भुला बैठे हैं स्वाधीनता का स्वाद

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भुला बैठे हैं स्वाधीनता का स्वाद

दासता के नवाचार हो रहे हावी

डॉ. दीपक आचार्य

जिस ज़ज़्बे के साथ स्वाधीनता पाने के लिए हमारे पुरखों ने संघर्ष और बलिदान का इतिहास कायम किया है वह ज़ज़्बा स्वाधीन होने के बाद एक तरह से खत्म सा होता जा रहा है। स्वाधीनता का स्वाद अब फीका पड़ने लगा है और जिस महान लक्ष्य को लेकर भारत ने स्वाधीनता पायी थी वह लक्ष्य भी सम-सामयिक पसरी हुई धुँध में कहीं खो चुका है।

जिन लोगों ने अपना सर्वस्व गँवाकर हमें आजादी का प्रसाद दिया था वे आज भी यदि जिन्दा होते तो आज का माहौल देखकर इतने व्यथित हो जाते कि आत्महत्या कर लेते। कारण यह कि आजादी को पा लेना जितना कठिन और असाध्य है, आजादी को निभा पाना और स्वाधीनता के मायने समझते हुए आगे बढ़ना उससे भी कहीं अधिक कठिनाइयों और चुनौतियों भरा है।

स्वाधीनता के बाद व्यवस्थाओं ने जिस हिसाब से करवट ली है और कई नवीन प्रयोग हमारे देश में हुए हैं उन्होंने देश के परंपरागत ढांचे को बदलकर रख दिया है। निरन्तर प्रौढ़ता पाने के बावजूद हमारे प्रयोग अभी परिपक्व नहीं हो पाए हैं और शैशवी अपरिपक्वता में फंसे हुए हैं।

आजादी पाने के साथ ही यह भावना बलवती होने लगी थी कि भारतीय इतिहास, संस्कृति, सामाजिक स्थितियां, परिवेशीय समृद्धि और बहुआयामी परिस्थितियों में सकारात्मक और उत्तरोत्तर विकास के नवीन दौर आरंभ होंगे और पुरातन सभ्यता एवं संस्कृति का संरक्षण तथा विकास होगा। लेकिन पिछले वर्षों में हम अपनी जड़ों को कितना सींच पाए हैं या जड़ों से कितनी सीमा तक जुड़े हुए रह पाए हैं, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है।

आजादी पाने तक हमारा राष्ट्र के प्रति जो जज्बा और समर्पण था उसकी तुलना में आज की हमारी मानसिकता में भारी अंतर आ चुका है या यों कहें कि राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रीय चरित्र का इतना ह्रास होता चला गया है कि हम राष्ट्र को भुला बैठे हैं और हमारे अपने स्वार्थ और उदरपूत्रि्त ही मुख्य हो चले हैं, देश गौण।

हमने अपने पुरातन इतिहास, संस्कृति, साहित्य और परम्पराओं से किनारा कर लिया है। इसी प्रकार उन सभी आदर्शों, मूल्यों और संवेदनाओं को भुला दिया है जो कभी हमारी बुनियाद थे।

एक जमाना वह था जब हम अपने पूर्वजों के शौर्य-पराक्रम से प्रेरणा पाकर हमारे अपने व्यक्तित्व में सुगंध भरते थे। आज हमारा अपना शौर्य-पराक्रम कहीं खो गया है और हम दूसरों के पराक्रम और दया-कृपा की छाया का सुख पाकर फल-फूल रहे हैं और इठलाने में ही अपना गौरव मान बैठे हैं।

स्वाधीनता पा लेने के बाद भी हमारे भीतर का दासत्व अभी पूरी तरह मर नहीं पाया है बल्कि आज भी हमें किसी की गुलामी करते हुए प्रसन्नता का अनुभव होता है। आजकल हमारे काफी भाई-बंधु अपने स्वार्थों के लिए इसी तरह की गुलामी को जीवन का लक्ष्य मान बैठे हैं। ऎसे लोग हमारे इलाकों में भी खूब हैं जो परायी ताकत के बूते चमड़े के सिक्के चला रहे हैं।

जिस भारतीयता के संरक्षण-संवद्र्धन और आमजन की स्वतंत्रता को लेकर भारतीय स्वाधीनता का इतिहास कायम हुआ और हमें आजादी मिली, वह आज कहीं देखने में नहीं आती। ‘इण्डिया देट इज भारत’ की अवधारणाओं पर चलकर हम आज ऎसे-ऎसे चौराहों पर आ खडे़ हुए हैं जहाँ से हमें कहाँ जाना है, यह न हमें पता है, न उन लोगों को जिनके जिम्मे हम ठहरे हुए हैं।

स्वाधीनता धीरे-धीरे स्वच्छन्दता में बदलती चली गई और उसी से शुरू हुआ उन्मुक्त और अनुशासनहीन जीवनधाराओं का युग, जिसे हम कभी पाश्चात्यों से प्रेरित कहते हैं कभी आधुनिकता और कभी वैश्वीकरण एवं उदारवाद।

सच तो यह है कि हमारी भारतीय संस्कृति की सनातन परम्पराओं और राष्ट्रवृक्ष की जड़ों से कटते हुए हम नई भुलभुलैया में चक्कर काटने लगे हैं। हम नए-नए प्रयोग आजमाते हैं और आगे बढ़ने का दावा या वादा करते हैं, मगर फिर-फिर कर वहीं आ मिलते हैं जहाँ से हमने अपनी यात्राओं की शुरूआत की थी।

भ्रमोंं और शंकाओं-आशंकाओं तथा आशाओं के भंवरों के बीच डोलते हुए हम आज भी थाह नहीं पा सके हैं बल्कि इस भटकन ने हमें इतना किंकत्र्तव्यविमूढ़ कर दिया है कि हम अपने भरोसे कुछ नहीं कर पा रहे हैं।

इन विवशताओं और हद दर्जे की नपुंसकता की वजह से हम हमारे छोटे-मोटे कामों तक के लिए कभी इधर-उधर नज़र दौड़ाते हैं, कभी सात समन्दर पार से निगाह पाने को उतावले रहते हैं तो कभी ऎसे-ऎसे समझौते करने लगते हैं जिनकी कभी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था।

आज हम जो कुछ देख-सुन रहे हैं वह भले ही वैयक्तिक, पारिवारिक और सामुदायिक रूप से उन्नतिकारक और अपने हक में लगे, पर देश के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती।

हम आज हमारे अपने दायरे में इतना सिमट कर रह गए हैं कि हमारी व्यापक और उदार दृष्टि, हमारे अपनों के लिए, अपने आस-पास के लोगों के लिए संवेदनाएं तक नहीं रही, न हमें अपने और अपने परिवार के सिवा कुछ दिखता है। हमारा पूरा कारोबार और दृष्टि स्व तक सिमट कर रह गई है। देश की छोटी-छोटी नागरिक इकाइयों के इसी सोच ने देश का कबाड़ा कर रखा है।

स्वाधीनता के इतने बरस बाद भी आज आम आदमी दिल से यह नहीं कह सकता कि वह स्वाधीन है। आजाद भारत में रहने वाले हमारे सीमाई इलाकों के लोग कितने त्रस्त और असुरक्षित हैं इसे वे लोग क्या समझेंगे जो दिन-रात सिक्योरिटी के घेरे में घिरे रहने के आदी हो गए हैं। असम की हिंसा किस ओर इशारा करती है? कश्मीर के पण्डितों की स्थिति क्या है? देश की सरदहों पर लगातार हलचलें क्यों बनी रहती हैं और हम सिर्फ वाग् विलास में उलझे हुए हैं।

आज कौन आजाद है। हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक-आध्यात्मिक परम्पराओं में हमारी कितनी भागीदारी रह पायी है। आज आम आदमी न आजादी से अपनी छुट्टियां मना सकता है, न अपनी भागीदारी निभा सकता है। अब दासता के नवाचारोंं ने समाज को जकड़ना आरंभ कर दिया है। यह जकड़ किसी अजगरी पाश से भी कहीं ज्यादा सख्त और निर्दयी है।

आज किसम-किसम के काले अंगर््रेज भारतीय परिवेश पर हावी हैं। इन्हें न देश से कोई लेना देना है न समाज की परंपराओं और सभ्यता-संस्कृति से। इन काले अंग्रेजों ने मैकाले चचा की वाह-वाह करते हुए देश को ऎसे मुकाम पर ला खड़ा कर दिया है कि अब लगता है महात्मा गांधी ने जिस राम राज्य की कल्पना की थी, उससे भी कहीं और आगे बढ़कर हम राम भरोसे राज्य की कल्पनाओं में जीने लगे हैं।

ऎसे में देश के लिए जिन लोगों बलिदान दिया, सब कुछ न्यौछावर कर शहीद हो गए और देश की आजादी और तरक्की के लिए अपने आपको समर्पित कर दिया, उनके अरमानों का क्या होगा? इस पर चिन्तन करने की जरूरत है।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम और इतिहास से प्रेरणा पाते हुए आज का दिन अपने आप की बजाय देश के प्रति चिन्तन और मनन करने और देश के लिए अपने आपको समर्पित करने की याद दिलाता है। व्यक्ति-व्यक्ति जब तक राष्ट्रीय चरित्र और राष्ट्र भक्ति के लिए जीवन निर्वाह का संकल्प नहीं लेगा, तब तक भारतवर्ष के उन्नयन की कल्पना व्यर्थ है।

योजनाओं से विकास के स्थूल आयामों को आकार मिलता है, जबकि विचारों और राष्ट्रीय चरित्र से देश मजबूत होता है। हमारे जीवन में राष्ट्र की अस्मिता, एकता और अखण्डता सर्वोच्च प्राथमिकता पर होनी चाहिए तभी हम और हमारा देश गौरव करने लायक स्थिति प्राप्त कर पाएंगे। जय हिन्द….।

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