आज किरण को माफ़ करें, कल कनिमोझी को!

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जगमोहन फुटेला 

किरण बेदी कह रहीं हैं कि खुद को कष्ट देकर जो पैसे उन्होंने हवाई टिकटों से बचाए हैं, अब (पर्दाफ़ाश होने के बाद) वे वापिस कर देंगी. भाई लोग कह रहे हैं कि वे इंसान हैं और गलती चूंकि इंसान से हो ही सकती है और पैसे भी जब वे वापिस दे ही रहीं हैं तो किस्सा ख़त्म समझा जाना चाहिए. कुछ भाई लोगों को लगता है कि अब इसके बाद उनके इस बचत कर्मकांड के बारे में कुछ भी कहना अन्ना आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश है.

वाह, क्या तर्क है? अरे भई, अगर किरण बेदी इंसान हैं तो क्या राजा और कनिमोजी नहीं हैं? क्या फर्क है इनमें और उनमें? क्या कहेंगे आप अगर कल वो भी पैसे वापिस दे दें? उन दोनों ने तो माना भी नहीं है. न अदालत ने ही उन्हें दोषी ठहरा दिया है. किरण ने मान भी लिया कि हाँ, लिए थे पैसे ज़्यादा. बचाए भी थे. उनके ये कह देने से कि ट्रस्ट के लिए बचाए थे क्या उन्हें उनके अपराध से मुक्त कर देता है? क्या झूठ या हेराफेरी (या खुद को इकानामी क्लास में सफ़र करा कर) ट्रस्ट के लिए ही सही पैसे बटोरना कानूनी और नैतिक रूप से उचित है? जो फिर कहेंगे कि हाँ (जब दे ही रहीं हैं पैसे वापिस) तो उन्हें बता दें किसी भी अपरोक्ष तरीके से किसी के लिए भी धनसंचय करना है तो अपराध ही.

और फिर उनके खिलाफ उठने वाली कोई भी आवाज़, कोई भी सवाल या किसी के मन में आया कोई भी संशय अन्ना आन्दोलन की बदनामी कैसे है? क्या किरण बेदी ने ट्रस्ट अन्ना के लिए बनाया? ये यात्राएं उन के लिए कीं? या पूछा था अन्ना से कि ऐसे पैसे बचाऊँ या नहीं? …और क्या किरण बेदी गलत हों तो भी सही हैं क्योंकि वे अन्ना के साथ हैं? शायद यही वो कारण है कि किरन बेदी गलत भी हों तो उन्हें सही ठहराने या फिर उन्हें माफ़ कर देने की बातें तो कही ही जा रहीं हैं.

सच बात तो ये है कि आज किरण बेदी जैसे प्रकरणों पर कुछ भी कह पाना संभव या कहें कि एक तरह से खतरे से खाली नहीं रह गया है. हालात ये हो गए हो हैं कि पब्लिक परसेप्शन के खिलाफ कुछ लिखने, बोलने वाले की बोलती बंद की जा सकती है. जनता जब अंधभक्त हो कर अन्ना आन्दोलन के साथ थी तो सरकार की बोलती बंद थी. किसी भी मंत्री का घर घेर लेने के सुझाव थे. मनीष तिवारी को अपनी उस प्रेस कांफ्रेंस के लिए माफ़ी मांगनी पड़ी जो निश्चित ही उन से खुद कांग्रेस ने करवाई होगी. यानी खुद कांग्रेस ने माफ़ी मांगी. इस लिए नहीं कि कांग्रेस या मनीष तिवारी के मन में एकाएक कोई बहुत बड़ी श्रद्धा या आस्था जाग पड़ी थी अन्ना या आन्दोलन के लिए. वो डर था. आज किरण बेदी डरी हुई हैं. क्योंकि हम सब डर के माहौल में जी रहे हैं. गौर से देखिये तो आप पाएंगे कि आन्दोलन के आजू बाजू एक तरह का आतंक उपजने लगा है. सरकार ने आन्दोलन, टीम के किसी सदस्य के खिलाफ कुछ बोला नहीं कि घेराव. अखबार ने कुछ छापा नहीं कि बहिष्कार. उधर खुद आन्दोलन से जुड़े लोग भी एक तरह की दहशत या कहीं कुछ भी हो सकने की आशंका के साथ जी रहे है. ये तो गनीमत है कि प्रशांत भूषन पे हमला करने वाले दूर दूर तक भी कांग्रेसी नहीं निकले. वरना बवाल खड़ा हो जाता. न सिर्फ अन्ना टीम की तरफ से, बल्कि विपक्षी पार्टियों की तरफ से भी.

हम सब जैसे बारूद के ढेर पे आ बैठे हैं. सच पूछिए मैं तो सुबह नहा धो के अपनी प्रभु साधना में सब से पहले सब से ज्यादा, अन्ना के स्वास्थ्य और लम्बी आयु की कामना करता हूँ. भगवान् करे उन्हें मेरी भी उमर लगे. लेकिन मैं डरता हूँ कि खुदा न खास्ता उन्हें कहीं स्वाभाविक रूप से भी कुछ हो गया तो आज के माहौल में एक छोटी सी भ्रान्ति भी देश को दावानल में झोंक देगी. मेरा आग्रह ये है कि हम भावना की बजाय तर्क की बात करें. तर्क की बात ये है कि भ्रष्टाचार बातों, कसमों या ह्रदय परिवर्तनों से भी ख़त्म नहीं होगा. कानून चाहिए. जिस देश में लोग अपनी खुद की हिफाज़त के लिए हेलमेट न पहनने के लिए भी बहाने ढूंढ लेते हों वहां कानून तो चाहिए. कैसा हो ये अलग बहस का विषय है. लेकिन वो अभी आया नहीं और अब रिकाल का अधिकार भी चाहिए. क्या आगे से आगे से बढ़ते नहीं जा रहे हम? जिस देश की आधी आबादी दस्तखत करना तक न जानती हो, उसे मालूम है कि अपने सांसद को क्यों वापिस बुलाने जा रही है वो? मान के चलिए कि अगर मिला तो रिकाल का अधिकार दिलाएंगे अन्ना, मगर उसका इस्तेमाल हर महीने करेंगे विरोधी नेता. और तब आप चला लेना इस देश में कोई संसद या लोकतंत्र. मुझे तो नहीं लगता कि बहुत पढ़े लिखे भी मेरी इस आशंका से सहमत होंगे. जो कभी पढ़ते ही नहीं, न जानते देश या लोकतंत्र के बारे में मतदान के दिन के अलावा वे क्या समझेंगे आज कि ये आन्दोलन या ये देश किधर की ओर अग्रसर है.

यकीनन इस देश में बेहतरी या किन्हीं अच्छे बदलावों के लिए कमर कसने वाले अरविन्द केजरीवालों की तारीफ़ और हिफाज़त की जानी चाहिए. लेकिन उनका भी फ़र्ज़ बनता है कि वे भोली भाली जनता को भावुक कर वो सब न करें जिसका कि जनादेश उन्हें नहीं मिला हुआ है. ये सही है उनकी बात कि संविधान के प्रिएम्बल में संविधान भारत की जनता में निहित होने की बात कही गई है. इस अर्थ में निश्चित रूप से संविधान और उसमें निहित संप्रभुता भारत की जनता को समर्पित है. ध्यान दें, जनता को! अन्ना, केजरीवाल, उनकी टीम या उनके लिए नारे लगाने वाली भीड़ को नहीं, जनता को! देश की सारी जनता को. माफ़ करेंगे ये महानुभाव. ये सारी जनता नहीं हैं. कल आपके साथ लाखों लोग आ के खड़े हो जाएँ किसी चाइना स्क्वेयर या तहरीक चौक की तरह. तो भी वो आन्दोलन तो हो सकता है. विद्रोह भी हो सकता है. जनता द्वारा परिभाषित, प्रत्याक्षित, निर्वाचित और इसी लिए संविधान सम्मत कोई नीति-निर्णय नहीं हो सकता. इस देश के अस्तित्व के लिए अगर लोकतंत्र ही श्रेष्ठ प्रणाली है औ उसके संविधान में किसी भी बदलाव के लिए प्रावधान और प्रक्रिया भी उसी के तहद अपनानी पड़ेगी. उसके लिए ज़रूरी है कि चिंतन, मनन और संवाद हो. और वो होना तो किसी आन्दोलन के साए में भी नहीं चाहिए. धमकियों के आतंक में तो कतई नहीं होना चाहिए. मगर दुर्भाग्य से हो वही रहा है. असहनशीलता इसी लिए है. पलटवार भी इसी लिए है और चरित्रहनन भी इसी लिए.

इसी लिए ये और भी ज़रूरी है कि, आन्दोलन की सफलता की खातिर भी, किरण बेदियों का चरित्र और आचरण शक शुबह के दायरे से बाहर हो. गलत या सही, उन पे भी अब भरोसा उठा तो ये और भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा. अन्ना के ज़रिये जो देश हित और राष्ट्रीयता जो की भावना पैदा हुई है वो कमज़ोर होगी. ये नहीं होनी चाहिए. किसी भी कीमत पर. ऐसे में ज़रूरी है कि किरण बेदी के आचरण और ट्रस्ट के आय व्यय की पड़ताल हो. बेहतर है वे स्वयं इसकी मांग करें. उनको बचाने की कोई भी कोशिश या व्याख्या करना किसी को भी नैतिक रूप से कमज़ोर और कठघरे में खड़ा करेगा.

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  1. जगमोहन जी, आपने देशद्रोही की परिभाषा पूछ मुझ अधेड़ उम्र के साधारण व्यक्ति को असमंजस में डाल दिया है| स्वतंत्रता के चौसंठ वर्षों बाद देश और देशवासियों की दयनीय स्थिति में देशद्रोही की परिभाषा कही सुनी नहीं बल्कि देखी जा सकती है| आज वैश्विक उपभोक्तावाद के चलते स्वतंत्रता के तुरंत पश्चात से ही शासन व समाज के सभी वर्गों में मध्यमता और अयोग्यता की जगह अब सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और अनैतिकता ने ले ली है| फलस्वरूप, आज भारत में १९४७ की पैंतीस करोड जनसंख्या के दोगुना से कहीं अधिक लोग मात्र बीस रूपए दैनिक आय पर निर्भर हैं| यदि आपको मेरी टिप्पणी में मेरे विचार एक आन्दोलन समान प्रतीत हुए हैं तो आपके मूंह में घी शक्कर| अल्बर्ट आइंस्टाइन के अनुसार विश्व एक भयंकर स्थान उन लोगों के कारण ही नहीं जो बुराई करते हैं बल्कि उन अच्छे लोगों के कारण भी है जो इस (बुराई) के बारे में कुछ नहीं करते| लेकिन भारतीय परिस्थिति में ऐसे उद्धरण में एक महत्वपूर्ण संशोधन आवश्यक हो जाता है| भारत में सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और अनैतिकता द्वारा लाभान्वित लोग बुराई को ज्यों का त्यों बनाए रखने के कारण देश में भयंकर दृश्य प्रस्तुत करते हैं| ऐसी स्थिति में देशद्रोहियों की सूची में हम आप सभी आते रहेंगे जब तक व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठ लोग राष्ट्रहित परिवर्तन नहीं लाते और जब तक उचित व्यवस्था द्वारा देश और देशवासियों के लिए उन्नति, प्रतिभा, और आत्म-सम्मान पैदा नहीं हो जाता| जगमोहन जी आप वरिष्ठ पत्रकार हैं| जैसा देखेंगे वैसा प्रस्तुत करेंगे| अब प्रश्न यह है कि आप देखते क्या हैं?

  2. जगमोहन फुटेला जी आप वरिष्ठ पत्रकार हैं। अच्छा लिखते हैं लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि सब आपकी बात से सहमत हों। एक लघुकथा से अपनी बात कहना चाहता हूं। एक राजा ने एक चोर को मामूली चोरी के आरोप में फांसी की सज़ा सुना दी थी। चोर से जब अंतिम इच्छा पूछी गयी तो उसने कहा कि उसको वह फांसी दे जिसने जीवन में कभी चोरी नहीं की हो। एक एक करके सब कभी न कभी अपनी चोरी को याद करके पीछे हटते गये। नतीजा यह हुआ कि खुद राजा भी बचपन में चोरी की बात याद करके इस काम को अंजाम देने लायक नहीं बचा तो चोर ने पूछा कि जब सभी चोर हैं तो उसको ही सज़ा क्यों दी जा रही है? यह सुनकर राजा ने उसको बरी कर दिया था। वास्तव में यह चोर बड़ा ही चतुर था। वैसे ही जैसे हमारे राजनेता। आपने तो वही कह दिया जो हमारे नेता कह रहे हैं। अगर आज किरण को माफ किया गया तो कल कनिमोझी को माफ करना पड़ेगा। पहली बात तो कनिमोझी ने अपराध किया है और टीम अन्ना की सदस्य किरण बेदी ने केवल नैतिक रूप से गल्ती की है। इंसान बेशक गल्ती कर सकता है लेकिन अपराध के लिये गल्ती की माफी मांगकर वह बिना सज़ा के बच नहीं सकता। कनिमोझी ने सरकारी धन का गबन किया है। उनका यह ख़ानदानी शगल है। पिछले दिनों तमिलनाडु चुनाव में जो करोड़ों रूपये कालाधन पकड़ा गया वह लगता है वही धन है जो टू जी घोटाले और अन्य ऐसे ही तरीकों से तरह तरह से कमाया गया है। यह एक लंबी सूची है जिसमें ए राजा से लेकर दयानिधि मारन और खुद करूणानिधि का दामन भी साफ नहीं है। हमारे कहने का मतलब यह है कि जो लोग स्वभाव और राजनीति के धंधे से काली कमाई पहले से ही करते रहे हैं उनके अपराध और एक ईमानदार मैगसेसे एवार्ड विजेता और आदर्श पुलिस अधिकारी रही किरण बेदी की एक मामूली भूल के कारण आप दोनों की तुलना कैसे कर सकते हैं। क्या अरबों के घोटाले करने वाले और एक भूखे बच्चे के रोटी चुराने को भी आप एक श्रेणी मंे रख सकते हैं? इसका मतलब तो यह हुआ कि अगर किसी ईमानदार नागरिक को जायज़ और कानूनी सरकारी काम कराने के लिये अगर रिश्वत देनी पड़ती है तो आप कहेंगे कि दोनों को जेल भेजा जाना चाहिये क्योंकि रिश्वत देना और लेना दोनों ही जुर्म है? फिर तो बदमाशों और स्वतंत्रता सेनानियों की हिंसा भी अपराध है, भले ही उसके पीछे मकसद और नीयत अलग अलग हो? मेरे काबिल जर्नलिस्ट साथी शायद यह भूल रहे हैं कि सिस्टम ऐसा बना हुआ है कि इसमें बहुत से काम नागरिकों को मजबूरन ऐसे करने पड़ते हैं जो गलत तो हैं लेकिन इसके लिये ज़िम्मेदार शासन और प्रशासन होता है। यही मांग तो अन्ना और उनकी टीम कर रही है कि ऐसा कानून और व्यवस्था लाओ जिसमें कोई बेईमानी करना भी चाहे तो कर नहीं सके। एक बात और अगर किरण बेदी, केजरीवाल और कुमार विश्वास ने कोई गैर कानूनी काम किया भी है तो क्या वे इसी कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने के हक से धो बैठे हैं? फिर तो हमारे अधिकांश नेता भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाने में अक्षम माने जाने चाहिये क्योंकि उनके दामन पर भी दाग़ हैं। यह सवाल भी पूछा जाना चाहिये कि सत्ताधारी दल के दिग्विजय सिंह जैसे नेता बयानबाज़ी क्यों कर रहे हैं वे तो कानूनी कार्यवाही कर सकते हैं तो बाबा रामदेव, अन्ना हज़ारे और टीम अन्ना को एफआईआर दर्ज कराकर जेल क्यों नहीं भेजत? भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कुछ बोलता है तो तभी उसकी कमियां क्यों याद आती है सरकार को? मुलायम, लालू और मायावती जब जब कांग्रेस के खिलाफ तेवर दिखाती हैं तो सीबीआई उनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति की जांच तेज़ कर देती है? यह क्या ब्लैकमेल है? जब जब भाजपा सरकार को घेरती है तब तब युदियुरप्पा और बंगारू लक्ष्मण का मामला याद दिलाया जाता है? मतलब तुम भी चोर हम भी चोर सो चुप रहो। फुटेला जी बेशक आप अपना विचार रखने के लिये स्वतंत्र हैं और वह अगर सरकार और बेईमानों के पक्ष में जाता है तो आप देशद्रोही नहीं हो जाते लेकिन आप ऐसा करके गलत पाले में तो खड़े हो ही जाते हैं। जिसकी अधिकांश लोग आलोचना तो करेंगे ही, आपके यह कहने से काम नहीं चलेगा कि आप भी अन्ना के समर्थक हैं।-इक़बाल हिंदुस्तानी

  3. अपने लेख के बचाव में जगमोहन फुटेला का कहना है कि “मैं अच्छा बुरा जो भी पत्रकार हूँ और वही मुझे रहना है|” पत्रकारिता की आचारनीति का दिवालियापन है आपका लेख| मैं समझता हूं कि आज पनवाड़ी की दुकान पर लोग विषय उपयुक्त अच्छा कह सुन लेते हैं| लेख में आपके विचारों पर पाठकों की अस्वीकार-सूचक टिप्पणियां बदलते समय की प्रतीक हैं| लोगों में राष्ट्र प्रेम जाग रहा है और हिसार क्या वे समस्त भारत में भ्रष्ट राजनीतिक पार्टियों का विरोध कर देश में सुशासन लाने में सहायक होंगे| समय आ पहुंचा है कि मीडिया भी अपनी मर्यादा में रहते पत्रकारिता में अपेक्षा अनुरूप परिवर्तन लाये| जहां तक किरण बेदी के हवाई टिकटों से बचाए पैसों की बात है, मैं समझता हूं कि सभ्य देशों में प्रायोजक द्वारा भत्ते और यात्रा पर वास्तविक खर्चे पर कोई चर्चा नहीं होती जब तक खर्चा निश्चित भत्ते से अधिक न हो| सच्चाई और समुदाय के विपरीत आपका लेख केवल देशद्रोही तत्वों के पक्ष में हैं जो टीम अन्ना को परास्त करने में पूर्ण रूप से जुटे हुए हैं|

    • इंसान जी, आपका एक मत है मेरा दूसरा और सब का उन जैसा. ये कहाँ का औचित्य है कि जो आपसे सहमत नहीं है वो देशद्रोही या उस तरह के तत्वों के साथ है. कृपया ये देशद्रोह की परिभाषा और अभी जिनके खिलाफ आप का आन्दोलन है उन देशद्रोहियों की सूची जारी कर दें ताकि उनसे किनारा कर सकें…नहीं, तो हमें लेखन और अभिव्यक्ति के आतंकवाद से बचना चाहिए. मैं फिर कहता हूँ कि मैं अन्ना के विचार से तो सहमत हूँ लेकिन उनके ‘हिसार’ से सहमत नहीं हूँ. कांग्रेस के उम्मीदवार को वहां कुल डेढ़ लाख वोट मिले. जीतने वाले की अपेक्षा दो लाख से भी कम. तो क्या ये मान लिया जाए अन्ना फैक्टर वहां नहीं होता तो उसे डेढ़ के अलावा सवा दो लाख वोट और मिल गए होते? अगर हाँ तो ये अन्ना की आंधी नहीं तूफ़ान भी नहीं, प्रचंड महाप्रलय है. इसमें तो सब संसर्ग हो जाना चाहिए था. समस्त सत्ता और उसके संस्थान.
      आन्दोलन जेपी का भी था. उन ने मगर एक विकल्प दिया था. जिसने देश को कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों जितने ही गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री भी दिये. मैं क्षमायाचना सहित ये पूछना चाहूंगा कि अगर चुनावी राजनीति नहीं करनी है तो चुनाव क्षेत्र में जाना ही क्यों है? हारे जीते कोई किसी भी कारण से, उसे अपनी जीत बताना क्यों है? क्यों ये उन जाटों की जीत नहीं है जो दो साल से कांग्रेस के खिलाफ सामाजिक और राजनीतिक दोनों कारणों से संघर्ष कर रहे थे. क्यों उन दलितों की भी नहीं जिन्हें इसी कांग्रेसी राज में जिंदा जला दिया गया था? और अगर ये जीत उनकी बजाय अन्ना अकेले की है भी हिसार की ये जीत उनकी तो वो उनकी उस विजय के सामने बहुत बौनी है जो उन्होंने इस देश के मानस को झकझोर के अर्जित की है. अन्ना को छोटा वे लोग कर रहे हैं जो उन्हें हिसार जैसे छोटे तराजुओं के एक पल्ले पे बिठा रहे हैं.

      आइए हम अन्ना का सम्मान करें. उन्हें एक आइकान के रूप में देखें. मैं फिर कहता हूँ चुनाव की बात भी करना राजनीति के दलदल में घुसना होगा. वहां उस तरह की राजनीति, छीछालेदर, प्रतिद्वंद्वितायें, घृणायें और प्रतिक्रियाएं होंगी. उसकी कल्पना से भी मन सिहरने लगता है. ज़रा सोच के देखिये कि खुदा न खास्ता अगर खुद अन्ना की भीड़ में से पराजित हो रहे किसी दल या उम्मीदवार के किसी सिरफिरे चमचे ने अन्ना टीम के किसी सदस्य पर प्रशांत भूषण जैसा कोई प्रकरण दोहरा दिया तो परिणाम क्या होगा? हम इस देश को एक तरह के गृहयुद्ध से बचा नहीं पाएंगे. क्या कोई नहीं है इस दुनिया में जो इस देश में वैसा कुछ करवा देना चाहेगा? अन्ना के प्रति भक्ति रखिये भाईसाहब, इस देश की सत्ता, सत्ताधारी दलों, संसद या अन्ना की एकाध बात से सहमत होने वालों को देशद्रोही भी मानिए बेशक. मगर कहीं ये भी सोचियेगा कि अगर आप बेबात के मुझे देशद्रोही ठहरा सकते हैं तो फिर इस देश को सच में ही द्रोह में धकेल देने वाले क्या नहीं कर गुजरेंगे?

  4. लेखक जगमोहन जी विस्तार सहित स्पष्टीकरण देनें के लिए|
    पाठकों, जग मोहन जी ने अपनी बात रखी| यह दृष्टिकोण उन्हों ने लेख में भी स्पष्ट किया होता, तो प्रश्न खड़ा नहीं होता|
    पर==>
    मैं मानता हूँ, की जब तक, अन्ना स्वत: चुनाव में खड़े हो कर, अपने लिए मत माँगते नहीं है, तब तक उनका विरोध वास्तव में, राजनैतिक नहीं माना जाना चाहिए|

  5. मैं आप सभी मित्रों का आभारी हूँ. आखिर एक बहस तो चली. हम भी सोचते, समझते, लिखते हैं तो मतभेद तो होंगे. लेकिन इस पे हम में कोई दो राय नहीं हैं कि सत्ता और सिविल सोसायटी के बीच मतभेद कडवाहट की हद तक हैं. वे एक दूसरे का अनादर करते हुए भी लगते हैं. सत्ता अगर सिविल सोसायटी सदस्यों के चरित्र हनन पे तुली है तो इमानदारी से हमें मानना होगा कि हिसार भी सिविल सोसायटी ने अन्यथा चाहा नहीं होगा. उसके लिए ये एक पीड़ादायक निर्णय रहा होगा. इस लिए भी कि जाने अनजाने आप किसी एक पार्टी के साथ या दूसरी के खिलाफ तो दिखते ही हैं. ज़ाहिर है (जैसा कि हुआ भी) लोग पूछते हैं कि अलां नहीं तो फलां क्यों? जवाब तो देना ही पड़ेगा. देंगे तो मुश्किल, न दें तो भी.

    अब हिसार ही वे गए हैं तो इसी की बात कर लें. वहां कांग्रेस के खिलाफ जिस उम्मीदवार को लाभ हुआ उन अजय चौटाला को दिल्ली की एक अदालत ने आय से अधिक संपत्ति के मामले में चार्जशीट किया हुआ है. सुप्रीम कोर्ट तक से उन्हें राहत नहीं मिली है. वे मात्र छ: हज़ार वोट से हारे हैं. जात वहां जब संगोत्र विवाह और फिर आरक्षण के मुद्दे पर और दलित मिर्चपुर काण्ड के बाद खफा थे तो कांग्रेस को तो हारना था ही. अजय को वो अतिरिक्त लाभ नहीं मिलता तो चार्जशीट वाली छवि के साथ वे लगभग जीत जाने की स्थिति में नहीं होते. तो यक्ष प्रश्न है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वालों का लाभ आखिर किसे मिला?

    इस लिए मैं कहता हूँ कि आन्दोलन की शक्ति उसका गैर राजनीतिक होना थी. वो ही बनी रहनी चाहिए थी. आप कुछ भी कह के चुनावी दंगल में जाते हैं तो दलदल तो वहां होगी. उस से पैर सनेंगे.

    तीसरी बात, मैं ये कह रहा हूँ कि जो भीड़ आती है किसी भी रैली या सभा में वो ही सिर्फ किसी आन्दोलन की शक्ति नहीं हो सकती. बड़ी रैलियाँ कर पाने वाली पार्टियां चुनाव हार भी जाती हैं. भीड़ ही अगर सफलता का पैमाना होती तो रामदेव के पास भीड़ अन्ना के मुकाबले कहीं ज़्यादा थी. लेकिन तर्क, बुद्धि और योजना उतनी दुरुस्त नहीं थी. कहीं किसी एक कसबे में उन के साथ कोई खड़ा नहीं उनके खुद के साथ वो सब होने के बाद.
    मुझे डर है कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से चुनावी राजनीति में उतरने के बाद सिविल सोसायटी भी कमज़ोर पड़ सकती है. इसके पीछे बड़ा साधारण सा तर्क है. वे जो भी होंगे आन्दोलन के साथ, चुनाव आने पर किसी न किसी दल के साथ तो वे तब भी होंगे ही न! ऐसे में जिन्हें सीधा नुक्सान पहुंचेगा या कहें कि जिन के हित किसी एक ख़ास पार्टी के साथ ही सुरक्षित रह सकते हों धंधे के लिहाज़ से या विचारधारा के स्तर पर वे भला क्योंकर बर्दाश्त करेंगे. वो भयावह स्थिति होगी. अन्ना संत हैं. वे कहाँ से लाएंगे उनके पोस्टरों, बैनरों या मंचों को फाड़ने, गिराने वाले गुंडों का कोई विकल्प?

    इस लिए मेरे मित्रो मैं ये कह रहा हूँ कि अन्ना का ये आन्दोलन जितना गैर राजनीतिक रहे उतना ही हम सब के लिए अच्छा. मैं कांग्रेस का पिछलग्गू नहीं हूँ. पिछले के साल में मैंने पत्रकार होने के बावजूद कांग्रेस के किसी क़स्बा स्तर के बन्दे से भी बात नहीं की है मैंने. मैं अच्छा बुरा जो भी पत्रकार हूँ और वही मुझे रहना है. आन्दोलन के पक्ष मैं मैं भी हूँ. इस लिए भी कि भ्रष्टाचार पे मैंने लिखा भी है, उसको मैंने भुगता भी है. भ्रष्टाचार किस सीमा तक, कितना गहरा और भयावह है मैं बहुतों से अधिक जानता हूँ.

    मैं धन्यवाद करता हूँ कि आप सभी ने मुझ से अलग राय रखते हुए भी बहस की एक मर्यादा बनाए रखी है. मेरी शुभकामनायें. आप को भी. आन्दोलन को भी. अगर आप केवल मेरी इस बात सहमत हों कि सिविल सोसायटी और सत्ता के बीच मतभेद चरित्रहनन या उस से आगे नहीं जाने चाहियें तो मुझे ख़ुशी होगी. -जगमोहन फुटेला

    • राजनैतिक रैलियों में भीड़ नेताओं के चमचे अपने खर्चे पर लातें हैं. बस या जीप की मुफ्त सवारी करवाते हैं. जबकि अन्नाजी / स्वामी रामदेवजी के आंदोलोनो में अपने पैसे से. अगर आप इतना भी अन्तेर नहीं जानते हैं तो नादान हैं . कांग्रेस के दिग्विजय तथा उसके खास दोस्त लालू यादव के शासन में मध्यप्रदेश और बिहार का सत्यानाश हो गया था. टीवी चैनलों को ४ जून के तत्काल बाद १७०० करोड़ का भारत निर्माण का रसगुल्ला खिलाया था ताकि रामलीला मैदान का सच देश की जनता को दिखाया न जा सके. आप भी टीवी चैनल की सौ बार दोराही जाने वाली झूठ का शिकार हो गए हैं. भीड़ और जनसमूह का मूल अंतर समझें.

  6. जब भी किसी से कोई गिला रखना,
    सामने अपने आइना रखना।।
    मेरे अनुमान में हमें तल्ख होने की आवश्यकता नहीं है हांलाकि तल्खी हमारे सदैव नियंत्रण में नहीं होती । सामने वाले के शब्द व्यवहार भी उकसा देते हैं। किरण जी की यह सादगी और सच्चाई काबिलेतारीफ है कि उन्होंने सच माना है। मेरे विचार में देश के ९५ प्रतिशत सरकारी कर्मचारी यात्रा संबंधी भ्रष्टाचार करते हैं-इसे मुझे किसी को भी मनवाने की जरुरत नहीं है – यह खुला रहस्य है जिसे कोई भी सरकारी चपरासी से लेकर शायद माननीय प्रधानमंत्री भी जानते हैं।किंतु परिस्थितिवश यह सार्वभौमिक रुप से स्वीकृति पा चुका है- किस अधिकारी की पत्नी सरकारी गाड़ी से बाजार नहीं जाती या बच्चे स्कूल नहीं जाते या सास ससुर तीर्थ यात्रा नहीं करते आदि आदि- – – – । क्या सरकार देश को बता सकती है कि हमारे कितने माननीयों पर देश का कितना इन्कम टैक्स, एयर इंडिया का कितने करो़ड़ और विभिन्न विभागों यथा- बिजली पानी टेलीफोन, केलोनिवि. संपदा कार्यालय आदि के कितने अरबों रुपये माननीयों पर बकाया हैं और उन्हें बसूलने के लिए क्या कार्रवाई हुई है- कुछ प्रश्न कभी कभी कोई सांसद पूछते हैं तो गोल मोल जबावों के बाद सब सामान्य हो जाता है- एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री जी ने उत्तर दिया था कि इन लाखों रुपये का भूगतान उनका दल करेगा- वह दल कहां है पता नहीं ।
    सरकारी टीएडीए के रुप में ऐसी चासनी है जिसमें मुझे नहीं लगता कि किसी भी सरकारी कर्मचारी की उंगली पर मिठास न लगी हो- इसी तरह के सभी सरकारी बिल- बाजार में उसी वस्तु की क्या कीमत होती है और किस दर पर वह कार्यालय में खरीदी जाती है- किसी से छिपा नहीं है और इस प्रहसन में सबको आनंद आता है – लेखा परीक्षक तक सबमें इसमे मिले होते हैं। रामदेव, अण्णा जी केजरीवाल जी किरण जी आदि पर सब पर आज आरोपों की शुरुआत का मात्र एक ही दिग्विजयी ध्येय है कि हमारी कहोगे तो हम भी नहीं छोड़ेगे- इस देश की परंपरा थी कि शासन लोक लाज से चलता था आज निर्लज्जता सत्ता का प्रतीक बन गई हैः इसलिए संस्थाएं श्रीहीन हो गई हैं ।व्यक्ति आदर के पात्र नहीं रह गए हैं क्योंकि हम बुतों को पूजते हैं शौर्य हमारे बूते की बात नहीं है। सुविधाओं के आगे चरित्र समर्पण की हमारी कमजोरी खानदानी है- तभी तो हम सदैव उनकी चमचागीरी करते हैं क्योंकि चरित्र तो किसी का भी नहीं है इसलिए सबसे कम चरित्रहीन से ही काम चला लेते हैं- इस सबके मूल में कारण है हमारा इतिहास बोध और स्वंतंत्रता के बाद हमारी शिक्षा व्यवस्था जिसने हमे हमारी गौरवशाली धरोहर के प्रति विस्मृति की अफीम दी और लोकाचार सदाचार संस्कार न सिखाकर सिर्फ व्यापार सिखाया- खैर विषय बहुत बड़े और ज्यादा चिंतन की अपेक्षा रखते हैं- फुटेला जी भी स्वतंत्र है अपनी राय रखने को- और यही जीतेंगे प्रथम पुरस्कार मीडिया में व्याप्त भ्रष्टाचार निबंध प्रतियोगिता में ।।
    मेरे निजी विचार में इस देश को इस हालत तक पहुंचाने में हमारे मीडिया का भी बहुत बडा हाथ है क्योंकि वह सुविधाऔं के आगे बिका हुआ है और वह प्रतिपृश्न नहीं करता सत्ता से ।
    क्या तुलना है राजा की और किरण जी की – क्या उनका जीवन भी इतना बेदाग है क्या तुलना है दिग्गी राजा की और श्री रविशंकर जी की…….

    अंत में –
    गज़ल के साज उठाओ बडी़ उदास है रात
    सुना है पहले भी ऐसे ही बुझ गए हैं चराग़
    दिलों की खैर मनाओ बहुत उदास है रात
    कोई कहो ये खयालों से और
    ख्वाबों से दिलों से दूर न जाओ बहुत उदास है रात
    लिए हुए हैं जो बीते गमों के अफसाने
    इस खंडहर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
    इन्‍हीं से काम चलाओ बहुत उदास है रात
    वो जिंदगी ही बुलाओ बहुत उदास है रात- फिराक गोरखपुरी
    सादर

  7. फुटेला जी सचमुच किरण बेदी ने इतना बड़ा जुर्म किया है जिसे माफ़ नहीं किया जा सकता आपके अनुसार .

    पर देश के किसी पत्रकार या मीडिया घराने ने देश के महा भ्रस्त महानुभाओ को प्रदान की गयी सुविधाओं वा उनके दुरूपयोग पर चर्चा करने या लिखने की कोशिश की है महानुभावो को जो ट्रेन पस्सेज (राजधानी या शताब्दी जैसी महंगी गाडियों के ) दिए जाते है उनका उपयोग कौन करता है क्या आपको पता है .
    जबकि अधिकतर महानुभाव हवाई सफ़र में ही प्रेफर करते है
    तो अब बताईये भ्रस्ताचार यहाँ हो रहा है या किरण बेदी द्वारा .

  8. संजय जी सरल भाषामें बड़ी सही और संक्षिप्त टिपण्णी के लिए साधुवाद !

  9. गुलाम नबी फई जैसे आतंकी के साथ देने वाले दिलीप पदगांवकर को कांग्रेस कश्मीर मामलों की संस्था का सदस्य बनती है तो टीवी चैनल १ मिनट भी नहीं बोलते हैं और सरकारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने वालों के खिलाफ औरंगजेबी फतवे सुनाए जाते हैं.आरक्षण(हरियाणा और राजस्थान )के नाम पर महीनो तक रेलवे को रोका जाता है तो सरकार चूं भी नहीं करती. तब क्या रैपिड एक्शन फोरस को लकवा मर गया था . जबकि रामलीला मैदान में ४ जून की रात को २ बजे जलियाँ वाला बाग बना देती है. कमीने नेता कहते हैं की अनशन की इजाजत नहीं ली थी तो क्या आपने रेल ट्रैक को जाम करने की इजाजत दी थी. क्या चालीस दिन के रोजों तथा ९-९ दिन के नवरात्रों में उपवास (अनशन) के लिए भी सरकारी मंजूरी लेनी पड़ेगी .फुटेला जी या तो आपकी जानकारी अधकचरी है या कांग्रेसी नमक का हक़ अदा कर रहें है.

  10. ==>पंक्तियों के बिच पढ़िए<===
    क्या न्याय है? क्या चाल है?
    अन्ना के सहकारियों पर दोषारोपण कर के कांग्रेस के चमचे अपने भ्रष्टाचारी राक्षस को (जो कई करोड़ स्वाहा कर चुका है,) बचाना चाहते है|
    क्या, दिग्गी उन्हें(किरण बेदी को) राजा की भांति काराग्रह में ठुंसेगा ? सावधान!
    अन्ना को भी सताया जाएगा ; यही संकेत दिया जा रहा है|
    अंधेर नगरी चौपट राजा (राजा भी बंदी चौपट? हो गया ) टके सेर भाजी टके सेर खाजा|
    राजा कनिमोजी और किरण क्या सब बराबर है?
    अन्नापर भी दोषारोपण होगा| उनका लेखा-जोखा भी खंगाला जा रहा है| चेतके रहिए|
    सारे आन्दोलन ने वेब साईट पर खुल्लम खुल्ला हिसाब लिख कर लगाना चाहिए–ऐसे दोषों से बचने के लिए|
    श्री श्री रविशंकर पर भी आरोपण होगा, देखना|

  11. फुटेला जी आप कौन है?क्या नाता है आपका इन महा चोरों से ?आपका कौन क़ानून किरण बेदी और इन महाचोरो को,जिसमे कुछ का उदाहरण आपने दिया है,एक श्रेणी में रखने की इजाजत देता है?ऐ भ्रष्टों के वकील,क्या आपको भ्रष्टाचार की परिभाषा मालूम है.क़ानून भ्रष्टाचार की परिभाषा इस तरह करता है,करप्शन इज मिस यूज आफ आफिसिअल पोजीसन फार पर्सनल गेन यानि अपने शासकीय पद का नीजी लाभ के लिए दुरूपयोग.किरण बेदी जब किराये में ली गयी अधिक रकम को पुन्य कार्यों में लगाने को सोच रही थी तो एक योग्य भूतपूर्व पुलिस अधिकारी होने के नाते यही परिभाषा उनके दिमाग में भी रही होंगी.क़ानून वेता साहब अब आप बताइए कि क्या वह आपके मान्य क़ानून के अनुसार गलत थी?पर नैतिक दृष्टि से वह गलत थी और जब उन्हें इसका आभास हुआ तो वे तुरत यह पैसा लौटाने को तैयार हो गयीं.ऐसे भी देखा जाये तो किरण बेदी के ऐसा करने से न क़ानून का उलंघन हुआ है न जनता का इससे कोई नुकशान हुआ है,अतः किरण बेदी की महाचोरो के साथ तुलना करके आपने केवल अपनी असलियत सबके सामने रखी है

  12. मैं जिस कंपनी में काम करता हूँ वहां से मुझे अगर कहीं आना जाना होता है तो यातायात के लिए पैसे दिए जाते हैं. इसे मेरे allowances में गिना जाता है. लेकिन अगर कभी मुझे ज्यादा दूर नहीं जाना और मौसम अच्छा है, मेरे पास वक्त भी है और मैं पैदल चला जाता हूँ तो क्या इसे करप्शन समझा जायेगा?? वो भी तब जब मई उस पैसे को किसी गरीब की सहायता करने में खर्च करता हूँ?!?! अगर हाँ, तो मुझे और किरण बेदी को फांसी पैर लटका दो|

  13. किरण बेदी जी को केवल इस कारण बदनाम किया जा रहा है क्योंकि वह जनलोकपाल के पक्ष में खड़ी हैं . अन्यथा हजारों IPS अधिकारी करोड़ों का भ्रष्टाचार करते रहते है और आप जैसे ईमानदारी के पुतले चूं भी नहीं करते. ये सब कांग्रेस का मिडिया मैनेजमेंट का चक्रव्यहू है जिसमे कम समझ वाले फंस जाते हैं

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