दशरथ का श्राद्ध करने पर नहीं दी गवाही-सीता ने दिया श्राप

आत्‍माराम यादव पीव

       चित्रकूट में भरत श्री राम को राज्य सौंपने पहुचते है जहां राम भरत से अयोध्या का राज्य स्वीकार कर भरत की भावनाओं का सम्मान करते है किन्तु वे अपने पिता की आज्ञा का उल्लंघन न हो इसलिये भरत को 14 साल के वनवास पूरे होने तक अपने राज्य की जिम्मेदारी का निर्वहन करने का दायित्व सौंपते है। राम को अपने पिता के स्वर्गवासी हो जाने का समाचार चित्रकूट में मिलता है जिससे वे अपने पिता के कल्याण के विषय में चिंतन करते है। वनवास काल में विचरण करते हुये वे फल्गु नदी के तट पर ठहरते है तब पितरों के श्राद्ध काल का समय होता है। राम अपनी इच्छा  लक्ष्मण को व्यक्त कर श्राद्ध सामग्री लाने भेजते है किन्तु लक्ष्मण काफी समय तक लौटकर नहीं आता तब स्वयं श्रीराम खुद श्राद्ध का सामान लेने चल पड़ते है।

         राम-लक्ष्मण के जाने के बाद फाल्गु नदी के तट पर सीता उनके लौटने की प्रतीक्षा में बैठी होती है तब दोपहर निकल चुकने के पश्चात उन्हें श्राद्ध का समय निकलता प्रतीत जान पड़ने पर वे गहरी चिंता और अवसाद में आ जाती है। सीता विचार करती है कि अगर श्राद्ध का मुर्हुत निकल जायेगा तो पितरों को अशांति में भटकना होगा। वे स्वयं श्राद्ध की तैयारी करती है और जो कुछ सामग्री उनके पास रहती है उसे मिलाकर सीता जी पिण्डदान करती है। जैसे ही सीता जी पिण्डदान देती है एक चमत्कार हो उठता है और सुन्दर से हाथ प्रगठ होकर उस पिण्डदान को स्वीकार करते है। उसी समय आकाशवाणी होती है कि हे सीते तुम्हारा किया गया पिण्डदान हमें प्राप्त हो गया है और हम इससे बड़े संतुष्ट है, तुम्हें पाकर हम धन्य है। सीता आकाशवाणी पर प्रश्न करती  है कि आप कौन? जो मेरे पिण्डदान को प्राप्त कर संतुष्ट है। तब दूसरी ओर से आकाशवाणी से जवाब आता है कि हम तुम्हारे श्वसुर दशरथ है। सीता अचंभित होती है कि फल्गु की रेत से बने पिण्ड में नाममात्र की पूजन सामग्री से उनके श्वसुर दशरथ जी की आत्मा तृप्त हो गयी। सीता कहती है कि पिताजी मैं आपको देख नहीं पायी और मेरे पति राम और देवर लक्ष्मण को कैसे विश्वास दिला सकू कि आपकी अनुपस्थिति में मेरे द्वारा किये गये पिण्डदान से आप तृप्त हो चुके है। आकाशवाणी कहती है कि तुम फल्गु नदी जिसकी रेत से पिंडदान बनाया है, केतकी का पुष्प जो तुमने पिण्ड के साथ अर्पित किया है, हवन हेतु प्रज्वलित अग्नि और गाय जो पिंडदान के समय मौजूद है उनसे साक्षी दिलवा कर अपने पति और देवर को विश्वास दिला सकती हो।

     कुछ समय पश्चात राम और लक्ष्मण थके-मादे आते है और सीता से कहते है कि भोजन का समय हो चला है तुमने भोजन तैयार कर लिया होगा, भोजन से पहले हम पिता जी को श्राद्ध कर उन्हें पिण्डदान कर दे फिर भोजन ग्रहण करेंगे। सीता जी राम की बात सुनकर मौन रहती है,तब राम ही पूछते है क्या हुआ जो मेरी बात सुनने के बाद तुमने उत्तर नहीं दिया। सीताजी ने रामजी को पिण्डदान की पूरी बातें बता दी जिसे सुनकर राम-लक्ष्मण को गहरा आश्चर्य हुआ और उन्होंने सीता को कहा कि तुमने बिना किसी शास्त्र विधि के पिंडदान किया और पिताजी की आत्मा ने अपने हाथों में उसे ग्रहण किया,यह अनहोनी है,जबकि जो लोग पूर्ण श्रद्धा से शास्त्रोक्त  विधि से श्राद्ध करते है उन्हें अपने पितर दर्शन नहीं देते तो तुम्हें कैसे देंगे, हमें तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं है,कहीं तुम हमारे साथ परिहास तो नहीं कर रही हो, या झूठ बोल रही हो?

राम की बातें सुनकर सीता जी लज्जित हुई और उन्होंने राम से कहा कि नहीं मैं जो कह रही हॅू वह सत्य है और इसके लिये सीता जी साक्ष्य के लिये फल्गु नहीं, केतकी पुष्प, अग्नि देव, गौमाता से इसकी पुष्टि करने के लिये कहा। राम ने सीता से कहा, अच्छा अगर ये तुम्हारी बातों को सत्य बतलावे तो हम उसे मानने को तैयार है। भगवान राम ने चारों से इस बात को बतलाने का कहा लेकिन वे चारों ने कहा कि हम कुछ नहीं जानते है। उनके इस प्रकार झूठ बोलने पर सीता जी को घोर आश्चर्य हुआ, लज्जा के कारण उनका सिर झुक गया गया और मुह से आवाज नहीं निकली। तब रामचंद्र ने सीता की बात पर विश्वास न कर, उनकी बात को झूठा मानते हुये श्राद्ध करने बैठे और अपने पिता का आव्हान किया। तब आकाशवाणी हुई कि बेटा मुझ किसलिये बुला रहे हो, बहु सीता ने हमें पिण्डदान दे दिया है जिससे हम संतुष्ट है। राम ने आकाशवाणी की बात को मानने से इनकार करते हुए श्राद्ध कर पिंडदान करने की पूजा जारी रखी तब सूर्य देव ने कहा, आप अपने पिता की बात को क्यों नहीं मानते हो? सीता ने श्राद्ध कर दिया है जिसके हम साक्षी है। अब सूर्य की बात को राम ने मान ली ओर उनके मन का संदेह दूर हो गया कि उनके पिता जी को सीता ने सच में पिण्डदान किया है जिससे वे संतुष्ट हो गये। तब राम ने सीता से प्रसन्न होकर कहा कि हे सीते तुम विजयी हुई हो। हे सीते तुम धन्य हो और हमारा कुल भी धन्य है जिसमें तुम्हारे जैसी बहु आयी। यह सुनकर सीता के मुख की मलिनता दूर हो गयी और चेहरे पर खुशी झलकने लगी।

सीता के मन में गहरे तक फल्गु नदी, केतकी पुष्प, गाय और अग्नि द्वारा सत्य के प्रति सच न कहने का दुख पहुचा। पूरे घटनाक्रम पर इन चारों साक्षियों के प्रति सीता को क्रोध हुआ और उन्होंने चारों को श्राप दे दिया। उन्होंने फल्गु नदी से कहा कि तुमने सब कुछ देख कर भी झूठा कहा इसलिए अब तुम्हारी धारा ऊपर न बहकर बालू के अंदर रहेगी। केतकी के पुष्प को श्राप दिया कि तुम अब शिव पर नहीं चढ़ेगा। गाय को कहा कि अब तक तुम्हारा मुह पवित्र समझा जाता था किन्तु आज के बाद अब तुम विष्ठा ग्रहण करके तुम्हारा मुह अपवित्र हो जायेगा। सीता ने अग्नि को श्राप दिया कि तुम देवता होकर झूठ बोले इससे आज से सर्वभक्षी हो जाओ , अर्थात सब कुछ खाने वाले बन जाओ। यह सीता के श्राप का ही परिणाम है कि फाल्गू की धार रेत ही बहती है, केतकी का पुष्प शिव पर नहीं चढ़ता और  आग में जो भी डाले वह जल जाता है तथा गाय का अगला हिस्सा मुह से विष्ठा खाने से अपवित्र समझा जाता है जबकि गाय का पिछला हिस्सा शुद्ध माना जाता है। 

आत्‍माराम यादव पीव

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