राजनीति

अपने ही गठबंधन पर कुल्हाड़ी मार रही ममता

गठबंधन की सियासत में न कोई नीति होती है न आचारसंहिता. अगर कुछ होता है तो केवल स्वार्थ, मनमानापन और तानाशाही. ममता बनर्जी ने जिस पाठशाला में राजनीति का शास्त्र पढ़ा है, उसमे यही सिखाया गया होगा. शायद इसी सीख का नातीजा है कि १४१ सीटों वाले कोलकाता नगर निगम में कांग्रेस की रजामंदी के बगैर ममता ने अपने ११५ उम्मीदवार मैदान में उतार दिए.

तृणमूल ने ४१ सीटों की याचना कर रही कांग्रेस के कटोरे में २५ सीटों का रूखा-सूखा दाना फेंक दिया. लेना है तो लो वर्ना, उस से भी हाथ धो बैठोगे. उधर आलम यह है कि सोनिया गाँधी के आदेश पर जो कांग्रेसकर्मी अभी तक ममता के तमाम नाज-ओ-नखरे उठाते चले आ रहे थे. अब उन्हें लगने लगा है कि 34 सालों से बंगाल पर राज कर रहे वाममोर्चा को हटाना तृणमूल का लक्ष्य हो न हो, बंगाल से कांग्रेस का सफाया उसका पहला लक्ष्य जरूर है. और इसी भावना से बौखलाए कांग्रेसी खुद अपनी ही पार्टी के प्रदेश दफ्तर में अब तक तीन बार तोड़फोड़ कर चुके हैं. इन लोगों ने प्रदेश कांग्रेस भवन में घुसकर न सिर्फ नेताओं के चेंबर तोड़ डाले, बल्कि वहां खड़े वाहनों को भी नुक्सान पहुंचाया. एक ही हफ्ते में तीन बार किसी राष्ट्रीय पार्टी के दफ्तर पर उसी पार्टी के लोग लाठी-डंडे लेकर हंगामा करें और आलाकमान चुप बैठा रहे, तो कहीं न कहीं मजबूरी समझ लेनी चाहिए.

हंगामा करने वालों को अपने ही प्रदेश अध्यक्ष और प्रवीण नेता प्रणव मुख़र्जी से नाराजी है. हंगामे के पीछे एक ही कारण है की ममता के हाथ पार्टी को अब और गिरवी न रखा जाए. सबसे पहले हमला करने वालों के नेता राकेश सिंह के आवाज में कई कार्यकर्ताओं का दर्द है. उसका कहना है कि कार्यकर्ता कभी सोमेन मित्र के लिए, तो कभी सुब्रत मुख़र्जी के लिए तो कभी सुदीप बंदोपाध्याय के लिए जिंदाबाद के नारे लगता है, लाठियां खता है, गिरफ्तारी देता है- पर वक़्त आता है तो ये सारे के सारे पाला बदल कर ममता बनर्जी की शरण जा पहुँचते हैं. कांग्रेस छोड़ कर जाने वालों को ममता की पार्टी में विधायक , सांसद और केंद्रीय मंत्री तक बनवा दिया गया है. जबकि कांग्रेस के लिए जान देने वालों को एक-एक कर हासिये पर धकेला जा रहा है. यह वही ममता बनर्जी हैं, जिन्होंने १९९७ में कांग्रेस तोड़कर अलग तृणमूल पार्टी का गठन किया था. प्रणव मुख़र्जी के पास निचले कार्यकर्ताओं की बात सुन ने लायक कान नहीं हैं. प्रणब बाबु ऊँचे नेता हैं, और ऊँचे लोगों की बात ही समझते हैं. अब ऐसे में आलम यह है कि राज्य के लगभग प्रत्येक जिले में बगावत के सुर उठने लगे हैं.

३० मई को होने वाले निगम और पालिका चुनाव में यदि कांग्रेसी कार्यकर्ता यूँ ही बौखलाए रहे तो तय है इसका फायदा वाममोर्चा को मिलेगा. यदि ऐसा होता है तो इसका दूरगामी असर २०११ में साफ़ तौर पर पड़ेगा. अगले साल राज्य विधान सभा के चुनाव हैं और पहली बार सत्तारूढ़ वाम मोर्चा के तेवर ढीले दिखायी पड़ रहे हैं. पर यदि हालिया चुनाव में कांग्रेस और तृणमूल की पंगेबाजी बदस्तूर कायम रही तो वामपंथी एक बार फिर मजबूत होंगे . ममता बनर्जी की अकड़ से कांग्रेस ही क्यूँ, औद्योगिक जगत में भी प्रतिकूल प्रतिक्रिया सूनने को मिलने लगी है. खुद ममता की पार्टी में कई सांसद और विधायक अपनी नेत्री के तानाशाही रवईये से त्रश्त हैं.

ममता की राजनितिक यात्रा के इतिहास से वास्ता रखने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि उनके मूड की कोई गारंटी नहीं है. तृणमूल के जन्मदाताओं में गिने जाने वाले अजित पंजा जैसे वरिस्थ नेता को ममता के घमंड के आगे वर्षों तक राजनैतिक बनवास झेलना पड़ा था. कांग्रेस के राज में इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी और नर्शिम्हा राव जैसे प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में जिन अजित पंजा को केबिनेट मंत्री का दर्जा मिला करता था, उनकी जितनी दुर्गति हुयी, उतनी शायद किसी कि नहीं हुयी हो. पंजा को जीवन के आखरी दिनों में नगर निगम के पार्षद के रूप में रहना पड़ा था. ममता ने कई वर्षों तक तक उन्हें दुख पहुँचाया और बुरी तरह दरकिनार कर रखा था. उनका दोष सिर्फ इतना था कि पार्टी में रहकर उन्होंने ममता के गलत फैसलों की मुखालफत की थी. यही हाल इन दिनों कबीर सुमन जैसे सांसद का हो रहा है. तृणमूल करने वाले भी भलीभांती जानते हैं की ममता को किसी पर यकीं नहीं है. अपने सांसदों पर भी नहीं. वर्ना केंद्रीय मंत्रिमंडल में वे केवल खुद को केबिनेट मंत्री रखकर बाकी सांसदों को राज्य मंत्री पड़ क्यूँ दिलवातीं.

ममता बनर्जी अपनी पार्टी कि इकलौती मालकिन हैं. उनके दल में वही टिक सकता है जो उनके हर सही-गलत फैसले को मंजूर करे. गणतांत्रिक पद्धति से इस दल का कोई वास्ता नहीं है. यदि ममता के यही तेवर कायम रहे तो खुद उनकी पार्टी में ही निचले स्तर के कार्यकर्ता भी जल्द ही घुटन महसूस करेंगे और इसका फायदा वाममोर्चा को मिलना है. आज कांग्रेस के कार्यकर्ता घुट रहे हैं, कल यही हाल ममता के कार्यकर्ताओं का हो सकता है.

-प्रकाश चंडालिया