प्रवक्ता न्यूज़

“बेदाग़ वेब पत्रकारिता” का प्रवक्ता बना रहेगा “प्रवक्ता.कॉम”

-विशाल आनंद

आचार्य रजनीश ओशो ने कहा था – “हर पत्थर मैं मूर्ती छिपी हुयी है. मूर्तिकार कभी भी मूर्ती नहीं बनाता, वो तो पत्थर को छांटता है ताकि उसमे छिपी मूर्ती बाहर आ सके, नजरिया अपना अपना है, कौन सा मूर्तिकार किस नजरिये से छांटता है. कोई राम की तो कोई कृष्ण की, कोई राधा की तो कोई सीता की या कोई सुन्दर सी स्त्री की मूर्ती निकाल ही लेता है.” मेरी नजर मैं ओशो जी की यह बात आज के पत्रकार और उनकी पत्रकारिता पर बिलकुल सटीक बैठती है. खबर तो हर जगह है, आपकी नजर जिधर है- उधर ही खबर है. वो बात अलग है कि आपका नजरिया क्या है और आप किस नजर से देखते हैं. खबर का कौन सा एंगल आप पकड़ते हैं. किस माध्यम से आप उस खबर को खबरों की भीड़ मैं उचित स्थान दिला पाते हैं. खबर में दम है और ‘माध्यम’ मजबूत है तो खबर लम्बे समय तक जिन्दा रहेगी. यदि ‘माध्यम’ मजबूत नहीं है तो दमदार खबर भी दम तोड़ देगी. अब माध्यम चाहे “इलेक्ट्रोनिक हो या प्रिंट या वेब”. ये तीनों माध्यम क्रमशः एलोपेथिक, आयुर्वेदिक, और होम्योपेथिक की तरह ही असर करते हैं. खबर जितने दिन जिन्दा रहेगी उतने ही दिन अपना असर दिखाती रहेगी. मुझे याद है जब मैं पत्रकारिता मैं सनात्कोत्तर कर रहा था तब दैनिक जागरण से हमें जो गुरूजी पढ़ाने आया करते थे वो हमें नेहरु जी का एक किस्सा अक्सर सुनाया करते थे कि नेहरु जी जब लखनऊ मैं रैली को संबोधित कर रहे थे तब उन्होंने कहा था – ‘मैं दैनिक अख़बारों से इतना नहीं डरता जितना साप्ताहिक या पाक्षिक से डर लगता है. वजह ये है, दैनिक मैं तो खबर एक ही दिन जिन्दा रहती है पर साप्ताहिक या पाक्षिक मैं हफ़्तों तक खबर जिन्दा रहती है’. इस बात का सन्दर्भ मैं इसलिए भी दे रहा हूँ. क्योंकि विजुअल चंद सेकण्ड या मिनट का होता है. प्रिंट – एक दस्तावेज की तरह सुरक्षित रहता है और उसके अपने मायने भी होते है. तकनीकी बदली है तो जाहिर है बाजार भी बदला है. बाजारवाद के इस दौर मै प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक तो चपेट मै आ चुके है. बचता है तो बस वेब मीडिया, जिस पर बाजारवाद हावी नहीं हुआ है. वेब आज भी अपनी तयशुदा शर्त से आगे बढ़ रहा है. “सच, साहस, और संघर्ष” वेब पत्रकारिता मै देखने को मिलता है. वर्ना पत्रकारिता हर गली मोहल्ले में बिक रही है.

वेब पत्रकारिता में आज बहुत नाम जुड़ चुके हैं. सभी अपनी अपनी दिशा में सही भी चल रहे हैं. पर दो वर्ष के अल्प समय में जो कामयाबी और उपलब्धिया “प्रवक्ता.कॉम” ने हासिल की हैं वो वाकई साधुवाद की पात्र है. मुझे लगता है शुरुआत (आगाज) ये है तो (अंजाम) परिणाम तो बेहतर आयेंगे ही. वेब पत्रकारिता में मानसिक श्रम और तकनीकि श्रम की बहुत जरुरत होती है. समय की सूईयों के साथ तालमेल रखना पढता है. वर्ना पत्रकारिता की चुनौतियाँ और बाजारवाद का दबाव सारा संतुलन बिगाड़ देता है. इस संतुलन को बेहतर बना रखा है “प्रवक्ता.कॉम” ने. यह तारीफ़ नहीं है बल्कि सधी हुयी प्रतिक्रिया है. क्योंकि आज “न्यूज़ पर व्यूज” देने को तो सब तैयार रहते हैं पर “व्यूज पर न्यूज़” देने की सोच सिर्फ वेब मैं ही है. इस दिशा मैं प्रवक्ता.कॉम की भूमिका स्वर्णिम है. वैसे भी दलाली का वृक्ष पत्रकारिता मैं फलफूल रहा है जडें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि इस वृक्ष की छांव से पत्र, पत्रकार, और पत्रकारिता निकलना नहीं चाहते. किसी को दामन पे ‘दाग’ की नहीं ‘दाम’ की दिन रात चिंता लगी रहती है. अलबत्ता वेब पत्रकारिता अभी इस दलाली के दलदल मैं नहीं फसी है. और उम्मीद भी यही है की “बेदाग़ वेब पत्रकारिता” का प्रवक्ता बना रहेगा “प्रवक्ता.कॉम”. अंत मैं निदा फाजली की कुछ पंक्तिया –

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब

सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम

हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं