संस्कारहीनता ही है सब समस्याओं की जड़

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– डॉ. दीपक आचार्य

समाज में आज सब कुछ दिखाई देता है लेकिन जो नहीं दीख पा रहे हैं वे हैं- संस्कार हैं। इन्हीं की कमी से व्यक्ति व समुदाय से लेकर परिवेश और राष्ट्र तक में समस्याओं, कुटिलताओं, विदु्रपताओं और क्षुद्र ऐषणाओं के कई-कई मोहपाश अपना शिकंजा कसते जा रहे हैं।

संस्कारहीनता ही वह एकमात्र कारण है जिसने मनुष्य के उत्साह, ओज, संवेदना और स्वस्थ विकास की ललक को कहीं पीछे छोड़ कर आदमी को भोग-विलासिता का यंत्र बना दिया है।

मनुष्य के जन्म लेने से पूर्व के संस्कारों का निर्वाह नहीं हो पा रहा है वहीं जन्म लेने के बाद के सोलह संस्कारों की विधियाँ पूर्ण नहीं हो पा रही हैं ऐसे में संस्कारों के सम्बलन की बात बेमानी है। यही कारण है कि समाज में संस्कारहीनता का ताण्डव मचा हुआ है।

पुराने जमाने में ऐसा नहीं था। जौ वैदिक और पौराणिक या स्वधर्मी परम्पराएं थीं उनका पूरा परिपालन होता था। उन दिनों मात्र भीड़ बनाने के लिए संतति का उत्पादन नहीं होता था बल्कि परिवार, समाज और देश का गौरव बढ़ाने और कुल परम्पराओं की रक्षा करते हुए समूचे कुटुम्ब का यशस्वी इतिहास रचने वाली संतति के निर्माण के लिए सारे जतन किए जाते थे। समाज का अपना अनुशासन था जिस पर चलते हुए व्यक्ति मर्यादाओं की परिधियों में रहकर उच्चतम शिखरों का स्पर्श करता था।

क्षेत्र और समाज के लिए जीने की परम्परा का खात्मा होता जा रहा है और व्यक्ति अपने आपको परिवार की संकीर्ण परिधियों तक सिमट कर सारी दुनिया को पा लेना चाहता है।

शिक्षा और विकास के साथ मनुष्य की उन्नति के तमाम भौतिक संसाधनों के बावजूद यह दुर्भाग्यजनक स्थिति हमारे सामने है। तरक्की के फूलों की फुलवारियाँ तो खूब उग आयी हैं लेकिन इनमें गंध का अभाव है। जिन फूलों में गंध नहीं होती वे दूर से सुन्दर दिखते हैं। यही सब कुछ हमारे समाज की स्थिति है। लोगों की भीड़ बेतहाशा बढ़ती जा रही है लेकिन मनुष्यता की गंध गायब है।

मनुष्य होने भर का सिर्फ स्वाँग ही रचा जा रहा है हर तरफ। अपने आपको मनुष्य बताने की गरज से कहीं कोई खिज़ाब लगा रहा है तो कोई फेशियल और मसाज से खुद को अलग दर्शा रहा है। कोई सैंट और इत्र-फुलैल की गंध का छिड़काव करके थका जा रहा है। कई दूसरों की ताकत पर इंसानी खोल में फल-फूल रहे हैं।

लोग खूब पढ़-लिख जा रहे हैं, विकास में हमने सभी को पीछे छोड़ दिया है, तरक्की का तम्बूरा जयगान करने लगा है और भीड़ तंत्र रंग-बिरंगे चेहरों की नित नूतन परेड दिखा रहा है। लेकिन दूर-दूर तक कहीं मानवता नज़र नहीं आती।

एक-दूसरे को पछाड़ कर साम्राज्य और कुर्सी पर कब्जा जमाने का खेल चल रहा है, कोई किसी को लूट रहा है तो कोई रोज लुटा जा रहा है। धर्म और नैतिकता की सारी दीवारों ध्वस्त होती जा रही हैं, मानवीय मूल्यों का सैंसेक्स नीचे गिरता चला जा रहा है।

इंसानी पॉवर के बिना जो लोग पॉवर में हैं वे हमेशा वहीं बने रहने के आदी हो गए हैं, उनका पॉवर ब्रेक फेल हो चला है। और लोग पॉवरफुल होने के लिए दंगल में भिड़े हैं। कोई अधनंगा है तो कोई पूरा। एक अनार और हजारों बीमार के खेल में एक-दूसरे को मात देने के लिए वो सब कुछ किया जा रहा है जो नाजायज की श्रेणी में शुमार है।

किताबी ज्ञान में महारथ हासिल है लेकिन व्यवहारिक ज्ञान-शून्यता के मारे जीवन व्यवहार का गणित गड़बड़ा गया है। जो कुछ दिख रहा है और जो कुछ दिखाया जा रहा है उसमें सब कुछ होते हुए भी संस्कारों की आत्मा का अभाव होने से सब कुछ बेजान जैसा ही है।

आदमी पैसे कमाने की फैक्ट्री होकर रह गया है और उसका पूरा जीवन रोबोट की तरह यंत्रवत होता जा रहा है। मशीनी युग में हर कुछ यांत्रिक हो चला है। ऐसे में आदमी भी इससे अछूता नहीं है। संस्कारहीनता के साथ अनुशासन का ब्रेक भी इन दिनों गायब है। इसलिये जीवन की गाड़ी बिना ब्रेक के कहीं भी चली जाती है।

संस्कारों की कमी ही वह कारण हैं जिनकी वजह से परिवार और समाज के विघटन को बढ़ावा मिल रहा है, आदमी के लिए आदमी कभी सुरक्षा और सम्बल हुआ करता था। आज आदमी अपने स्वार्थों के लिए आदमी को काटने में रमा हुआ है। कोई किसी की जेब काट रहा है, कोई जमीन काट रहा है, कोई सम्बन्धों को तो कोई और कुछ……। संस्कार मनुष्य की आत्मा है और इसके बिना मनुष्य शव की तरह है।

संस्कार मात्र के बीजारोपण से समाज को तमाम संकीर्णताओं और विषमताओं से मुक्ति का अहसास कराया जा सकता है। समाज में संस्कारप्रधान जीवनी शक्ति का संचार वर्तमान पीढ़ी की सबसे बड़ी जरूरत है।

आज जहाँ कहीं भी छोटे-मोटे ईमानदार प्रयास हो रहे हैं उनसे आशा की जानी चाहिए कि समाज में नैतिक, आध्यात्मिक मूल्यों और संस्कारों की पुनर्स्थापना के प्रयासों को सम्बल प्राप्त होगा और संस्कार सरिता का लुप्त प्रवाह पुनः सजीव व वेगवान होगा।

 

5 COMMENTS

  1. हम सभी को इस कार्य को पूरा करने के लिए आत्मशक्ति को जगाना और उपयोग करना चाहिए, तभी आनेवाले पीढ़ी में परिवर्तन होगा । जय हिन्द…

  2. शत-प्रतिशत सही व अत्यंत मूल्यवान निष्कर्ष है. देश की सारी समस्याओं की जड़ संस्कार विहीनता ही है. इस बात को भारत के शत्रुओं ने गहराई से समझा था और कठोर कानून बना कर हमारे शिक्षा तंत्र को नष्ट कर दिया. देश के शत्रु अंग्रेजों द्वारा शुरू की गयी उसी प्रक्रिया को हमारे वर्तमान शासक आज विदेशी ताकतों के इशारे पर जारी रखे हुए हैं. इसे समझे बिना निस्तार नहीं. लेखक ने इस मौलिक विषय को कुशलता से उठाया है. विश्वास है की विचारशील पाठक इस पर ध्यान ही नहीं देंगे, औरों को भी इसे देखने, समझने के लिए प्रेरित करेंगे.

  3. आजकल संस्कारहीनता के महिमामंडन में मीडिया से लेकर फ़िल्मी जगत उतावला हो रहा है. आदर्श नेपथ्य में चले गए हैं. ऐसे में संस्कारहीनता का बोलबाला होना ही है.

  4. आपलोग संस्कार और संस्कार हीनता या संस्कार हनन की बात तो करते हैं,पर नई पीढी से किस संस्कार के अनुकरण की अपेक्षा करते हैं?.नई पीढी को उपदेश देने वाले तो बहुत हैं,पर .उन उपदेशकों में अधिकतर ऐसे हैं,जिनके स्वयं का दामन पाक नहीं है.कौन सा उदाहरण नई पीढी के पास है,जिसका अनुकरण वे करें?हर ऐसे आदमी से जिसको नई पीढी की संस्कार हीनता दिखती है,मेरा एक ही निवेदन है कि वे सर्व प्रथम अपने को नई पीढी के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करें,फिर नई पीढी में संस्कार हीनता की बात करें.

  5. नयी पीढ़ी तो संस्कार शब्द के मायने ही नहीं जानती.हिन्दू मान्यता के अनुसार संस्कारों का आरम्भ बच्चे के गर्भ काल से ही हो जाता है.पर आज वोह सब कहाँ है.न तो माता पिता उस अवधि में उन बैटन का पालन करते है, और न ही उनका इन बैटन में विश्वास है.
    विज्ञानं के युग में वे इस प्रकार के संस्कारों का नयी पीढ़ी तो संस्कार शब्द के मायने ही नहीं जानती.हिन्दू मान्यता के अनुसार संस्कारों का आरम्भ बच्चे के गर्भ काल से ही हो जाता है.पर आज वोह सब कहाँ है.न तो माता पिता उस अवधि में उन बैटन का पालन करते है, और न ही उनका इन बैटन में विश्वास है.
    विज्ञानं के युग में वे इस प्रकार के संस्कारों का जनम से पहले शुरू होना मानते ही नहीं.बिन संस्कारों के जनम लेने वाले बच्चे बाद में कहाँ से उन्हें ग्रहण करेंगे और बिन पूरण संस्कारों वाले माता पिता उन्हें क्या सिखा पायेंगे यह स्पष्ट ही है.

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