राजनीति

सोनिया को नहीं तो क्या जनता बंगारू व बाल ठाकरे को माने ‘महात्यागी’

तनवीर जाफ़री

18 मई 2004 का वह दिन भारतीय इतिहास का एक ऐसा ऐतिहासिक दिन था जबकि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को कांग्रेस संसदीय दल ने अपना नेता तो चुन लिया परंतु सोनिया गांधी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस की नेता चुने जाने के बावजूद राष्ट्रपति भवन में जाकर स्वयं प्रधानमंत्री पद का दावा पेश करने के बजाए राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम को डा० मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाए जाने का सुझाव देकर चली आईं। उनके राष्ट्रपति भवन से वापसी के पश्चात संसद के केंद्रीय कक्ष में सोनिया गांधी के ऐतिहासिक भावुक भाषण तथा तमाम कांग्रेस नेताओं द्वारा उनसे प्रधानमंत्री पद स्वीकार किए जाने हेतु किया जाने वाला भावनात्मक आग्रह, यह नज़ारा भी आज तक संसद के केंद्रीय कक्ष ने कभी नहीं देखा था।

निश्चित रूप से प्रधानमंत्री पद को इतनी आसानी से ठुकराए जाने के बाद सोनिया गांधी को देश में त्याग की महामूर्ति के रूप में देखा जाने लगा था। ज़ाहिर है इससे सोनिया गांधी की लोकप्रियता में इज़ाफा होना स्वाभाविक था। परंतु अफवाहें फैलाने तथा दुष्प्रचार करने में महारत रखने वाले विपक्ष ने उसी समय से यह प्रचारित करना शुरु कर दिया था कि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद स्वयं नहीं ठुकराया बल्कि राष्ट्रपति डा० कलाम ने ही सोनिया गांधी को शपथ दिलाने से इंकार कर दिया था। विपक्ष द्वारा इसका कारण यह बताया जा रहा था कि एक तो सोनिया गांधी विदेशी मूल की महिला थीं तथा दूसरा यह कि उनके पति राजीव गांधी पर बो$फोर्स तोप दलाली सौदे में शामिल होने जैसा संगीन आरोप था।

परंतु पिछले दिनों विपक्ष के ऐसे सभी दुष्प्रचार की उस समय पूरी तरह हवा निकल गई जबकि डा० कलाम की निकट भविष्य में प्रकाशित होने वाली उनकी नई पुस्तक टर्निंग प्वांईंट: ए जर्नी थ्रू चैलेंजेज़ के कुछ अंश पुस्तक प्रकाशन से पूर्व मीडिया में आ गए। यह पुस्तक कलाम साहब की एक और पुस्तक विंग्स ऑफ फायर का दूसरा संस्करण है। अपनी इस नई पुस्तक में डा० कलाम ने अपने राष्ट्रपति के कार्यकाल के दौरान उनके द्वारा लिए गए कुछ फैसलों तथा कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं व चुनौतियों का जि़क्र किया है। कलाम ने इस पुस्तक के माध्यम से यह साफ़ किया है कि उन्होंने सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने में कोई रुकावट नहीं डाली थी।

बजाए इसके सोनिया गांधी ने स्वयं ही प्रधानमंत्री पद को ठुकरा दिया था। उनके अनुसार ‘उस समय हालांकि कई प्रमुख राजनेता उनसे आकर मिले थे व उनसे अपील की थी कि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के मुद्दे पर वह किसी दबाव में न आएं। यह ऐसी अपील थी जो संवैधानिक रूप से स्वीकार नहीं की जा सकती थी। यदि सोनिया गांधी अपनी नियुक्ति को लेकर कोई दावा प्रस्तुत करतीं तो मेरे पास उनकी नियुक्ति के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प नहीं होता। परंतु सोनिया गांधी ने स्वयं ही मनमोहन सिंह का नाम आगे कर मुझे तथा राष्ट्रपति कार्यालय को चौंका दिया था। वास्तविकता तो यह है कि राष्ट्रपति कार्यालय से सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाए जाने हेतु उनके नाम की चिट्ठी भी तैयार हो चुकी थी। परंतु उनके इंकार करने के बाद दोबारा राष्ट्रपति कार्यालय को मनमोहन सिंह के नाम की चिट्ठी तैयार करनी पड़ी।’

डा० कलाम के इस खुलासे के बाद अब वह विपक्ष बगलें झांकने लगा है जोकि कल तक यह दुष्प्रचारित करता आ रहा था कि सोनिया ने प्रधानमंत्री पद का त्याग नहीं किया बल्कि डा० अब्दुल कलाम ने स्वयं ही उन्हें शपथ नहीं दिलवाई व प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया। मज़े की बात तो यह है कि डा० कलाम के इस रहस्योद्घाटन के बाद अब वही डा० कलाम जो कल तक भाजपा व उसके सहयोगी दलों की आंखों के तारे दिखाई देते थे अब इन्हीं दलों की आलोचना के शिकार हो रहे हैं।

दुष्प्रचार करने व अफवाहें फैलाने के इन महारथियों को अब कुछ और समझ में नहीं आ रहा है तो यह डा० कलाम से यही पूछने लगे हैं कि आ$िखर उन्होंने इस रहस्योदघाट्न के लिए यही समय क्यों चुना? इनका कोई नेता यह बोल रहा है कि डा० कलाम यह पहले भी कह चुके हैं और यह कोई नई बात नहीं है। बाल ठाकरे जैसा व्यक्ति जोकि शक्ल-सूरत,किरदार,गुफ्तगू आदि प्रत्येक रूप में स्वयं पाखंडी दिखाई देता है वह अब डा० कलाम जैसे समर्पित एवं नि:स्वार्थ रूप से राष्ट्र की सेवा करने वाले भारत रत्न को पाखंडी कहकर संबोधित कर रहा है। कौन नहीं जानता कि बाल ठाकरे ने अपने पुत्र मोह में आकर अपनी पार्टी के दो टुकड़े हो जाना तो गवारा कर लिया परंतु अपने भतीजे को अपने बेटे पर तरजीह देने से साफ इंकार कर दिया। आज वह सत्तालोभी व्यक्ति कलाम को पाखंडी तथा उथला बता रहा है। और तो और ठाकरे की नज़रों में कलाम के इस देश में सम्मान किए जाने का एकमात्र कारण ही यही था कि उन्होंने सोनिया को प्रधानमंत्री बनने देने से रोक दिया था।

सोनिया गांधी को 2004 में प्रधानमंत्री न बनने देने के लिए इन विपक्षी नेताओं खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं द्वारा क्या कुछ नहीं किया गया। पहले तो चुनाव के दौरान सोनिया को विदेशी मूल की महिला के रूप में प्रचारित कर आम भारतीयों के दिलों में स्वेदशी बनाम विदेशी का मुद्दा बसाने की नाकाम कोशिश की गई। परंतु भारतीय जनता व मतदाता सोनिया गांधी को नेहरू परिवार की बहू के रूप में देखते रहे। परिणामस्वरूप विपक्ष के इस दुष्प्रचार से सोनिया गांधी के प्रति लोगों में न$फरत तो नहीं सहानुभूति ज़रूर पैदा हुई।

इसके पश्चात इन्होंने अपने शासनकाल के कारनामों को ‘फील गुड’ के रूप में देश के लोगों पर ज़बरदस्ती थोपना चाहा। परंतु इनकी कारगुज़ारियों से दु:खी जनता ने ज़बरदस्ती ‘फील गुड’ का एहसास करने के बजाए इन्हें स्वयं सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। और आख़िरकार सत्ता की बागडोर संप्रग के हाथों सौंप दी। लोकतंत्र के आदर व सम्मान की दुहाई देने वाले इन तथाकथित देशभक्तों ने जब यह देखा कि भारतीय लोकतंत्र ने अपना निर्णय इनके विरुद्ध तथा कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के पक्ष में दे दिया है तब इन्होंने निम्रस्तर के हथकंडे अपनाने शुरु कर दिए। कोई भाजपाई नेत्री यह कहती नज़र आई कि यदि सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो मैं अपने बाल मुंडवा डालूंगी। तो किसी ने यह कहा कि मैं भुने चने खाना शुरु कर दूंगी। और कोई यह बोली कि ऐसा होने पर मैं उल्टी चारपाई पर बैठना शुरु कर दूंगी। गोया खिसियानी बिल्लियां खंभा नोचती नज़र आईं।

ज़ाहिर है विरोध के इस छिछोरे तरीके ने सोनिया को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि लोकतंत्र की दुहाई देने वाला यह विपक्ष जब जनादेश का सम्मान ही नहीं करना चाह रहा है तथा इस प्रकार घटिया,असंसदीय व असंवैधानिक स्तर पर उनका विरोध करने पर उतर आया है ऐसे में वह किस प्रकार प्रधानमंत्री पद की जि़म्मेदारियां निभा सकेंगी। ज़ाहिर है सत्ता से बेदखल होने के बाद खिसियाया हुआ यह विपक्ष सोनिया गांधी के विरोध के लिए किसी भी स्तर तक जा सकता था और सोनिया के प्रधानमंत्री बनने के बाद संभवत: संसद में यह लोग कुछ ऐसी हरकतें भी कर सकते थे जो देश के संसदीय इतिहास में अब तक नहीं घटीं। ऐसे में सोनिया के पास प्रधानमंत्री पद का त्याग किए जाने से बेहतर और दूसरा रास्ता नहीं था। परंतु वाह रे विपक्ष इसे न तो सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री बनना स्वीकार हुआ न ही वह यह हज़म कर रहा है कि प्रधानमंत्री का पद छोडऩे के बाद उन्हें कोई त्यागी या महात्यागी कहे। और कुछ नहीं तो अब इन्हें वही डा० कलाम भी बुरे लगने लगे हैं जिन्हें राष्ट्रपति बनवा कर यही भाजपाई कल अपनी पीठ थपथपा रहे थे तथा देश को भी यह गर्व से बताते थे कि हमने डा० कलाम जैसे महान वैज्ञानिक को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया।

सवाल यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के त्याग को भाजपाई त्याग मानने को तो तैयार हैं नहीं। फिर आ$िखर ऐसे में त्यागी राजनीतिज्ञ किसे कहा जा सकता है। क्या ठाकरे को जिसने अपने पुत्र मोह में अपनी पार्टी विभाजित कर डाली और आए दिन समूचे उत्तर भारतीयों को स्वर्ण जडि़त सिंहासन पर बैठकर गालियां देता रहता है व उन्हें प्रताडि़त के निर्देश जारी करता है? या फिर भाजपा के उस बंगारू लक्ष्मण रूपी अध्यक्ष को जिसको पूरे देश ने रिश्वत की रकम लेते हुए अपनी आंखों से देखा और इस रिश्वत कांड के प्रसारित होने के बाद उसे अपने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का ‘महात्याग’ करना पड़ा? या फिर येदिउरप्पा व निशंक जैसे मुख्यमंत्रियों को त्यागी माना जाए जो भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भारी दबाव पडऩे पर अपने पद छोडऩे पर मजबूर हुए?