समाज सार्थक पहल

अति उपभोक्तावाद अस्वस्थता की ओर समाज

आज पूरा विश्व निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है और होना भी चाहिए। उपभोक्तावाद के ही कारण मनुष्य के जीवन में तमाम सुख-सुविधाओं का आगमन हुआ है। आधुनिक सुख-सुविधाओं के कारण मानव के आचार-विचार एवं व्यवहार में काफी परिवर्तन भी आया है। किसी न किसी रूप में समाज उस दिशा में भी अग्रसर होता जा रहा है, जो अपने देश की परिस्थितियों एवं जनमानस के मुताबिक बिल्कुल अनुकूल नहीं है। कहने का आशय यह है कि अति उपभोक्तावाद के वशीभूत होकर हम अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को काफी हद तक दरकिनार रखते हुए पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति को अख्तियार करते जा रहे हैं किंतु इसके क्या परिणाम एवं दुष्परिणाम होंगे? इस पर बहस शुरू हो चुकी है और उसके प्रभाव एवं दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं।
उपभोक्तावाद की जो अंधी दौड़ चल रही है, उसमें गौर करने वाली प्रमुख बात यह है कि क्या इस उपभोक्तावाद को हम संतुलित विकास की श्रेणी में ला पाने में कामयाब हो पा रहे हैं या कहीं कोई कमी तो नहीं आ रही है। वर्तमान परिस्थितियों में निष्पक्ष एवं ईमानदारी से विश्लेषण किया जाये तो देखने में आता है कि उपभोक्तावाद के माडल को संतुलित रूप देने में कामयाबी नहीं मिल पा रही है। कुल मिलाकर स्थिति ऐसी बनी हुई है कि जिसकी चल रही है वह अपनी चलाये जा रहा है।
आज जो बात सामने उभर कर सामने आई है उसके मुताबिक जिस तेजी से उपभोक्तावाद के नये-नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं उससे कहीं ज्यादा समाज अस्वस्थता की ओर भी अग्रसर हो रहा है। लोगों का जीवन एवं कार्य प्रणाली इस प्रकार बनती जा रही है कि मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक रूप से अस्वस्थ होता जा रहा है। जिस तीव्र गति से बीमारियां बढ़ रही हैं, उस हिसाब से बीमारियों के निवारण की व्यवस्था नहीं बन पा रही है यानी कि अति उपभोक्तावाद के साथ-साथ तमाम तरह की कमियां भी समाज में अपना डेरा जमाते जा रही हैं। इससे यही साबित होता है कि एक तरफ समाज सफलता यानी उपभोक्तावाद की तरफ अग्रसर हो रहा है तो दूसरी तरफ असफलता यानी स्वास्थ्य के मामले में काफी हद तक अस्वस्थता की तरफ बढ़ रहा है।
आखिर इसके क्या कारण हैं, इस बात पर आज सभी को विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है। इस पर विचार किया जाये तो शारीरिक अस्वस्थता का एक प्रमुख कारण हमारी जीवन शैली, रहन-सहन एवं खान-पान है। लोग अपने आप में इतने व्यस्त हैं कि समय से खाना, नाश्ता एवं सोना कम ही लोगों का हो पा रहा है। अनियमित दिनचर्या के कारण अनेक बीमारियों का उदय हो रहा है। खाने में जिस गति से फास्ट फूड को लोग अपना रहे हैं, उसी के मुताबिक बीमारियां भी बढ़ रही हैं। शहरी जीवन में शारीरिक श्रम की कमी के चलते शारीर अस्वस्थ हो रहा है। जो लोग भरपूर शरीरिक श्रम कर रहे हैं, कमोबेश अस्वस्थता के कम शिकार हैं। ऐसी परिस्थितियों में आवश्यकता इस बात की है कि शहरी जीवन में रहते हुए भी लोग यदि अपनी ग्रामीण सभ्यता, संस्कृति एवं जीवन शैली को अपनाएं तो शारीरिक अस्वस्थता से काफी हद तक बचा जा सकता है।
ग्रामीण जनजीवन में चारा काटने वाली मशीन चलाना, हल, फावड़ा व कुदाल चलाना, कुएं से पानी निकालना, हैंडपाइप चलाना, झाडू मारना आदि तमाम कार्यों से शरीर के सभी अंगों का संचालन होता रहता था, इससे शरीर हमेशा स्वस्थ एवं स्फूर्त बना रहता था। हरी एवं ताजी सब्जियां, शुद्ध पानी, शुद्ध हवा एवं स्वस्थ पर्यावरण के कारण हमारा ग्रामीण जीवन एक आदर्श जीवन था। हालांकि, ग्रामीण जनजीवन भी पूरी तरह पहले जैसा नहीं रह गया है। वहां भी अब काफी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। गांवों में भी अब अत्याधुनिक संसाधनों और उपभोक्तावाद संस्कृति के आने से लोग सुख-सुविधा से लैस होकर आराम-तलबी का जीवन जी रहे हैं।
यह बात अलग है कि जो लोग आर्थिक रूप से संपन्न नहीं हैं, उन्हें शहर एवं गांव दोनों जगह रोटी जुटाने के लिए काफी परिश्रम करना पड़ रहा है। शहरों में लोग अस्वस्थता को दूर करने के लिए जिम एवं पार्क जाने लगे हैं। शहरी जीवन में अब लोग ‘योग’ की तरफ तेजी से आकर्षित हो रहे हैं। प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी ने ‘योग’ को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने एवं उसका प्रचार-प्रसार करने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है।
संयुक्त राष्ट्र संघ में पहली बार 177 देशों ने ‘योग’ को मान्यता प्रदान की है। अब पूरी दुनिया में 21 जून को ‘योग दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। यह भारत के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। शायद यह पहला अवसर है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में किसी भी मामले को इतना व्यापक समर्थन मिला है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि हमारी पुरानी सभ्यता, संस्कृति एवं जीवन शैली में इतनी खूबियां हैं कि उसे अपनाकर अस्वस्थता को परास्त किया जा सकता है।
अस्वस्थता का एक प्रमुख कारण यह है कि जिस गति से औद्योगिक विकास हो रहा है उस गति से उपभोक्तावाद भी तेजी से बढ़ रहा है, उस गति से पर्यावरण को संतुलित करने के प्रयास नहीं हो रहे हैं। औद्योगिक इकाइयों से जो कचरा निकल रहा है, उसका अधिकांश हिस्सा किसी न किसी रूप में नदियों में जा रहा है इससे नदियों का पानी बहुत व्यापक स्तर पर प्रदूषित हो रहा है। विकास और
उपभोक्तावाद के साथ-साथ उसके दुष्प्रभावों को नियंत्रित करने पर यदि ध्यान दिया जाये तो निश्चित रूप से समाज को अस्वस्थता के रास्ते पर जाने से रोका जा सकता है। उद्योगों से निकलने वाला गंदा पानी जमीन के नीचे पानी के स्तर को भी जहरीला बना रहा है। इस पानी का उपयोग यदि कृषि कार्य में किया जाता है तो उससे कृषि से उत्पन्न होने वाले खाद्यान्न पर भी प्रभाव पड़ रहा है। सब्जियों एवं फलों को कृत्रिम तरीके से पकाने, बड़ा करने एवं रंगीन बनाने का प्रचलन अपने देश में तेजी से बढ़ा है, इससे भी शरीर में तमाम तरह के विकार पैदा हो रहे हैं।
इन बातों के अलावा यदि प्राकृतिक नियमों की तरफ ध्यान दिया जाये तो आसानी से यह समझा जा सकता है कि वास्तव में कमी कहां से हो रही है? उदाहरण के तौर पर यदि नदियों की दिशा बदली जायेगी तो क्या होगा? नदियों के पेटों में यदि होटल बनेंगे तो उसका दुष्परिणाम कभी न कभी सामने जरूर आयेगा। हाल-फिलहाल के वर्षों में देश की कई नदियों में भीषण बाढ़ से जिस प्रकार का तांडव देखने को मिला है, उससे तो यही सबक मिलता है कि प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा मानव समाज को भुगतना ही होगा।
अंधाधुंध तरीके से यदि पेड़ों की कटाई होगी तो सूखे का प्रकोप झेलना ही पड़ेगा। कहने का आशय यही है कि हमारे ऋषियों, मुनियों एवं मनीषियों ने जिस जीवन शैली का ईजाद एक लंबे शोध के बाद किया है, उस पर पुनः चलकर अस्वस्थता के दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है। मनुष्य यदि अपनी जिद पर अड़ा रहता है तो प्रकृति भी कभी-न-कभी अपना प्रचंड रूप दिखा ही देती है।
भारत के लोग जहां तेजी से यूरोपीय जीवन शैली के प्रति आकर्षित हो रहे हैं, वहीं यूरोपीय लोग भारत की जीवन शैली को तेजी से अपनाने के लिए अग्रसर हो रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ‘योग’ को इतने व्यापक स्तर पर स्वीकार करना इसी बात का प्रमाण है। आज हिन्दुस्तान में भी लोग एलोपैथिक दवाओं के बहुत ज्यादा प्रयोग करने से कतराने लगे हैं, क्योंकि लोगों को लगने लगा है कि जरूरत से अधिक अंग्रेजी दवाओं के सेवन से उसके दुष्प्रभाव भी सामने आते हैं। एलोपैथिक डॉक्टर भी लोगों को दवाओं के साथ-साथ दिनचर्या को नियमित करने की सलाह देते हैं। डॉक्टरों की ही सलाह पर तमाम लोग ‘मार्निंग वाक’ पर निकलने लगे हैं। फास्ट फूड का सेवन कम करने लगे हैं। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि ‘एलोपैथिक’ इलाज में भी अपनी प्राचीन जीवन शैली एवं रहन-सहन को अपनाने एवं बढ़ावा देने की बात हो रही है तो यह अपने आप में बेहद शुभ संकेत है।
आज बाजार में तमाम तरह के कोल्ड ड्रिंक्स बिक रहे हैं। इन सभी के कुछ न कुछ दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं किंतु अपनी प्राचीन जीवन शैली में पारंपरिक पेय पदार्थों का प्रयोग बहुतायत में था। यदि हम अपने पारंपरिक पेय पदार्थों को प्रयोग में लाना पुनः शुरू कर दें तो अस्वथता के प्रकोप को निश्चित रूप से कम किया जा सकता है। मानव जीवन प्रकृति की अप्रतिम एवं अनमोल धरोहर है। इसकी हिफाजत हर स्तर से की जानी चाहिए। मनुष्य की क्षमताओं का समाज को लाभ तभी पूरी तरह मिल सकता है, जब वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो। कहा जाता है कि इंसान के ब्रेन की जितनी क्षमता है उसकी वह तीन प्रतिशत भी प्रयोग नहीं कर पाता है।
अल्बर्ट आइंस्टाइन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने ब्रेन की क्षमता का मात्रा 3.5 प्रतिशत उपयोग किया था यानी कि ब्रेन का उपयोग अभी तक 3.5 प्रतिशत से अधिक नहीं हो पाया है। इस प्रकार देखा जाये तो इंसान की ब्रेन की क्षमता का 96.5 प्रतिशत उपयोग अभी बाकी है। यदि इंसान की क्षमता का उपयोग पूरी तरह हो जाये तो क्या होगा, इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। यह तभी हो सकता है जब मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ हो। पूरी तरह स्वस्थ रहने के लिए निश्चित रूप से अपनी पुरानी जीवन शैली, रहन-सहन एवं खान-पान की तरफ वापस आना ही होगा।
पुराने तौर-तरीकों पर आने का आशय बिल्कुल नहीं है कि उपभोक्तावाद के रास्ते में किसी तरह का रोड़ा उत्पन्न हो। सावधानी सिर्फ इस बात की रखनी होगी कि
उपभोक्तावाद ऐसा हो जिसमें संतुलन हो, पर्यावरण के प्रति जागरूकता हो और उससे जुड़े जन-जन में इस प्रकार का दायित्व बोध हो कि उसके किसी भी प्रयास से उसका एवं किसी अन्य का स्वास्थ्य प्रभावित हो क्योंकि स्वस्थ व्यक्ति ही स्वस्थ मानसिकता से किसी काम को अंजाम तक पहुंचा सकता है। अतः हम सबकी यह जिम्मेदारी बनती है कि पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रति सचेत रहते हुए हम
उपभोक्तावाद को आगे बढ़ायें, इसी में राष्ट्र, समाज एवं स्वयं का कल्याण निहित है।

  • अरूण कुमार जैन