सत्ता की सांप – सीढ़ी….!!

netaतारकेश कुमार ओझा
बचपन में कागज के गत्ते पर सांप – सीढ़ी का खेल खूब खेला। बड़ा रोमांचक और भाग्य पर निर्भर होता था यह खेल। घिसटते हुए आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन तभी नसीब की सीढ़ी मिल गई और पहुंच गए शिखर पर। वहीं लगा बस अब मंजिल पर पहुंचने ही वाले है, तभी पांव सांप पर फिसला और धड़ाम से नीचे। तब सोचा भी नहीं था कि बड़े होकर यही खेल राजनीति में देखने को मिलेगा। सत्ता की सांप – सीढ़ी तो पल में नायक को खलनायक तो खलनायक को नायक बनाने का दम रखती है। याद कीजिए राजग का वह सुनहरा फील गुड का दौर। लगा कांग्रेस की अब विदाई होने ही वाली है। लेकिन 2004 में अचानक काल चक्र घूमा और बन गई यूपीए की सरकार और सोनिया गांधी बन गई दुनिया की सबसे ताकतवर महिला। 2009 में भी यही हुआ। अपने शिखर पुरुष लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने के बावजूद भाजपा सत्ता से दूर रही। वहीं सत्ता विरोधी लहर की तमाम आशंका के बावजूद यूपीए – 2 की सरकार फिर बन गई। 26- 11 के मुंबई हमले के बाद अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी जब कांग्रेस जीत गई और शीला दीक्षित लगातार तीसरी बार प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी तो उन्हें एकबारगी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर देखा जाना लगा। लेकिन 2014 में हुए अगले चुनाव में बेचारी की बुरी गत हो गई। अपनी पार्टी की जिताना तो दूर खुद चुनाव हार गई। 2014 में ही यूपीए को काल के सांप ने ऐसा काटा कि तमाम ताकतवर बेचारे बन कर रह गए, वहीं गुमनाम से हाशिये पर पड़े तमाम चेहरे अचानक सुर्खियों में छा गए। बिहार चुनाव परिणाम को ले आज लालू प्रसाद यादव की हर तरफ जय- जयकार हो रही है। वहीं 2014 के नायकों की खूब खिल्ली उड़ रही है। जबकि चारा घोटाले में जेल जाने के बाद लालू यादव का खेल – खत्म माना जा रहा था। लालू 90 के दशक में इसी मामले में जेल जाने के बाद भी ऐसे ही दौर से गुजरे थे। लेकिन जेल से निकलने के बाद वे राजनीति में और ताकतवर बन कर उभरे। 2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस ने अप्रत्याशित रूप से उत्तर प्रदेश में कई सीटें जीत ली, तो इसे नए – नए राजनीति में सक्रिय हुए राहुल गांधी के करिश्मे का परिणाम माना गया। लेकिन जल्द ही बेचारे राहुल को पप्पू का खिताब भी दे दिया गया। सत्ता की सांप – सीढ़ी में कब किसे सांप काट ले और कब किसे सीढ़ी मिल जाए , कहना मुश्किल है। लेकिन अपनी मोटी बुद्धि कहती है कि चुनावी राजनीति में जय – पराजय से ज्यादा महत्व किसी की हार में किसी की जीत का छिपा होना है। आम जनता या तो किसी से उम्मीद लगाती है या फिर नाराज होती है। जनता को जब किसी से उम्मीद बंधती है तो उसे सत्ता तक पहुंचा देती है। वहीं नाराज होने पर उसे धूल चटाने में भी देर नहीं करती। जनता की इसी उम्मीद और नाराजगी से किसी का भला हो जाता है तो किसी का बुरा। उत्तर प्रदेश में एक बार बसपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई तो जनता की इसी उम्मीद में कि मायवती के तेवर बदले हुए हैं, शायद यह यूपी की दीदी या अम्मा साबित हो। लेकिन निराश होने पर युवा इंजीनियर अखिलेश यादव पर मुहर लगा दी। बिहार का मामला भी शायद ऐसा ही है। यहां आशा से ज्यादा निराशा हावी नजर आती है। जिस बिहार ने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा पर उम्मीद से काफी अधिक भरोसा जताया। वहां की जनता को जब लगा कि डेढ़ साल के भीतर कुछ भी सकारात्मक बदलाव या इसकी उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है तो उसने भाजपा के खिलाफ मतदान कर दिया। जिसका लाभ लालू व नीतीश कुमार को मिल गया। पहले यह दिल्ली में भी हो चुका है। क्योंकि दिल्ली की जनता को भाजपा के स्थापित राजनेताओं से ज्यादा राजनीति में नए आए अरविंद केजरीवाल से उम्मीदें बंधती नजर आई। लिहाजा उन्हें सत्ता सौंप दी। इस परिस्थिति के मद्देनजर कहा जा सकता है कि सत्ता की सांप – सीढ़ी भविष्य में भी राजनेताओं व राजनैतिक दलों को छकाती रहेगी।

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