महाराणा सांगा के मायने

वीरेंद्र सिंह परिहार

महाराणा सांगा में दृढ़ निश्चय, सैन्य कुशलता और उच्चकोटि की नेतृत्व क्षमता थी, जो किसी अन्य राजा में नहीं मिलती । राणा ने अज्ञातवास तक भोगा था पर वह मेवाड़ के सर्वश्रेष्ठ राज्य पुरूषों में से एक बनकर उभरे। सांगा के समय में मेवाड़ की सेनाओं की मालवा और दिल्ली की सेनाओं से 18 बार मुठभेड़ हुई. उनमें दो तो सांगा और इब्राहीम लोधी की सेनाओं के बीच बकरोल और खतौली में आमने-सामने हुई थी। खतौली में लोधी की सेना को बुरी तरह मारा-काटा गया और उसके पुत्र को बंदी बना लिया गया। इसी युद्ध में सांगा ने एक हाँथ और पैर गवाँ दिया। सांगा ने गागरौन के युद्ध में मालवा के शासक महमूद खिलजी एवं गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर की संयुक्त सेनाओं को पराजित किया। सांगा ने अभेद्य रणथम्भौर के दुर्ग को भी विजय कर उसका खोया वैभव पुनः लौटाया। सांगा ने अपनी विजय यात्राओं में दो बार अफगानिस्तान में स्थित गजनी पर भी विजय पाई थी।

कुछ इतिहासकारों द्वारा एक तथ्यहीन असत्य प्रचारित किया जाता है कि बाबर को सांगा ने पत्र लिख कर इब्राहीम लोधी को पराजित करने हेतु आमंत्रित किया। यह बात न केवल अतार्किक बल्कि हास्यास्पद है। दो बार इब्राहीम लोधी को धूल चटाने वाले सांगा एक विदेशी विधर्मी को क्यों आमंत्रित करते। हिन्दू मुस्लिम एकता की झूठी पींगे बजाने वाले इतिहासकारों ने इस झूठ का निर्माण किया। इतिहासकार आर.सी. मजुमदार लिखते हैं कि वास्तव में यह पत्र गुजरात के मुजफ्फर शाह ने सांगा को पराजित करने हेतु बाबर को लिखा था। ड्रगरपुर के महाराजा द्वारा यह पत्रवाहक पकड़कर सांगा के सन्मुख लाया भी गया था। वंश भास्कर में सूरजमल ने लिखा है यह पत्र मुल्तान के दौलत खाँ द्वारा लिखा गया था। तो भी यह निश्चित है कि सांगा ने बाबर को कोई पत्र नहीं लिखा।

फरवरी 1527 में सांगा और बाबर की सेनाओं का सामना राजस्थान के उत्तर-पूर्व छोर पर स्थित बयाना के दुर्ग में हुआ था। सांगा की लगभग दो लाख योद्धाओं से सुसज्जित सेना ने बाबर की सेना को खदेड़ दिया और बाबर को प्राण बचाकर भागना पड़ा। कई इतिहासकार बयाना की विजय के बाद सांगा का बाबर का पीछा कर उसे समाप्त न करना एक बड़ी सामरिक भूल मानते हैं। बयाना से भागे एक मुगल सेनापति संसू बरलास ने बाबर से कहा- ‘‘राजपूतो का साहस अतुलनीय है। वे मृत्यु के देवता अजरैल के अबतार हैं। हमारी तरह वे युद्ध से भागते नहीं। बाबर के योद्धा उसे काबुल लौट चलने को कहने लगे। बाबर स्वयं बाबरनामा में लिखता है- अपने योद्धाओं से एक भी पौरुष का शब्द अथवा वीरता का परामर्श नहीं सुनाई दिया।’’

16 मई 1927 को खानवा में हुये युद्ध में सांगा की सेना को मुगलों की प्राणघातक तोपो और आग्नेयअस्त्रों से पहली बार सामना हुआ। सांगा के हजारों सैनिक मारे गये और उनके हांथी तथा घोड़े अपनी सेना को रौंदते पीछे की ओर दौड़ पड़े, तब राजपूतों ने इन तोपो का उत्तर देते हुये अद्भुत युक्ति निकाली- राजपूत सौनिकों ने आगे बढ़कर इन तोपो में अपने सिर फंसा दिये और उनके रक्त-मांस से तोपे व्यर्थ हो गईं। भीषण वाण वर्षा तो एक तीर सांगा के मस्तक में लगा और वह मूर्छित हो गये।

बड़ा सवाल यह कि यदि खानवा का युद्ध हिन्दुओं की पराजय पर समाप्त हुआ तो बाबर ने सांगा की हत्या अथवा पकड़ा क्यों नहीं ? खानवा के बाद सांगा एक वर्ष तक जीवित रहे और उसी भू भाग में अपनी सेना के साथ पर बाबर उनकी हत्या नहीं कर पाया। बाबरनामा में भी खानवा को प्रत्यासामुक्त विजय नहीं बताया गया। युद्ध के बाद हुमायु को काबुल भेज दिया गया। सांगा की मृत्यु पर एक शब्द भी अपनी जीवनी में बाबर ने नहीं लिखा। खानवा के युद्ध क्षेत्र में हिन्दू स्थापत्य शैली की एक दर्जन छतरियाँ आज भी मौजूद हैं. ये इस बात का प्रमाण है कि खानवा का युद्ध निर्णायक नहीं था। यदि विष देकर राणा सांगा की हत्या न की गई होती तो शायद देश का इतिहास कुछ और होता।

जहाँ तक रामजी लाल सुमन जैसे समाजवादी पार्टी के लोगो को महाराणा सांगा को गद्दार कहने का सवाल है, उसके पीछे मात्र अपने वोट बैंक को खुश करने की नीयत है। जब लालू यादव जैसे लोग कुम्भ को फालतू बताते हैं या अखिलेश यादव जैसे नेताओं को गौशालाओं से दुर्गंध आती है, तो इसका एक ही अर्थ होता है कि सनातन और भारतीय संस्कृति को कैसे नीचा दिखाया जावे। चूँकि अब इतिहास की इतनी परतें  खुल गई है कि वह बाबर एवं औरंगजेब को महान नहीं कह सकते। इसीलिये वह भारत माता के महान सपूतों को गाली देकर ही अपने वोट बैंक को साधने का उपक्रम करते रहते हैं। भारतीय इतिहास को तोड़-मरोड़ कर लिखे जाने के लिये भी यही तत्व जवाबदेह हैं।

वीरेंद्र सिंह परिहार

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