आनन्द की विशिष्ट अवस्था ‘मृत्यु’

“मृत्यु की कल्पना भी जहाँ कष्टकारी है वहीं मृत व्यक्ति के लिए मृत्यु दीर्घकालीन आनन्द की अवस्था है। जीवितों के लिए जहाँ मृत्यु अमावस्या का स्याह अंधकार है वहीं मृत के लिए पूर्णिमा का प्रकाश। “देखिए जाने इन्हें क्या हो गया, अभी थाडी देर पहले तक तो हँस-बोल रहे थे, अब शांत है, कोई उत्तर नहीं। यह शान्ति आनन्द की है। अनन्तकाल तक चलने वाला आनन्द। जब वो वाक कहते थे तब उनसे अवाक रहने को कहते थे, आज जब वो खामोश हैं, शांत हैं, अब शांति की सीमाओं के परे आने की प्रार्थना कर रहे हो। जीवित रहते तमाम यातनाएं सहन करने वाला आज आनन्द की उस चरम स्तिथि में है जहाँ उसको यातनाओं का कोई प्रभाव नहीं।

उदाहरणार्थ: एक मद्यप मद्य की ज्यादा मात्रा से जहाँ गिर जाता है नशे का प्रभाव समाप्त होने तक उसको किसी यातना का प्रभाव ही जान नहीं पड़ता वरन वह स्वयं को आनन्द के सागर में गोते लगाता महसूस करता है।

यह उदाहरण तो अल्पकालिक आनन्द का है। मृत्यु तो आनन्द का पर्याय है, उसका क्या? कौन यमराज, कौन कालभैरव और कैसे यमदूत? जीवित रहते जो उसने यमराज देखे, यमदूत देखे, उनसे तो बहुत कम खतरनाक होंगे वो असली यमराज। मृत्यु के आनन्द में रत तपस्वी को देहावसान करती अग्नि का भी कष्ट कहाँ? जब वो जीवित थे तो अपनों के भेष में छुपे भेडियों से डरते थे, आज जब वो अग्नि की गोद में समा गए तो वो ‘भेड़िये’ उनकी आत्मा से डर रहे हैं। जनाब अगर ‘आत्मा’ नाम के प्रत्यय को मस्तिष्क पटल पर विचार करके, विश्लेषण करके, उसके अस्तित्व की प्रायिकता की जाएं तो जब ज़िन्दा आदमी आपका कुछ बिगाड न सका तो उसकी आत्मा क्या बिगाड़ेगी। हाँ अगर कहीं उनसे रु-बरु हो गई तो ऐसी गति से वहाँ से भागेगी कि फिर शायद परलोक ही रुके। खैर आत्मा और परलोक के विषय अप्रत्यक्ष, काल्पनिक, या पर्दे के पीछे वाले हैं। लेकिन मृत्यु सत्य है, क्योंकि सत्य शाश्वत है, और मृत्यु भी। और मृत्यु वो दशा है, वो अवस्था है, जहाँ मृत को किसी बात की चिन्ता नहीं और किसी का भय नहीं। मृत्यु तो आनन्द की विशिष्ट अवस्था है।”

मयंक सक्सैना ‘हनी’

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