डॉ. नीरज भारद्वाज
भगवान श्रीराम के दर्शनों के लिए यह मानव रूपी जीव लालायित रहा है। भगवान का धरा धाम पर आना भी एक पूर्ण योजना के आधार पर ही होता है। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि, जब–जब होई धर्म कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।। तब तब धरि प्रभु विविध शरीरा, हरहि दयानिधि सज्जन पीरा।। भगवान श्रीमद्भगवतगीता के अध्याय चार के श्लोक सात में कहते हैं कि यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। अर्थात जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ता है तो भगवान अधर्मियों का नाश करने के लिए आते हैं। इसके साथ ही जन्म-जन्म से भक्ति में लगे हुए भक्तों का उद्धार करने और उन्हें दर्शन देने के लिए भगवान इस धरा धाम पर आते हैं। गोस्वामी जी लिखते हैं कि राम जन्म के हेतु अनेका परम विचित्र एक से एका अर्थात भगवान के धरा धाम पर आने के कितने ही कारण हैं।
भक्तों की दृष्टि से समझे तो भगवान भूलोक पर अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए, उन्हें आवागमन के चक्कर से मुक्त करने के लिए आते हैं। मीरा कहती हैं, अँखियां हरी दर्शन की भूखी। भक्त भगवान के दर्शन के लिए कितने ही भाव और शब्दों का प्रयोग करते हैं। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास भगवान श्रीराम के ब्रह्म होने और उनके दर्शन की बात अलग-अलग स्थान पर बताते-समझते रहे हैं। जन्म के समय ही भगवान श्रीराम ने माता कौशल्या को गर्भ में ही अपने दिव्य दर्शन दे दिए। माता कौशल्या भगवान को शिशु लीला करने की बात कहती हैं। माता पुनि बोली सो मति डोली, तजहु तात यह रूपा। कीजै सिसुलीला अति प्रियसिला यह सुख परम अनूपा।। भगवान माता की बात मान लेते हैं और मानव लीला करने के लिए इस भूलोक पर आते हैं।
गुरु वशिष्ठ और गुरु विश्वामित्र भगवान श्रीराम के देव रूप को जानते हैं। उनकी लीलाओं को भी जानते हैं। जब धनुष भंग होता है तो उस समय भगवान परशुराम आते हैं और भगवान श्रीराम के दर्शन कर उन्हें प्रणाम कर अपने धाम को लौट जाते हैं। श्रीलक्ष्मण जी भगवान के दिव्य रूप को जानते हैं। रामचरितमानस में जब श्रीलक्ष्मण जी निषाद जी को बताते हैं कि राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा।। भगवान श्रीराम ब्रह्म हैं अर्थात श्रीलक्ष्मण जी के माध्यम से निषाद जी को भी भगवान के दर्शन हो जाते हैं। भक्त केवट भी गंगा पार करने के बाद भगवान श्रीराम से कहते हैं कि अब कछु नाथ ना चाहिए मोरें। दीनदयाल अनुग्रह तोरें।। अर्थात केवट भी भगवान के दर्शन कर अपने को धन्य कर चुके हैं। माता सीता जी के हरण से पहले रावण विचार करता है और कहता है कि खर दूषण मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारई बिनु भगवंता।। अर्थात रावण भी भगवान के दर्शन कर मुक्ति चाहता है।
श्रीहनुमान जी विप्र का वेश बनाकर आते हैं और जैसे ही भगवान श्रीराम से परिचय होता है, वह भगवान के दर्शन कर जन्म-जन्म की भक्ति का फल प्राप्त कर लेते हैं। बाली वध के समय भी बाली भगवान श्रीराम से कहते हैं कि धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि व्याध की नाईं।। अर्थात बाली भी भगवान के दिव्य दर्शन कर परमधाम को पहुंच जाता है। श्रीहनुमान जी जब लंका में माता सीता जी का पता लगाने जाते हैं तो वहां विभीषण जी से भेंट होती है। श्रीहनुमान जी और विभीषण जी का संवाद भी है। विभीषण जी रावण से कहते भी हैं कि तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला।। ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता।। अर्थात विभीषण जी भगवान श्रीराम के बारे में जानते हैं। रावण अपने दरबार से उसे भगा देता है और विभीषण जी सीधे भगवान श्रीराम जी के पास आते हैं और कहते हैं कि समदरसी इच्छा कुछ नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माही।। अर्थात आपके दर्शन के बाद मेरे अंदर का सुख-दुख, राग-विराग सभी कुछ नष्ट हो गया है।
भगवान श्रीराम अपने सभी भक्तों को दर्शन देते हैं। उन्हें देखने-समझने वाली दृष्टि होनी चाहिए। भगवान श्रीराम हम सभी के तारणहार हैं। राम नाम का सुमिरन करते रहेंगे तो भवसागर से पर उतर जाएंगे। जय श्रीराम
डॉ. नीरज भारद्वाज