धर्म-अध्यात्म

सिख गुरु परम्परा व मुगल वंश के संघर्ष में श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत

डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

मध्यकालीन भारतीय दशगुरु परम्परा के पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव का जन्म 15 अप्रैल, 1563 ई. को हुआ। प्रथम सितंबर, 1781 को अठारह वर्ष की आयु में वे गुरु गद्दी पर विराजित हुए। 30 मई, 1606 को उन्होंने धर्म व सत्य की रक्षा के लिए 43 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति दे दी। श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत के समय दिल्ली में मध्य एशिया के मुगल वंश के जहांगीर का राज था और उन्हें राजकीय कोप का ही शिकार होना पड़ा। जहांगीर ने श्री गुरु अर्जुनदेव जी को मरवाने से पहले उन्हें अमानवीय यातानाएं दी। मसलन चार दिन तक भूखा रखा गया। ज्येष्ठ मास की तपती दोपहरियां में उन्हें तपते रेत पर बिठाया गया। उसके बाद खोलते पानी में रखा गया। परन्तु श्री गुरु अर्जुनदेव जी ने एक बार भी उपफ तक नहीं की और इसे परमात्मा का विधन मानकर स्वीकार किया।

परन्तु प्रश्न उठता है कि उस समय के शासक जहांगीर ने ऐसा क्यों किया? राजदरबार में पैठ रखने वाले तो इसके कई कारण सामान्य जन में फैलाने के प्रयास किये। सबसे पहले तो यही कारण दिया कि गुरु गददी को लेकर भाईयों में झगड़ा था। श्री गुरु अर्जुनदेव जी को नुकसान पहुंचाते थे। इसलिए वे उन्हें मरवाने के षड्यंत्रों में भागीदार बन गए। दूसरी कहानी चन्दू की प्रचलित की गई है। चन्दू जहांगीर के दरबार का कोई अदना सा कर्मचारी था। श्री गुरुजी ने उसकी बेटी से अपने पुत्र का विवाह करने से इन्कार कर दिया। इसको उसने अपना अपमान समझा और उन्हें नीचा दिखाने के षड्यंत्रों में वह भी भागीदार हो गया।

लेकिन ये दोनों साक्ष्य लगभग चार सौ साल पूर्व घटित इस दुखान्त के प्राथमिक साक्ष्य नहीं है। इनकी महत्ता दोयम दर्जे की है। श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत के कारणों का सबसे महत्वपूर्ण साक्ष्य स्वयं जहांगीर को दिया हुआ है। ‘तुजके जहांगीरी’ जहांगीर की आत्माकथा है। अपने पूर्वज बाबर जिसने भारत में मुगलवंश की स्थापना की थी। आत्मकथा बाबरनामा की तर्ज पर ही ‘तुजके जहांगीरी’ का मध्यकालीन इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। ‘तुजके जहांगीरी’ का अब अंग्रेजों के अतिरिक्त अन्य अनेक भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका है। मध्यकालीन भारतीय दशगुरु परम्परा को लेकर जहांगीर को मनोभाव हम आत्मकथा में स्थान परिलक्षित होता है। वह केवल पांचवे गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी का ही विरोध नहीं कर रहा था, बल्कि वह इस पूरी परम्परा को ही प्रवास कर देना चाहता था। यह भी अजीब संयोग मानना होगा कि इस परम्परा के प्रथम गुरु श्री नानकदेव जी ने मुगल वंश के संस्थापक और प्रथम बादशाह बाबर पर चोट करते हुए कहा था। खुरासान खसमाना किया। बाबर तो श्री गुरुजी की कारागार में भी रखा था। लेकिन श्री गुरु नानकदेव जी तो पूरे देश में घूम-घूम कर हताश हुई जाति में नई प्राण चेतना पफूंक दी।

श्री गुरु अर्जुनदेव जी इस परम्परा के पांचवे गुरु थे और उधर जहांगीर मुगल वंश का जा नाशीन थे। यहां तक आते-आते श्री नानक जैसे सन्तों द्वारा जागृत चेतना पुष्ट हो चुकी थी। जहांगीर ने उसी को चुनौती दी थी। ‘तुजके जहांगीरी’ में जहांगीर अपनी इस मानवता को व्यक्त कर रहा है-गोईंदवाल में व्यास नदी के किनारे एक हिन्दू अर्जुन संत के भेष में रहता है। हिन्दू भी उसके शिष्य बन रहे हैं और कुछ मुसलमान भी मूर्खता के कारण उसके पास जा रहे हैं। श्री गुरु अर्जुनदेव जी धर्मिक होने और दुनिया का नेतृत्व करने का पाखंड करता था। दुर्भाग्य से मूर्ख और मंद बुध्दि लोग दूर-दूर से उनकी और आकर्षित हो रहे थे। वे उसे गुरु मानते थे और उस पर पूर्ण निष्ठा जताते थे। जहांगीर का असली कष्ट यही है। मुगल वंश अपने आपको हिन्दु समाज का बादशाह मानता है, लेकिन हिन्दु समाज के लोग तो गुरु अर्जुनदेव जो ‘सच्चा बादशाह’ कह रहे है। लेकिन जहांगीर का असली दर्द तो इसके बाद का है। वह दर्द केवल श्री गुरु अर्जुनदेव के प्रति नहीं, बल्कि इस मध्यकालीन भारतीय दशगुरु परम्परा के प्रति ही है। वह आगे लिखता है-”तीन चार पीढ़ियों में उसने अपनी इस झूठ की दुकान को गर्म कर रखा है।” इसे अजीब संयोग कहा जाए तो मुगल वंश के भारत में पैर पसारते ही शायद ईश्वरीय इच्छा से इस भारतीय सिख गुरु परम्परा का जन्म हो गया। आगे जहांगीर इस सिख गुरु परम्परा से निपटने की अपनी इस योजना का खुलासा करता है। उसके अनुसार ‘लम्बे समय से मैं सोच रहा था कि इनके इस धंधे को सदा के लिए खत्म कर देना चाहिए या फिर इसको इस्लाम में अन्दर लाना चाहिए।’

जहांगीर द्वारा श्री गुरु अर्जुनदेव जी को दिए गए अमानवीय अत्याचार और अन्त में उसकी मृत्यु जहांगीर की इसी योजना का हिस्सा था। श्री गुरु अर्जुनदेव जी जहांगीर की असली योजना के अनुसार ‘इस्लाम के अन्दर’ तो क्या आते, इसलिए उन्होंने विरोचित शहादत के मार्ग का चयन किया। इधर जहांगीर की आगे की तीसरी पीढ़ी या फिर मुगल वंश के बाबर की छठी पीढ़ी औरंगजेब तक पहुंची। उधर श्री गुरुनानकदेव जी की दसवीं पीढ़ी थी। श्री गुरु गोविन्द सिंह तक पहुंची। यहां तक पहुंचते-पहुंचते ही श्री नानकदेव की दसवीं पीढ़ी ने मुगलवंश की नींव में डायनामाईट रख दिया और उसके नाश का इतिहास लिख दिया। संसार जानता है कि मुट्ठी भर मरजीवड़े सिंघ रूपी खालसा ने 700 साल पुराने विदेशी वंशजों को मुगल राज सहित सदा के लिए ठंडा कर दिया। 100 वर्ष बाद महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में भारत ने पुनः स्वतंत्राता की सांस ली। शेष तो कल का इतिहास है, लेकिन इस पूरे संघर्षकाल में पंचम गुरु श्री गुरु अर्जुनदेव जी की शहादत सदा सर्वदा सूर्य के ताप की तरह प्रखर रहेगी।