राजनीति

विधानसभा चुनावों से उभरे संकेत

राजस्थान, मध्य प्रदेश, छतीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम विधानसभा के चुनाव परिणाम आ गये हैं। इन पॉच राज्यों में से तीन पर भाजपा का कब्जा था। दिल्ली में कांग्रेस काबिज थी और मिजोरम में एम0एन0एफ0 की सरकार थी। इन चुनाव परिणामों को लेकर इसलिए ज्यादा उत्सुकता थी क्योंकि इसके कुछ महीनों के बाद ही लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। इसलिए यह कहा जाता था कि इन पॉच विधानसभाओं के चुनाव परिणाम केन्द्र की राजनीति को प्रभावित करेंगे।

 

इन परिणामों में भाजपा का कितना कुछ ही दांव पर लगा हुआ था। क्योंकि तीन राज्यों में भाजपा की सत्ता थी और ऐसा माना जाता है कि सत्ता विरोधी लहर के कारण दूसरी पारी में सरकार बनाये रखना मुश्किल हो जाता है। इसी सत्ता विरोधी लहर के कारण लगभग साल भर पहले उतराखंड और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है। यदि इस पैमाने से इन चुनाव परिणामों का आकलन किया जाये तो यह मानना पड़ेगा कि भाजपा इस क्षेत्र में सफल रही है। उसने तीन में से दो राज्यों मसलन मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में दोबारा अपनी जीत का परचम लहरा दिया है।

 

राजस्थान में सत्ता जरूर उसके हाथ से निकल गयी है लेकिन वहॉ भी पक्ष और विपक्ष में केवल 20 सीटों का ही अन्तर है। निर्दलीयों में से भी कुछ लोग ऐसे हैं जो भाजपा से बगावत करके आजाद खड़े हो गये थे और जीत गये। इसे पार्टी की मिसमनेजमैंट माना जा सकता है पराजय नहीं। राजस्थान में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी पराजित हो गये और कुछ दिन पहले ही भाजपा छोड़कर कांग्रेस में गये भरतपुर के महाराजा विश्वेन्द्र सिंह भी धूल चाटते नजर आये। मीणा जाति की राजनीति करने वाले किरोड़ी लाल मीणा भी पराजित हो गये।

 

मिजोरम में भाजपा की उपस्थिति लगभग नगण्य है। वहाँ का चुनाव एक प्रकार से चर्च ही नियंत्रित करता है। जीतने वाले दलों की आस्था भी चर्च की और ही रहती है। परन्तु इस बार सत्ता धारी एम0एन0एफ0 पराजित हो गया और सोनिया गॉधी की कांग्रेस वहॉ से जीत गयी। उसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि सोनिया गांधी की कैथोलिक चर्च और वेटिकन से साम्प्रदायिक संबध हैं इसलिए लम्बी रणनीति के तहत चर्च को यही लगा होगा कि सोनिया गांधी की पार्टी को ही जिताया जाये। यहॉ यह भी ध्यान रखना होगा कि मिजोरम में जो आर्कबिशप चर्च पर नियंत्रण करते हैं उनकी नियुक्ति इटली में वैटिकन सरकार ही करती है इसलिए वहॉ कांग्रेस का जीतना चर्च की भविष्य की रणनीति की और ही संकेत करता है जो जाहिर है पूर्वोत्तर भारत के लिए खतरनाक है।

 

दिल्ली का चुनाव परिणाम सचमुच चौंकाने वाला कहा जा सकता है। भाजपा को आशा थी कि दिल्ली वह इस बार कांग्रेस को परास्त कर देगी। क्योंकि पिछले दस सालों से दिल्ली पर कांग्रेस ने ही कब्जा जमाया हुआ है। साल भर पहले दिल्ली नगर निगम के लिए हुए चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस को बुरी तरह पराजित किया था। इसी आधार पर भाजपा विधानसभा में भी जीतने की आशा लगाये हुए थी। लेकिन कांग्रेस ने तीसरी बार जीत कर हैटि्क बना दी है। अब कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि नगर निगम चुनावों में भी दिल्ली की कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने जान बूझ कर कांग्रेस को ही हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। शीला दीक्षित को भय था कि यदि नगर निगम में कांग्रेस जीत गई तो निश्‍चय ही महापौर के पद पर बैठे व्यक्ति का कद भी बढ़ जायेगा। शीला दीक्षित अपने होते हुए प्रदेश कांग्रेस में किसी दूसरे को उभरने का अवसर नहीं देना चाहती। भाजपा नगर निगम के चुनावों से उत्साहित होकर विधानसभा चुनावों में अपनी जीत पक्की मानने लगी। जब पक्की जीत की धारणा बन जाये तो टिकट बाँटने के मामले में कुव्यवस्था फैलना लाजिमी होता है। टिकट लेने के लिए दरबारी किस्म के लोग घेराबंदी कर लेते हैं और टिकट ले भी जाते हैं। जनता और सब कुछ सह सकती है लेकिन दरबारियों की अकड़नुमा हरकतें नहीं। दिल्ली की पराज्य के बाद भाजपा को भीतर झांकने की शायद पहले से भी ज्यादा जरूरत है। वैसे तो दिल्ली चुनाव परिणामों के जरूरत से ज्यादा अर्थ नहीं निकाले जाने चाहिए क्योंकि कुल मिलाकर ये एक शहर की मानसिकता को और पार्टी की मिस मनैजमैंट को इंगित करते हैं। इसे प्रतिनिधि रूप नहीं स्वीकारना चाहिए।

 

भाजपा के लिए यह भी तसल्ली की बात है कि छत्‍तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में उसे जनजातीय क्षेत्रों में आशातीत सफलता मिली है। जनजातीय क्षेत्र ही ऐसे हैं जिस पर चर्च सबसे ज्यादा दावा करता है और भाजपा को जनजातीय क्षेत्रों का शत्रु बताता है। जनजातीय क्षेत्रों में भाजपा की जीत से स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती के हत्यारों की ऑखे खुल जानी चाहिए। चर्च जनजातीय समाज को धनबल और बंदूक बल के जोर पर बंधक बनाना चाहता है। छतीसगढ़ के जनजातीय समाज ने भाजपा को जिताकर चर्च के इस षडयंत्र का भी पर्दाफाश कर दिया है। भाजपा की इस जीत से एक और संकेत भी मिलता है कि नेतृत्व यदि ईमानदार और आम आदमी से जुड़ा हुआ होगा तो जनता उसकी कदर भी करती है और उसे दोबारा सत्ता में बैठाती भी है। मध्यप्रदेश और छतीसगढ़ में भाजपा की विजय में शिवराज सिंह चौहान और डा0 रमण सिंह का सहज सरल व्यक्तित्व और आम आदमी से जुड़े होने की क्षमता की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। हिमाचल प्रदेश के चुनावों में प्रो0 प्रेम कुमार धूमल के व्यक्तित्व ने भी इसी प्रकार की भूमिका निभाई थी।

 

इन चुनाव परिणामों की सबसे आश्चर्यजनक बात यह कही जा सकती है कि आम भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करने का दंभ पालने वाला साम्यवादी टोला इन पॉचों राज्यों में कहीं दूर दूर तक दिखाई नहीं देता। वैसे वे तर्क दे सकते हैं कि दास कैपिटल के शिष्यों को बेलट पर नहीं बुलेट पर विश्वास है क्योंकि माओ कह गये थे सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। आखिर नक्सलबादी माओवादी साम्यवादी टोले के वैचारिक सहोदर ही तो हैं। परन्तु इसे सीताराम येचुरी और प्रकाश करात का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि छतीसगढ़ के नक्सलवादी क्षेत्रों में लोगों ने भाजपा को जिता दिया है। यह साम्यवादी राजनीति का भीतरी खोखलापन भी जाहिर करती है।

लेखक- डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

(नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार)