व्यंग्य-तो कोतवाल जी कहिन-अशोक गौतम

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सरकार के घर तो दिन रात डाके पड़ते रहते हैं, कोर्इ पूछने वाला नहीं। कोर्इ सारा दिन दफतर की कुर्सी पर ऊंघने के बाद शाम को दफतर से चुन्नू को रफ काम के लिए सरकारी रजिस्टर बगल में दबाए, जेब में चार पैन डाले शान से घर आ रहा है तो कोर्इ घर के कर्टन पुराने हो जाने पर अपने दफतर के कर्टन शान से उतार दो बजे ही सरकारी गाड़ी की डिक्की में डाले गुनगुनाते आ रहा है। कोर्इ टाट्रा में में डटा है तो कोर्इ टू जी में। और नहीं तो बन रही सरकारी बिलिडंग का रेता ही बेच रहा है। सबकी अपनी अपनी किस्मत है साहब! जिसके जितने बड़े हाथ उसके हाथ में उतना अधिक सरकारी माल!

अब भैया! सारे लगे तो हैं पूरी र्इमानदारी से सरकारी माल पर हाथ साफ करने, पर कम्बख्त माल खत्म ही न हो तो वे भी क्या करें।

सरकार के घर तो हर पल छिन डाके पड़ते रहते हैं पर कल किसीने साहस कर मुझ लेखक के घर भी डाका डाल दिया। उस वक्त मैं पत्रिका को रचना पोस्ट करने गया हुआ था। लेखक होने की बीमारी के चलते अपने दो ही काम है एक हर कुछ लिखना और दूसरे पूरे साहस के साथ उसे हर पत्रिका को भेजना!

कमरे में डाका पड़ा तो पहले तो मन किया कि जो भी कोर्इ यह काम करने वाला हो उसे चूम लूं। समाज तो मुझे किसी लायक नहीं समझता पर उस बंदे ने तो मुझे किसी लायक समझा। कमरे में होना क्या था बस कागज थे, पैन थे। पर मजे की बात बंदा उन्हें ही उठा ले गया। पहले तो मन में शंका हुर्इ कि ये काम किसी विरोधी खेमे का तो नहीं। वरना, चोरों को कहां कागज पैन सों काम! कुत्ता कुत्ते का उतना खतरनाक दुश्मन नहीं होता जितना लेखक लेखक का होता है।

पबिलसिटी के लिए अपने खेमे के लेखकों ने सलाह दी कि लगे हाथ पुलिस में रपट करा दी जाए, अखबारों में प्रेस नोट दे दिया जाए तो मैंने उन्हें समझाते हुए कहा,’ मित्रो! बस , काफी हो गया! यही खुशी की बात क्या कम है कि किसी सज्जन ने हम लेखकों के घर को अपने काबिल समझा! वरना हमें तो अपने ही घर में घुसते हुए भी षर्म आती रही है। रही बात चोरी हुए पेन, कागज बरामद होने की बात तो हमारे शहर की पुलिए जब आज तक अपने घर में हुर्इ चोरियों का पता नहीं लगा पार्इ तो जनता के घर पड़े डाकों का खाक पता लगाएगी! पर दोस्त नहीं माने तो नहीं माने! वे दोस्त ही क्या जो दोस्त के जिंदा रहते ही उसकी अर्थी शमशान तक न छोड़ आएं?

पुलिस स्टेशन में रपट लिखवाने का फाइनल हुआ तो मुहल्ले वालों ने बि न मांगे ही श्रद्धा से बढ़ चंदा इकटठा कर क्रांतिकारी लेखक संघ के हाथ थमा दिया और संघ के चार चालू नुमाइंदें मेरे साथ पुलिस स्टेशन हो लिए यह तय कर कि जो उनको देने के बाद बचेगा उसकी पी लेंगे । भगवान मुहल्ले वालों का भला करें!

हम सबने कुरते में कालर न होने के बाद भी कालर खड़े किए हुए थे। घंटा भर कांस्टबेल ने हमें पुलिस स्टेशन के बाहर बिठाए रखा मानों हमारे घर में नहीं हमने किसीके घर में डाल रखा हो। आखिर चौथी बार वह मेरे मित्र से खैनी मांग बोला,’ कोतवाल साहब अभी खाने गए हैं। वे खाकर आ जाएं तो रपट लिखा एक जागरूक नागरिक के कर्तव्य से मुक्त हो जाइएगा! अच्छा लगता है जनता का थाने में आना! इस बहाने अपने ऊपर भ्रम बना रहता है, कि तभी कोतवाल साहब आ पहुंचे! आते ही बोले,’ क्या हो गया सेवक राम? बीवी भाग गर्इ क्या? असल में क्या है न कि बंदा आज के महंगार्इ के दौर में कितना ही बीवी को खुष करने की कोषिष कर ले… आजकल बीवियों के भागने का रिवाज सा हो गया है? क्यों सेवक राम ! कोतवाल ने कांस्टेबल सेवक राम से पूछा तो वह झेंपा!

‘ नहीं साहब! हम तो जन्मजात कुंआरे हैं, मैंने सानुनय कहा।

‘गुड! इसे कहते हैं अकलमंदी! तो कैसे आना हुआ? अरे सेवक राम देख क्या रहा है? साहब से पैसे ले कुछ ठंडा वंडा लाओ इनके लिए! उफ ,ये गर्मी अब सहन नहीं हो रही! जरा गला ठंडा हो तो…….मैंने जेब से दो सौ शान से निकाले ताकि कोतवाल को न लगे कि मैं लक्ष्मी का मारा बंदा हूं।

‘ तो क्या हो गया? पड़ोसी पानी की टंकी से पानी चोर ले गया होगा! अरे साहब! आजकल गर्मियों में ऐसा ही होता हैं। लोग हैं कि शहर की फायर बि्रगेड की गाडि़यों से पानी चुराए जा रहे हैं, और कहीं आग लगने पर एक तो उनकी गाडियां अकसर खराब ही रहती हैं पर अगर गलती से ठीक हों तो वे बेचारे घंटियां बजाते शहर के चक्कर तब तक लगाते रहते हैं जब तक कि आग खुद ही नहीं बुझ जाती!

‘ पर वैसा नहीं हुआ साहब!

‘ तो क्या हुआ?? कोतवाल ने चार ठंडे की बड़ी बोतलें लेकर आए सेवक राम की मूंछों पर ताव देते पूछा तो मैंने कहा,’ साहब मेरे कमरे में चोरी हो गर्इ, तो कोतवाल साहब ठंडे की पूरी बोतल एक ही बार में गटकने के बाद बोले,’ घर में कुछ रखते क्यों हो? घर में कुछ रखोगे तो कुछ भी हो सकता है। इसलिए दोस्त! एक तो घर हमेशा खाली रखो और अगर घर में कुछ हो ही तो सपने में भी घर से बाहर मत निकलो! अच्छा तो चोरी होने के बाद घर से बाहर निकले ही क्यों? हमें फोन क्यों नहीं किया?

‘ किया था साहब सौ नंबर वाला, पर किसीने उठाया ही नहीं!

‘ऐसे हम फोन उठाने लग गए फिर तो, असल में हम उसे अधिकतर बंद ही रखते हैं कि पंगों से बचे रहें। आइंदा के लिए मेरी बात गांठ बांध लो कि….. अब देखो चोर कहां नहीं? मेरे तो घर में ही चोर हैं! पर मैं आज तक एक को भी नहीं पकड़ पाया, तो नहीं पकड़ पाया, अरे, जब हममें अपने ही घर के चोर को पकड़ने की हिम्मत नहीं हो पाती तो तुम कैसे सोचते हो कि…’ कह उसने अपने कालर नीचे किए तो मैंने कहा,’ साहब ! घर में कुछ था ही कहां? तो कोतवाल डांटते बोले,’ तो फिर रपट काहे की! पुलिस को बांदी समझ रखा है क्या? चलो निकालो चार सौ और! नहीं तो चोर के बदले तुम्हें ही अंदर कर देंगे! अरे हम चोर पकड़ने के लिए नहीं …यहां तो बस बैठे हैं तो बैठें हैं…, कोतवाल के आदेश पर मित्र ने चुपचाप जेब से चार सौ और निकाले, और उनके हाथ पर धरे! कौन से अपने बाप के थे, चंदे के ही तो थे! दूसरे, चंदा किया भी इकटठा इनके ही लिए तो था। तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा,’ क्या करते हो?

‘ लिखते हैं साहब! मैं तो पहली बार पूरे विश्वास के साथ आपके द्वार आया था कि.. क्रांतिकारी लेखक संघ के हाथ जुड़े तो जुड़े ही रह गए। वे शान से दो दो सौ आपसे में बांटने के बाद बोले,’ देखो! आगे से मेरी आपको एक सीख! भगवान करे आपको कभी पुलिस स्टेशन आने का मौका न मिले। और अगर मिले तो भी गलती से आने का रिस्क न लेना। देखो, यहां किसीके माथे पर तो लिखा नहीं होता कि वह चोर है या…. हम तो हर बंदे को चोर ही समझते हैं , पेशा ही ऐसा है! मातदीन! ठंडा बचा भी या… …

‘ आधी बाटल और है हुजूर! वही जो शराबी से मारी थी, उसे छोड़ने के बदले

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