व्यंग्य

व्यंग्य / सत मत छोडों शूरमा, सत छौडया पत जाय

 -रामस्वरूप रावतसरे

तनसुख ने घर की बिगड रही हालत को सुधारने के लिये कहां कहां की खाक नहीं छानमारी। किस किस की चौखट पर नाक नहीं रगडी, लेकिन दरिद्र नारायण उसके यहां पर इस प्रकार बिराजे है कि बाहर जाने का नाम ही नहीं ले रहे है। हां, वह इस दरिद्रनारायण से पीछा छुडाने के लिये कई बार मरने की कोशिश कर चुका है, लेकिन हर बार कुछ ना कुछ ऐसा हो जाता है कि उसे फिर से घर की उन दिवारों के मध्य में आकर बैठना पडता है, जो शायद यह भी भूल गई होंगी कि आदम जात का स्पर्श किस प्रकार का होता है। दिवारों की लिपाई पुताई हुए बरसों बरस बीत गये है। सीलन और बडे रसूकदारों के यहां से उद्दार मनों से प्रेशित आस पास बिखरी गन्दगी के कारण अब उनकी हालत उस बदहवास औरत की तरह हो गई है जो आदमी की रूह से ही कम्प कंपाने लगती है।

तनसुख दीवारों के हाथ तो क्या नजदीक भी नहीं जाता है। पता नहीं कब वह दण्डवत की स्थिति में आ जाय। इस दरिद्रता के चलते चुहे, चिडियाओं की तरह वह कुत्ता जो कभी हमेशा उसकी चरपाई के नीचे ही बैठा रहता था। अब सामने वाले के मकान के आगे रहता है ओर आते जाते उस पर घुर्राता भी है।

तनसुख के भाई बन्द उच्चे महलों में रहते, दिन में चार बार खाते है। उनके यहां अनाज एवं खाने पीने की स्थिति इस प्रकार की है कि वह बाहर ही पडा रहता है। अन्दर रखने की जगह नहीं है। हर साल मनों अनाज सड जाता है। जिसे जानवर तक नहीं खाते, उसे बाहर फेकना पडता है। उन्हें तनसुख की दरिद्रता का मालूम है। उन्हें इस बात का भी मालूम है कि उनके यहां पर गेहूं एवं अन्य खाद्य सामान बरसों से सडता आ रहा है। लेकिन वे इसे मुफत में तनसुख जैसों को बांट कर, उनके स्वाभिमान को गिराना नहीं चाहते है। उनकी समाज एवं राष्ट्र से जुडी हुई श्रेष्ठ सोच है कि किसी भी वस्तु को मुफत में बाटनां मनुष्य के स्वाभिमान को गिराना है। जब मनुष्य का स्वाभिमान गिर जायेगा तो समाज व देश की स्थिति भिखमंगों की जायेगी। बात भी सत्य है।

किसी जमाने में जब सत्य रसूकदारों की चौखट पर खडा पहरेदारी किया करता था, उस समय किसी सज्जन ने दूसरे सज्जन से स्वाभिमान को लेकर कहा था कि”सत मत छोडों शूरमा, सत छोडयां पत जाय। सत की बांधी लछमी फेर मिलेगी आय”A आज कहां है सत्य और स्वाभिमान? देश व समाज के स्वाभिमान की बात करने वालों ने किस सत्य को अपना कर सौहरत हासिल की है।

आज यह जुमला रह रसूकदार की जुबान पर रहता है कि”जिसने की शरम उसके फुटे करम”। वे जब कुछ करते है तो उसमें ना ही तो किसी प्रकार स्वाभिमान आडे आता है और ना ही समाज या देश। उनके सामने होता है एक ही लक्ष्य स्वयं का स्वार्थ भरा अभिमान, कि जैसे भी मिले, उसे प्राप्त कर लों, बस। एक बार प्राप्त हो जाय और वे उस हाईवे पर आ जावें जो शिखर की और जाता है। उसके बाद सारी मर्यादाऐं, स्वाभिमान की बाते पीछे छुटने वालों के लिये रह जावेगी। ऐसे लोग किस स्वाभिमान की बात कर रहे है। ऐसा वह व्यक्ति ही सोच सकता है जिस की संवेदनाऐ मर चुकी हो।

फिर भूख के आगे स्वाभिमान किस कीमत पर बेचा और खरीदा जाता है, किसी से छुपा हुआ नहीं है। हम भूख से मर रहे लोगों को मुफत में अनाज नहीं दे सकते पर आधुनिकता के दरवाजे पर लगाई गई लाईन में भूखे नंगों को खडा कर मुफत में मोबाईल दे रहे है। गैस कनेक्षन दे रहे है। लेकिन अनाज नहीं। यह सब देने से उस भूखे का स्वाभिमान नहीं गिरेगा बल्कि देश का व समाज का स्वाभिमान बढेगा।

शायद जो भूखा मर रहा है वह इस समाज व देश का नागरिक नहीं हो सकता, क्योंकि यदि वह नागरिक होता तो, जब सरकार गरीब लोगों को मोबाईल व गैस कनेक्षन मुफत में दे सकती है तो उसकी भूख पर भी विचार करती।

सामाजिक संदर्भो एवं देश के संविधान के तहत पहले देश है उसके बाद व्यक्ति लेकिन क्या प्रत्येक व्यक्ति जो इस समाज व देश का नागरिक है, उसे आत्मसम्मान के साथ जीने का अधिकार नहीं है? क्या सरकार का दायित्व नहीं बनता कि वह उसकी मूलभूत आवष्यकताओं का ध्यान रखे? लेकिन आजादी के बाद अब तक का जो हमारा ज्ञान रहा है वह मात्र लेने का ही रहा है, देने का नहीं। हमारी संवेदनायें बाहृय मुखी नहीं होकर अन्तरमुखी हो गई है। इसलिये हमें हर समय अपना ही सुख दुख नजर आता है। दूसरों का नहीं।