मण के गम्भीर अध्येता तथा सम्प्रति महर्षि दयानन्द कृत यजुर्वेद भाष्य से इसकी तुलनात्मक समीक्षा के शोध कार्य में संलग्न पं. वेदपाल वर्णी ने इस ग्रन्थ की कतिपय सूक्तियों की मनोहारी व्याख्या प्रस्तुत कर वैदिक वांडमय के अनुशीलन का एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। अन्य ग्रन्थों की भांति शतपथ ब्राह्मण में भी मानव जीवन के सार्वत्रिक उत्थान में सहायता एवं प्रेरणा देने वाली सहस्रों सूक्तियां यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। उनका संग्रह एवं व्याख्या एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसकी प्रथम कड़ी के रूप में प्रस्तुत पुस्तक प्रकाशित की जा रही है। ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद मंत्रों के नाना रहस्य गर्भित व्याख्यान तथा याज्ञिक अनुष्ठानों की गम्भीर व्याख्याएं उपलब्ध होती हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रस्तुत वैदिक व्याख्याओं के आलोक में ही वेद मंत्रों की समुचित संगति लगाई जा सकती है। इस दृष्टि से शतपथ का यह सूक्ति संग्रह जहां पाठकों में ब्राह्मण साहित्य के गम्भीर अध्ययन की रुचि जाग्रत करेगा, वहां मनुष्य के सर्वविध विकास में भी प्रेरणादायी होगा। इसी अभिप्राय से लेखक ने इस पुस्तक की रचना की है।’ यह सम्मति डा. भारतीय जी ने 20-2-1983 को को पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में लिखी थी।

 

इस पुस्तक के विद्वान लेखक आचार्य वेदपाल जी ने पुस्तक की भूमिका में महत्वपूर्ण बातें कहीं हैं जिस पर एक दृष्टि डाल लेते हैं। वह कहते हैं कि गुरुकुल कांगड़ी के प्रख्यात स्नातक, वैदिक साहित्य के उद्भट विद्वान एवं शतपथ ब्राह्मण के दुर्जेय रहस्यों के महान् प्रवक्ता पूज्यपाद स्वामी समर्पणानन्द (पं. बुद्धदेव जी विद्यामार्तण्ड) के सान्निध्य सेवन तथा उनके ग्रन्थों के अध्ययन से मेरे मन में शतपथ ब्राह्मण के अध्ययन की उत्कट इच्छा उत्पन्न हुई। इसी के फलस्वरूप मैंने कई बार शतपथ का पारायण किया। परम पिता प्रभु की कृपा एवं महर्षि दयानन्द वैदिक अनुसंधान पीठ पंजाब विश्वविद्यालय के सम्मान्य अध्यक्ष डा. भवानीलाल भारतीय के सौजन्य से मुझे शतपथ तथा महर्षि दयानन्द के याजुष भाष्य पर शोधकार्य करने हेतु शोधवृधि (Fellow-ship) भी प्राप्त हो गई। इत्थम् मुझे प्राचीन तथा अर्वाचीन साक्षात्कृत धर्मा महर्षियों के वाक्यों पर गहन विचार करने का स्वर्णिम अवसर अधिगत हो गया।

 

वह आगे लिखते हैं कि हर नूतन पारायण हृदय में वैदिक ज्ञान की एक नवीन स्फुरणा करता है तथा इस विश्वास को दृढ़ भूमि पर प्रतिष्ठित करता है कि वैदिक ऋषियों का ज्ञान सर्वथा निर्भ्रान्त एवं ज्ञान विज्ञान की सब विधाओं का प्रकाशक है। ब्राह्मण ग्रंथों में से प्रस्फुटित इस पवित्र ज्ञान धारा के मधुर रस का पान धरती का प्रत्येक मानव कर सके इसी भावना से मैंने शतपथ की सूक्तियों का संग्रह किया तथा पूज्यपाद आचार्यदेव स्वामी ओमानन्द जी की प्रेरणा से इन सुभाषितों की व्याख्या शतपथ के आलोक में करने का प्रयास किया। मैंने व्याख्या को अत्यन्त सरल एवं सामान्य जनोपयोगी बनाने का पूर्ण यत्न किया है।

 

पुस्तक का विवरण देते हुए पुस्तक लेखक पं. वेदपाल जी लिखते हैं कि प्रस्तुत लघु पुस्तिका में मैंने केवल उन्हीं सुभाषितों का चयन किया है, जिनके अर्थ के विषय में अधिक मतभेद नहीं हैं। देव, यज्ञ, स्वर्ग, पशु आदि यद्यपि अर्थ की दृष्टि से लोक में वैदिक धारा से प्रायः पृथक हो चुके हैं, मैंने इनके ब्राह्मण प्रसिद्ध अर्थां को ही ग्रहण किया तथा अर्थ निर्णय की विवेचना इसीलिए छोड़ दी क्योंकि ऐसा करने से पुस्तक सामान्य जनोपयोगी सिद्ध नहीं हो सकती थी। पाठकगण सुभाषितों को पढ़कर निश्चित रूप से यह अनुभव करेंगे कि वैदिक साहित्य में जीवन के उत्थान के सभी पहलुओं का कितना विशद एवं चारु वर्णन किया गया है।

 

शतपथ ब्राह्मण के रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। उनका और उनके ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण का परिचय भी आचार्य वेदपाल जी ने प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार महाभारत युद्ध से भी पहले महाराजा जनक के गुरु महर्षि याज्ञवल्क्य वैदिक ऋषियों में अग्रगण्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके वैदुष्य एवं आध्यात्मिक ज्ञान सम्पन्नता का परिचय शतपथ ब्राह्मण के अध्ययन से पदे-पदे उपलब्ध होता है। शुक्ल यजुर्वेद के प्रामाणिक ब्राह्मण शतपथ के आदि प्रवक्ता महर्षि याज्ञवल्क्य ही थे। इसलिए शतपथ ब्राह्मण में इनके मतों को अन्तिम निर्णय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। जनक की विद्वत सभाओं में महर्षि याज्ञवल्क्य सर्वतो महान् विज्ञानवेत्ता के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त करते थे। यद्यपि उनकी दो पत्नियों का उल्लेख मिलता है तथापि वे ब्रह्मवेत्ताओं में अग्रणी थे तथा अन्त में उन्होंने सर्वस्व त्याग कर ब्रह्मस्थ होने के लाभ की उच्चतम स्थिति को प्राप्त कर लिया था। इनके माध्यन्दिन आदि अनेक शिष्य हुये जो अनेक वैदिक शाखाओं के प्रवक्ता के रूप में प्रख्यात हैं।

 

शतपथ ब्राह्मण जिसके आदि उपदेष्टा महर्षि याज्ञवल्क्य थे, वैदिक साहित्य में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। इसमें सौ अध्याय तथा 14 काण्ड है। सौ अध्याय होने से ही सम्भवतः इसका शपतथ नाम पड़ा है। इसमें दर्शपौर्ण मास आदि सभी श्रौत यज्ञों के विधि विधानों की विस्तृत व्याख्या की गई है तथा यजुर्वेद को इस ब्राह्मण के ज्ञान के बिना समझना असम्भव ही है। इसके अन्तिम भाग का नाम ही वृहदारण्यक उपनिषद् है जिसमें ब्रह्म विद्या का विशद् वर्णन है। यह आर्ष प्रज्ञा द्वारा उद्भाषित यजुर्वेद का एक प्रकार का प्राचीन भाष्य है जो ज्ञान विज्ञान की सभी विधाओं को अपने अन्दर समेटे हुए है।

 

अब हम शतपथ ब्राह्मण से पुस्तक में दिये गये मूल सुभाषित सूक्तियों के आर्यभाषा के अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। 1- हे पुरुष तू कल की उपासना मत कर। तेरे कल को कौन जानता है? 2- जो ज्ञानवान है तथा ज्ञान का प्रवक्ता है, वही सच्चा समृद्ध है। 3- जो न कुछ पैदा करता है न यज्ञ करता है, वह पाप को प्राप्त होता है। 4- जो स्थिर रहता है वह वीर्यवानों में श्रेष्ठ हो जाता है। 5- देवताओं का काव्य दुर्जेय है। 6- सत्यवक्ता ही देव हैं और झूठ बोलने वाला मनुष्य है। 7- जो प्रजा यज्ञ (श्रेष्ठ पुरुषों के संगठन) की भक्त नहीं, वह हार जाती है तथा जो नहीं हारती वह यज्ञ की भक्त प्रजा है। 8- जो सत्य बोलता है, मानों वह प्रदीप्त अग्नि पर घी छिड़कता है व उसका अग्नि उद्दीप्त हो उठता है। उनका अधिक अधिक तेज होता जाता है। रोज रोज कल्याण ही कल्याण देखता है। 9- यह अग्निहोत्र स्वर्ग में पहुंचाने वाली नौका है। 10- देव और असुर दोनों ही भगवान की सन्तान हैं और आपस में स्पर्धा करते हैं। परन्तु असुर ऐश्वर्य पाकर घमण्ड में स्पर्धा करते हैं। परन्तु असुर ऐश्वर्य पाकर घमण्ड से हम किसे क्या दें, ऐसा विचार करके अपने ही मुख में डालने लगे। वे अभिमान से ही हार गये इसलिए अभिमान न करें। 11- सुरा अनृत, पाप एवं तम है। 12- यज्ञ ही देवताओं की आत्मा है। इसी को आत्मा मानकर देव लोग इस स्वर्ग में स्थित हैं। पुस्तक में शतपथ ब्राह्मण से मात्र 20 ही सूक्तियां वा सुभाषित दी गई हैं।

 

पुस्तक के अन्त में सूक्तियों के आधार पर 20 व्याख्यान दिये गये हैं। हम पुस्तक से ‘‘स्वाध्याय का अद्भुत फल” शीर्षकान्तर्गत कथा वा व्याख्यान को प्रस्तुत कर रहे हैं। फलों के प्रति प्रत्येक मानव लालायित है। उसे विश्वास है कि मैं यदि कर्म करूंगा तो फल तो भगवान् अवश्य देगा। इसलिये कर्म करते हुए सुख रूप फलों की लालसा में लगा है। आस्तिक की बात छोड़ों, नास्तिक लोग भी कर्म फल व्यवस्था में आस्था रखते हैं उन्हें भी विश्वास है कि हम जो काम करेंगे उसका फल जरुर निकलेगा। इसलिये वे भी फल की आंकाक्षा से किसी न किसी अच्छे बुरे काम में संलग्न हैं।

 

‘स्वाध्याय का अद्भुत फल’ विषय पर व्याख्यान- भगवान् का काम है फल देना। वह फल देता है। नास्तिक आस्तिक सबको उनके कर्मों के अनुसार फल देना उसका काम है। हम कर्म करते हैं तथा सुख और दुःख पाते रहते हैं। पुण्य का फल सुख है तो पाप का फल दुःख। सभी सुख चाहते हैं। इसलये पुण्य कर्मों के अनुष्ठान के प्रति सभी भद्रजनों के मन में उत्सुकता है। पुण्य कर्म क्या हैं? जब हमने शास्त्रकारों से पूछा तो वे बोले–बल, बुद्धि व पुरुषार्थ से उपार्जित धन का पात्र को दान ही सबसे बड़ा पुण्य है। यह परोपकार रूप धर्म ही मनुष्य को पशुओं से पृथक् करता है। परन्तु क्या पुण्य के फलस्वरूप सुख को पाकर मनुष्य कृतकृत्य हो सकता है, शान्ति की शाश्वत स्थिति को प्राप्त कर सकता है? ऋषि बोले–नहीं, इस सारी पृथ्वी को धन-धान्य से भरी को भी देकर मानव शाश्वत शान्ति नहीं पा सकता। दान का फल सुख है, पर नहीं जानते। महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन में स्पष्ट अपना अनुभव लिखा है-‘‘सुखानुशायी रागः” (योगदर्शन)। सुख के साथ राग का उद्भव है, राग स्वयं में एक क्लेश है।

 

यह देखो युधिष्ठिर है। यह बहुत बड़ा पुण्यकर्मा है। सारी पृथवी इसने जीत ली । आज इसका अश्वमेघ यज्ञ समाप्त हुआ है। सारी पृथ्वी के रत्नों को, धनों को दान देने में लगा है पर क्या इसका हृदय शान्त है? नहीं। इससे पूछो। पूछने पर बतायेगा कि हम राजाओं को शान्ति कहां, शान्ति का पान तो ऋषि करते है। हम यह सुनकर घबरा गए, यह क्या बात है। यह चक्रवर्ती सम्राट् भी शान्त नहीं। हम बैठ गये। शास्त्रज्ञ के चरणों में हमने कहा–आप वेद शास्त्र पढ़ते हैं। हमें वह पुण्य कर्म बताओ कि जिससे हम अकिंचनों का कल्याण हो, शान्ति मिले।

 

विद्वान बोले–शतपथ के रचयिता महर्षि याज्ञवल्क्य का नाम सुना होगा, वे बड़े भारी विद्वान् थे, वेदों के सार को उन्होंने समझा था, उन्होंने वेदों का व्याख्यान करते हुए लिखा है। हमने बड़ी उत्सुकता से पूछा क्या लिखा? विद्वान् बोले सुनों–‘‘यावनतं ह वा इमां पृथ्वीं वित्तेन पूर्णां ददत् लोकं जयति त्रिस्तावन्त जयति य एव विद्वान् अहरहः स्वाध्यायमधीते–तस्मात् स्वाध्यायोऽध्येतव्यः।” (शतपथ 11-5-6-31)

 

धन से परिपूर्ण इस पृथ्वी का दान करके जिस पुण्य लोग (सुख-विशेष) का लाभ होता है, उससे तीन गुणा अर्थात् सर्वविधि-शान्ति रूप सुख उसे मिलता है जो समझदार व्यक्ति प्रतिदिन स्वाध्याय करता है। इसलिये स्वाध्याय करना चाहिये।

 

हम बोले भगवन् हम बहुत पढ़ते हैं-अनेकों ग्रन्थ पढ़ डाले हमने, पर शान्ति नहीं मिली हमें। इसका क्या कारण है? विद्वान् बोले तुम स्वाध्याय का अभिप्राय केवल ग्रन्थ पढ़ना समझ बैठे हो, इसलिये शान्ति से दूर हो। सुनों स्वाध्याय के दो अर्थ हैं। एक-स्व$अध्याय=अपना अध्ययन अर्थात् आत्म चिन्तन। प्रातःकाल स्नान करके एकान्त में बैठकर क्या कभी सोचते हो, चिन्तन करते हो कि मैं क्या कर रहा हूं, मेरा स्वरूप क्या है, यह संसार कैसा है, क्या कभी विचारते हो? हमने कहा नहीं। तो फिर शान्ति कहां से मिले। दूसरा स्वाध्याय का अर्थ है सु$अध्याय=अर्थात् अच्छे वेद शास्त्रों व उपनिषदों का एकान्त शान्त स्थान पर बैठकर सुविचार पूर्वक अध्ययन करना। जो इस प्रकार स्वाध्याय करता है वह संसार में रहता हुआ भी, कर्म करता हुआ भी निर्लिप्त रहता है। सांसारिक सुख-दुःख उसे नहीं सताते क्योंकि उसे चिन्तन से निश्चय हो जाता है कि सुख-दुःख इन्द्रियों तक सीमित है। फिर वह शाश्वत शान्ति की अनुभूति करता है। वह स्वाध्याय का महान् फल जो धन व दौलत से कदापि प्राप्त नहीं होता। इसलिये ऋषियों ने कहा है कि हे शान्ति के इच्छुक मनुष्य! नित्य स्वाध्याय कर ‘‘स्वाध्यायात् मा प्रमदः” स्वाध्याय से प्रमाद मत कर। हम यह भी बता दें कि पुस्तक में ऐसे अन्य 19 व्याख्यान और हैं। इस पुस्तक में कुल 14+45 पृष्ठ हैं।

 

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