लोकसभा चुनाव की बिसात तैयार

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विजय कुमार

images (2)भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के बावजूद मुख्य दारोमदार कांग्रेस और भाजपा पर ही है। इसलिए इनकी हर गतिविधि पर देश-विदेश के राजनीतिक विश्लेषकों की गहरी नजर है।

पिछले दिनों जयपुर में कांग्रेस का चिंतन शिविर हुआ। इसमें औपचारिक विषय जो भी हों; पर असली मुद्दे कांग्रेस विरोधी वातावरण से खिसकती जमीन, भ्रष्टाचार, अनिर्णय की स्थिति, कानून-व्यवस्था की दुर्दशा, बड़े राज्यों में हो रही चुनावी पराजय आदि ही थे। वहां राहुल बाबा को दल का उपाध्यक्ष और लोकसभा चुनाव का मुखिया भी बनाया गया; पर लोग यह पूछ रहे हैं कि यह घोषणा तो दिल्ली में भी हो सकती थी। यदि यह नहीं होती, तो भी कोई अंतर नहीं पड़ने वाला था। क्योंकि कांग्रेस में सोनिया मैडम के बाद राहुल बाबा की इच्छा ही आदेश मानी जाती है।

हां, उस शिविर की एक उपलब्धि यह जरूर है कि राहुल बाबा ने वहां बहुत भावपूर्ण भाषण दिया। इसके लिए प्रियंका वडेरा सहित वे सब बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने यह भाषण लिखा और राहुल बाबा को उसे बोलने का अभ्यास कराया। कहते हैं कि भाषण सुनकर कई लोग रोने लगे। वहां उपस्थित पत्रकारों ने इन आंसुओं को भी प्रायोजित बताया, जबकि कुछ का कहना है कि कांग्रेस का यह ‘आंसू पर्व’ अब 2014 के चुनाव के बाद तक चलता रहेगा।

जयपुर में यह भी स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस में लोकतंत्र का अर्थ पूरी तरह वंशतंत्र है। इसलिए ‘पुनर्मूषको भव’ की तरह वे फिर-फिर इसी पर लौट आते हैं। कई बड़े कांग्रेसियों के अनुसार राहुल बाबा को आगे कर कांग्रेस ने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। क्योंकि उन्हें न तो प्रशासन का अनुभव है और न ही पार्टी चलाने का। उनके नेतृत्व में लड़े गये चुनावों में उपलब्धि के नाम पर कुछ नहीं है।

पिछले दिनों उ0प्र0, बिहार, बंगाल और गुजरात जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह पराजय हुई। जबकि उत्तराखंड में खंडूरी, निशंक और कोश्यारी की लड़ाई से कांग्रेस की लाटरी खुल गई। हिमाचल प्रदेश में भी शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल के निजी झगड़े ने वीरभद्र सिंह के गले में सत्ता की माला डाल दी।

राहुल बाबा के बारे में यह भी सच है कि वे जननेता नहीं हैं। अमेठी से लोकसभा चुनाव में जीत का कारण वहां के लोगों का लम्बे समय से इस परिवार से व्यक्तिगत लगाव है; पर किसी गंभीर विषय पर उनके विचार आज तक नहीं सुने गये। कश्मीर समस्या, घुसपैठ, बेरोजगारी, आतंकवाद, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, कानून-व्यवस्था, कृषि, व्यापार, विदेश नीति आदि के बारे में उनका दृष्टिकोण किसी को नहीं पता। क्योंकि वे सदा दूसरों द्वारा लिखे भाषण ही पढ़ते हैं।

दिल्ली दुष्कर्म कांड के बाद तथा पाकिस्तान व नक्सलियों द्वारा हमारे जवानों के शवों के साथ किये गये दुव्र्यवहार पर राहुल बाबा चुप रहे। ऐसा अनुभव और विचारहीन व्यक्ति देश का नेतृत्व कैसे करेगा, यह कांग्रेसजन भी निजी बातचीत में बोलते हैं।

वस्तुतः प्रणव मुखर्जी को कांग्रेस में सर्वाधिक योग्य व्यक्ति होते हुए भी राहुल बाबा का रास्ता साफ करने के लिए ही राष्ट्रपति भवन भेजा गया। आम कांग्रेसियों की नजर में राहुल बाबा से अच्छे पी.चिदम्बरम् हैं, जिन्हें वित्त और गृह जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय चलाने का अनुभव है; पर कांग्रेस नामक प्राइवेट कम्पनी में यह कह कर अपना भविष्य खराब करना अच्छा नहीं समझा जाता।

जहां तक भाजपा की बात है, तो जो नितिन गडकरी विवादों के बावजूद अध्यक्ष बनते नजर आ रहे थे, वे अचानक हट गये और माला राजनाथ सिंह के गले में पड़ गयी। संघ और भाजपा की कार्यशैली से अनजान लोगों में से कुछ इसे संघ की, तो कुछ भाजपा की जीत कह रहे हैं; पर यह तो स्पष्ट है कि भाजपा में लोकतांत्रिक भावना पूरी तरह प्रभावी है। इसीलिए दिल्ली से लेकर नागपुर तक व्यापक विचार-विमर्श के बाद अध्यक्ष का चयन हुआ।

जरा सोचें, क्या कोई सोनिया परिवार का विरोध करके कांग्रेस में बच सकता है; क्या मुलायम सिंह, लालू यादव, प्रकाश सिंह बादल, उद्धव या राज ठाकरे, रामविलास पासवान, करुणानिधि, ओमप्रकाश चैटाला, अजीत सिंह, शरद पवार, फारुख अब्दुल्ला, चंद्रबाबू नायडू या इनके परिवार का विरोध संभव है; क्या मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक या नीतीश कुमार को कोई चुनौती दे सकता है ?

इन सबका उत्तर नकारात्मक है; पर भाजपा में अध्यक्ष का विरोध करने वाले न केवल ससम्मान दल में बने हैं, बल्कि नीति-निर्धारण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। क्या दल में आंतरिक लोकतंत्र का इससे बड़ा कोई प्रमाण होगा ?

लेकिन राजनाथ सिंह के आने से भाजपा की स्थिति में क्या कोई अंतर आएगा, यह प्रश्न जरूर महत्वपूर्ण है। म0प्र0 और छत्तीसगढ़ के बारे में तो विरोधी भी मानते हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में वहां भाजपा फिर सत्ता में लौटेगी; पर राजस्थान की गुटबाजी कैसे कम होगी ? कर्नाटक में कार्यकर्ताओं का मनोबल लगातार टूट रहा है। इससे राजनाथ सिंह कैसे निबटेंगे ? चूंकि ये बड़े राज्य लोकसभा चुनाव में भी बहुत मायने रखते हैं।

इसके साथ ही सबसे बड़ा प्रश्न राजनाथ सिंह के गृहराज्य उत्तर प्रदेश का है। जानकारों की मानें, तो कल्याण सिंह को हटवा कर पार्टी को चैपट करने में मुख्य भूमिका उन्हीं की थी। यद्यपि कल्याण सिंह फिर भाजपा में आ गये हैं; पर अब न तो उनके शरीर में दम है और न अपील में। अब तो उनका एकमात्र उद्देश्य अपने पुत्र का भविष्य सुरक्षित करना है; पर भाजपा को जो नुकसान हो चुका है, उसकी पूर्ति कैसे होगी ?

इसके लिए सबकी निगाह उमा भारती पर हैं। यदि उन्हें ठीक से काम करने दिया जाए, तो म0प्र0 में कांग्रेस की तरह वे उ0प्र0 में मुलायम सिंह और मायावती दोनों को धरती सुंघा सकती हैं; पर राजनाथ सिंह सहित वे सब बड़े नाम, जो पिछले कई चुनावों में गीले कारतूस सिद्ध हो चुके हैं और जिनमें से अधिकांश उम्र के चैथेपन में पहुंच रहे हैं, क्या जगह खाली करेंगे ? यदि राजनाथ सिंह यह साहस दिखा सकें, तो उ0प्र0 में बाजी पलट सकती है।

अगला महत्वपूर्ण प्रश्न प्रधानमंत्री का है। इसके लिए देश की पहली पंसद नरेन्द्र मोदी हैं। यद्यपि शिवराज सिंह चैहान और डा0 रमन सिंह की कार्यशैली भी अच्छी है। अपने राज्यों में तीसरी बार चुनाव जीतकर ये दोनों भी इस पद के दावेदार हो सकते हैं।

लेकिन गुजरात में चुनाव जीतने से नरेन्द्र मोदी का कद बहुत बढ़ गया है। अतः उनकी क्षमता का उपयोग होना ही चाहिए। उनके नाम पर कार्यकर्ता जान लगा देंगे। इसकी घोषणा कब हो, यह तो भाजपा जाने; पर यह लोकसभा चुनाव से पर्याप्त समय पूर्व होनी चाहिए। ध्यान रहे कि बिना सेनापति के युद्ध नहीं लड़ा जाता। इसका दुष्परिणाम उ0प्र0 में भाजपा और कांगे्रस दोनों भुगत चुके हैं।

जहां तक नीतीश कुमार की नाराजगी की बात है, तो सच यह है कि बिहार में भाजपा के बल पर ही वे मूंछें ऐंठ रहे हैं। पिछली बार भाजपा और जद (यू) ने जितने स्थानों पर विधानसभा चुनाव लड़ा, उसमें जीत और वोट का प्रतिशत भाजपा का अधिक था। अर्थात बिहार में भाजपा की लोकप्रियता जद (यू) से अधिक है।

इस बारे में शरद यादव और नीतीश कुमार में भी भारी मतभेद हैं। इस मुद्दे पर टकराव हुआ, तो शरद यादव नीतीश को छोड़कर भाजपा के साथ आ जाएंगे। इसलिए भाजपा को जो उचित लगे, वह करना चाहिए। यदि उसे अपने बलबूते लोकसभा में 200 स्थान मिल गये, तो वे सब छुटभैये दल उसके साथ आ जाएंगे, जो आज कांग्रेस के साथ मलाई खा रहे हैं।

भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के एक इच्छुक श्री आडवाणी भी हैं; पर उन्हें प्रत्याशी घोषित करते ही भाजपा लड़ाई से बाहर हो जाएगी। भारत में इस समय 60 प्रतिशत मतदाता युवा हैं। वे एक 85 वर्षीय बुजुर्ग को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। पिछली बार भाजपा ने यह गलती की थी। उसे वह फिर न दोहराये, तो अच्छा है।

सच तो यह है कि आडवाणी जी ने जो प्रतिष्ठा कमाई थी, उसे वे हर दिन खो रहे हैं। किसी समय उन्हें संगठन का अटल जी से भी अधिक विश्वास प्राप्त था; पर अब उनकी छवि कुर्सीलोलुप की ही रह गयी है। अच्छा तो यह है कि वे सब तरफ से छुट्टी लेकर गुड़गांव वाले घर में रहें और अपने अनुभवों पर किताब लिखें। यह उनके और भाजपा, दोनों के स्वास्थ्य के लिए हितकारी है।

आडवाणी जी ने यदि पांच वर्ष पूर्व ही अवकाश ले लिया होता, तो 82 वर्षीय केशूभाई पटेल और 78 वर्षीय शांता कुमार अपने ही मुख्यमंत्रियों की राह में रोड़े नहीं अटकाते। भाजपा को अपने संविधान में संशोधन कर 75 वर्ष से अधिक उम्र वालों के अनिवार्य अवकाश की व्यवस्था करनी चाहिए। इससे भाजपा में लगातार नया खून आता रहेगा।

कुल मिलाकर 2014 का परिदृश्य बहुत रोचक बन रहा है। एक ओर खानदानी गुलाम होंगे, तो दूसरी ओर देश और लोकतंत्र के प्रेमी; पर चुनाव में नेता, नारा, मुद्दा और माहौल के साथ ही कार्यकर्ताओं की भी बड़ी भूमिका होती है। दोनों बड़े दल इस कुरुक्षेत्र में कैसा प्रदर्शन करेंगे, यह तो समय ही बताएगा; पर उसकी बिसात तो बिछ ही चुकी है, इसमें कोई संदेह नहीं है।

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