आत्माराम यादव पीव
ब्रह्मा, विष्णु और महेश में से मुझे महेश के स्वरूप और उनकी महत्ता जानने की इच्छा प्रारम्भ से ही रही है। शिव पुराण , लिंगपुराण सहित अन्य पुराणों में शिव और विशेषतः शिव तथा लिंग पुराण में शिव के स्वरूप का अध्ययन करना चाहा और उसी क्रम में यह विषय संज्ञान में आया की शिव लिंग के रूप में इस सृष्टि के पालक और संहारक के रूप में जगत के कल्याण का भी कार्य सम्पादित करते आ रहे है। शिव के स्वरूप और उनके दार्शनिक तत्व चिन्तन का आज जितना प्रचार-प्रसार और पूर्ण श्रध्दापूर्वक भक्ति की जा रही है उतनी सम्भवतः श्री हनुमानजी और दुर्गा देवी को छोड़कर और किसी की नहीं की जा है। दक्षिण से लेकर उत्तर तक और पूर्व से लेकर पश्चिम तक शिव एक ऐसे देव के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जिनका पूजन-स्मरण बड़ी मात्रा में किया जाता है और जो सभी के लिए बहुतायत से मान्य और पूज्य हैं।
सूत जी ने जब यह लिंग पुराण प्रारम्भ कर जगत के समक्ष यह प्रकट किया कि निराकार-अव्यक्त ईश्वर शिव का व्यक्त रूप प्रकृति का नाम लिंग भी है। भगवान शंकर अलिंग, चिन्ह रहित, निराकार हैं। वे शिव शक्ति का स्वरूप हैं। शिव शक्ति के अन्तर्गत प्रधान पुरुष और प्रकृति दोनों ही परिगणित हैं। अव्यक्त, निराकार, जगदीश्वर 'तुरीय' हैं। वे जन्म-मरणादि की विकृतियों से मुक्त हैं। उनके स्वरूप का एक गुण उनका अलिंग होना भी है। उस अलिंग से स्वतः समुद्भूत जगत् ही उनका लिंग स्वरूप (विग्रह शरीर) है। लिंग पुराण में उल्लेख किया गया है कि - अलिंगो लिंगमूलं तु अव्यक्तं लिंगमुच्यते । अलिंगः शिव इत्युक्तो लिंगं शैवमिति स्मृतम् ।। प्रधानं प्रकृतिश्चेति यदाहुर्लिंगमुत्तमम् । गंधवर्णरसैर्हीनं शब्दस्पर्शादिवर्जितम् ।। सप्तधा चाष्टधा चैव तथैकादशधापुनः । लिंगान्यलिंगस्य तथा मायया विततानि तु ।। एकस्माद् त्रिष्वभूद्विश्वमेकेन परिरक्षितम् । एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्तं त्वेवं शिवेन तु ।। अर्थात - अलिंगी शिव ने अपनी माया से अपने लिंगों को सात-आठ तथा ग्यारह भागों में विभक्त किया है। एक मूर्ति, जो ब्रह्मा रूप है उससे वे विश्व की उत्पत्ति करते हैं, दूसरी मूर्ति विष्णु रूप है, जिससे वे जगत का पालन करते हैं अर्थात् इसी उनके स्वरूप से विश्व की रक्षा होती है। और उनकी जो तीसरा मूर्ति रुद्र रूप है, वह संहारक है। इससे यह संकेत होता हे कि जो मूल रूप से अलिंगी हैं और संसार का प्रकट स्वरूप ही जिनका लिंग रूप है-अपने त्रिगुण स्वरूप से विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय का हेतु है, अलिंग, लिंग और लिंग लिंगात्मक स्वरूप मूलतः एक ही।
लिंग का माहात्म्य लिंग पुराण में अभिव्यक्त किया गया कि- सर्वं लिंगमयं लोकं सर्वं लिंगे प्रतिष्ठितम् । तस्मात् सर्वं परित्यज्य स्थापयेत् पूजयेच्च तत् ।। लिंगस्थापन् सन्मार्ग निहित स्वायत्तासिना । आशु ब्रह्माण्डमुद्भिद्य निर्गच्छेरविशंकया ।। लिं. पु., पृ. १८८ अर्थात – सम्पूर्ण लोक लिंग रूप ही है। सभी कुछ लिंग में ही प्रतिष्ठित है। इसलिए सभी कुछ छोड़कर लिंग की पूजा ही करनी चाहिए। जो लिंग की स्थापना करते हैं, इसकी उपासना करते हैं, इसकी पूजा करते हैं, वे इस ब्रह्माण्ड का भेदन कर अपरलोक को प्राप्त कर लेते हैं।' लिंग के माहात्म्य का स्वरूप इस प्रकार का है जिसमें यह कहा गया है कि ब्रहमा, विष्णु, हरं, रमा, लक्ष्मी, धृति, स्मृति, प्रज्ञा, दुर्गा, शची, रुद्र, वसु, स्कन्द, लोकपाल, नवग्रह, गणपति, पितर, मुनि, कुवेरादि, अश्विनीकुमार, पशु, पक्षी, मृग आदि के साथ ब्रह्मा से लेकर जितना भी स्थावर और जंगम है वह सभी लिंग में प्रतिष्ठित है। इसलिए सभी का परित्याग करके लिंग की स्थापना करनी चाहिए। यत्नपूर्वक स्थापित और पूजित लिंग कल्याण के प्रदाता हैं।
भगवान शिव की सर्वत्र व्यापकता और उनका सर्वत्र होना अनेकों रूपों में कहा गया है। भगवान् के सूक्ष्म रूप का स्मरण करते हुए यह कहा गया है कि ऋषि गण ईश तत्व को सूक्ष्म कहते हैं किन्तु वह वाणी का विषय न होने से वाच्य नहीं है। अर्थात् शंकर के सूक्ष्म स्वरूप का कथन वाणी से नहीं किया जा सकता है। वह सूक्ष्म रूप ऐसा है जहाँ न वाणी पहुँचती है और आकार न होने से वहाँ मन की स्थिति भी नहीं है,’ इस रूप में सर्वत्र वही शंकर है और उसकी विभूतियों से उसकी सर्वत्र व्यापकता भी सिद्ध होती है। मुनि गण शिव की विभूतियों का स्मरण करके ही रुद्र सर्वत्र है, ऐसा कहते हैं देखे – . सूक्ष्मं वदन्ति ऋषयो यन्न वाच्यं द्विजोत्तमाः। यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।।
. लिंग पुराण के अनुसार -सिसृक्षया चोद्यमानः प्रविश्याव्यक्तमव्ययम् । व्यक्तसृष्टिं विकुरुते चात्मानाधिष्ठितो महान्।। महतस्तु तथावृत्तिः संकल्पाध्यवसायिका। महतस्त्रिगुणस्तस्मादहंकारो रजोधिकः ।। तेनैव चावृत्तः सम्यगहंकारस्तमोधिकः। महतो भूततन्मात्रंसर्गकृद् वै वभूव च।।अहंकाराच्छब्दमात्रं तस्मादाकाशमव्ययम्। सशब्दमावणोत्पश्चादाकाशं शब्दकारणम।। अर्थात -जब ईश्वर को सृष्टि रचना की इच्छा होती है तब सर्वप्रथम महत् तत्त्व का प्रादुर्भाव होता है। महत् तत्त्व से संकल्प, विकल्प की वृत्ति और उससे त्रिगुण मूल अहंकार से तन्मात्राएँ-रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्शादि तथा इनके आधार पर अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश तथा वायु की सृष्टि होती है। शब्दादि विषयों को ग्रहण करने वाली-जो कर्म में प्रवृत्त होने के कारण कर्मेन्द्रियाँ कहीं जाती हैं और ज्ञानात्मिका होने के कारण ज्ञानेन्द्रियाँ कही जाती हैं वे उत्पन्न होती हैं। मन भी यद्यपि एक इन्द्रिय है तथापि यह कर्म और ज्ञान में समान रूप से व्याप्त होने कारण कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय के रूप में कहा जा सकता है। ब्रह्ममादि अण्ड को उत्पन्न करते हैं और बूंद-बूंद से पितामह ब्रह्मा का अवतार होता है। वही भगवान रुद्र और सर्वान्तर्यामी विष्णु हैं।’
सृष्टि के इस क्रम को विस्तार देते हुए यह कहा गया है कि अण्ड अंपने से दस गुना-जल से, जल दस गुना अग्नि से, अग्नि तेज से, तेज वायु से, वायु अहंकार से, अहंकार महत् से और महत् प्रधान से परिव्रत है। यही उस अण्ड के सात आवरण कहे जाते हैं। इन अण्डों की संख्या कोटि-कोटि है। प्रत्येक अण्ड में, ब्रह्मा, विष्णु और शिव हैं। प्रधान से उत्पन्न ये सभी शिव का सानिध्य प्राप्त करके लय हो जाते हैं। यही सृष्टि का आदि और अन्त है। इसका यह संकेत है कि ब्रह्मादि की उत्पत्ति सृष्टि का आदि है और ब्रह्मादि का लय सृष्टि का अन्त है।' पुराणकार लिखते हैं कि सर्ग और प्रतिसर्ग के करने वाले शंकर ही हैं। उत्पत्ति काल में वे रजोगुण से युक्त हो जाते हैं। उत्पन्न प्रजा के पालन-पोषण में वे सतोगुण में अवस्थित होते हैं। सृष्टि के विध्वंस काल में वे तमोगुण से संयुक्त रहते हैं। भगवान दिन में सृष्टि करते हैं और रात्रि में प्रलय करते हैं। सभी देवता, प्रजापति और महर्षि दिन में विद्यमान, रात्रि में विलीन तथा रात्रि के अन्त में पुनः प्रकट हो जाते हैं। यही लिंग का पालक और संहारक का रूप है देखें - लयश्चैव तथान्योन्यमाद्यंतमिति कीर्तितम। सर्गस्य प्रतिसर्गस्य स्थितेः कर्ता महेश्वरः।। लिं. पु., पृ. 4
लिंग पुराण का नाम यद्यपि भगवान शंकर के एक नाम-रूप लिंग के आधार पर किया गया है तथापि इस पुराण में शिव, शंकर, पशुपति आदि के रूप में ही शिव स्वरूप और शिव तत्व का गायन किया गया है। इसी प्रकार से एक स्थान पर इसमें शिव के अन्य नामों की गणना भी की गई है जिनमें शिव के लिंग रूप के अतिरिक्त इनके सर्व, भव, वन्हि, ईशान, भीम, रुद्र, महादेव, उग्र आठ मूर्तियों के रूप में गिना गया है। इसी क्रम में यह कहा गया है कि भगवान शंकर की अष्ट मूर्तियों से यह सम्पूर्ण जड़-चेतन व्याप्त है।’ इन आठों मूर्तियों की व्यापकता को इस पुराण में इस रूप में कहा गया है जिसमें यह वर्णन है कि सर्व इस जगत् के विधाता और भर्ता हैं। भव इस संसार के जीवों को जीवन प्रदान करते हैं। बहि ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर शीततम आदि से लोकों की रक्षा करते हैं। ईशान पवन बनकर समस्त भुवनों में व्याप्त रहते हैं। भीम रूप में वे चर और अचरों के मन में उत्पन्न हुई कामनाओं की पूर्ति करते हैं। रुद्र रूप में भगवान शंकर भक्तों को मुक्ति प्रदान करते हैं और सम्पूर्ण संसार के अन्धकार का हरण करते हैं। उनकी सप्तम मूर्ति महादेव हैं। इस रूप में वे सृष्टि में रस और शीतलता का संचार करते हैं तथा उग्र रूप में वे जगत को नियन्त्रित करते हैं और पापियों को दण्ड देते हैं।
पुरुषं शंकरं प्राहुगौरीं च प्रकृतिंद्विजाः । अर्थः शम्भुः शिवा वाणी दिवसोऽजः शिवानिशा।। आकाशं शंकरो देवः पृथिवी शंकर प्रिया। समुद्रो भगवान रुद्रो वेला शैलेन्द्रकन्यका। वृक्षः शूलायुधो देवः शूलपाणिप्रियालता।। ब्रह्माहरोपि सावित्री शंकरार्धशरीरिणी। विष्णुमहेश्वरो लक्ष्मी भवानी परमेश्वरी।।शंकरः पुरुषाः सर्वे स्त्रियः सर्वा महेश्वरी।। लि. पु., पृ. 128,159 अर्थात -शिव की व्यापकता और सर्वरूपता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि शिव पुरुष हैं और शिवा माया हैं। शिव आकाश और शिवा पृथिवी हैं। शिव दिन और शिवा रात्रि हैं। शिव समुद्र और पार्वती तरंग हैं। शिव वृक्ष और शिवा लता हैं। शिव ब्रह्मा, विष्णु हैं और शिवा सावित्री तथा लक्ष्मी हैं। इस रूप में विश्व में जितने भी पुरुष रूप हैं सब भगवान् शंकर की विभूति हैं तथा जितने स्त्री रूप हैं वे सभी भगवती की विभूति हैं।’ भगवान् शंकर के विश्व रूप में यह भी कहा गया है कि शंकर ज्ञाता तथा ज्ञेय हैं, श्रोता और श्रव्य है, दृष्टा और दृश्य हैं, आघ्राता और घ्राण्य हैं। वे उसी प्रकार से हैं जैसे अग्नि से उत्पन्न स्फुलिंग अग्नि में ही व्याप्त रहती है। इस रूप में वे सर्वत्र हैं, सभी में हैं और वे ही सभी कुछ हैं।
जिस प्रकार से सभी के शरीर में मनतत्वरूप में अवस्थित है, उसी प्रकार से सम्पूर्ण शरीर में शिव स्वरूप अवस्थित है। भगवान शंकर ही सभी प्राणियों के शरीर में श्रोत्र, आस्वाद तथा घ्राण हैं। रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श तथा इनके आधार पृथिवी, जल, तेज, अग्नि, वायु और आकाश शंकर के ही स्वरूप हैं। शिव की पांच मूर्तियां ही इन पांचों तत्त्वों का प्रवर्तन और संचालन करती हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियों की पांच कर्मेन्द्रियां हसन, पाद, वाक्, लिंग तथा गुदा तथा इनके विषय कार्य करना, चलना, बोलना, मूत्र तथा पुरीषोत्सर्गादि भी शिव के ही मूर्तरूप हैं।' शिव क्षर हैं, अक्षर हैं और दोनों से भिन्न तथा अभिन्न हैं। वें क्षर रूप में व्यक्त और अक्षर रूप में अव्यक्त हैं। परन्तु इन दोनों से परे होने के कारण वे पर भी हैं। समष्टि को शिव का अव्यक्त और व्यष्टि को शिव का व्यक्त रूप मानना चाहिए। भगवान शंकर विद्या रूप भी हैं और अविद्या रूप भी। अविद्या रूप इसलिए हैं क्योंकि अविद्या रूप प्रपञ्च भी भगवान शंकर का ही रूप है। विद्या शंकर का उत्तम रूप है और अविद्या मायामय रूप है।
निर्देशाद् देवदेवस्य सप्तस्कंधगतो मरुत् । लोकयात्रां वहत्येव भैदैः स्वैरैवाहवादिभिः।। हव्यं वहति देवानां कव्यं कव्याशिनामपि । पाकं च कुरुते वन्हि शंकरस्यैव शासनात्।। अविलंघ्या हि सर्वेषामाज्ञा तस्य गरीयसी । देवान् पातयत्सुरान्हन्ति त्रैलोक्यमखिलं स्थितः । अधार्मिकाणां वै नाशं करोति शिवशासनात् ।। लिंग पुराण पृष्ठ-158 अर्थात- शिव के अनुशासन से ही वायु सप्त स्कन्धों में विभाजित होकर लोक यात्रा संपादित करती है। अग्नि देवताओं के लिए हव्य वहन करती है और वही पूर्वजों के निमित्त कव्य भी धारण करती है। अग्नि पाचन क्रिया का काम शंकर की शक्ति और आज्ञा से ही करती है। खाया भोजन पचाने की जो शक्ति प्राणी में होती है और जो अग्नि उदर में रहकर भुक्तान्न का पाचन करती है वह भी शंकर के आदेश से ही करती है। संसार में जो प्राणी जीवन धारण करते हैं और अपने जीवन में जो शक्ति प्राप्त करके आपत्तियों से पार कर जाते हैं, वह भी शंकर की ही शक्तिका महत्त्व है, क्योंकि शिव की आज्ञा उल्लंघन करने योग्य नहीं है। इसी प्रकार शिव अपनी कृपालुता से देवताओं की रक्षा करते हैं और दैत्यों का संहार करते हैं। सभी प्राणी संसार में अपने पुण्यों के अनुसार जो पुण्य फल पाते हैं, वह सभी शिव की कृपा से ही होता है, क्योंकि उनकी शक्ति और आज्ञा उल्लंघन योग्य नहीं हैं।’
आत्माराम यादव पीव