धर्म-अध्यात्म

श्रीमद्भगवद्गीता है ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वित विज्ञान

-डॉ. मयंक चतुर्वेदी

श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय ज्ञान-परंपरा का वह अद्वितीय ग्रंथ है जिसमें मानव जीवन के सभी स्तरों व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व को सशक्त, संतुलित तथा कल्याणकारी बनाने की क्षमता निहित है। यह धार्मिक अनुश्रुति के साथ ही ज्ञान, भक्ति और कर्म के त्रिवेणी-संगम से निर्मित एक ऐसा शाश्वत दर्शन है जिसकी प्रतिध्वनि हजारों वर्षों से मानव सभ्यता को दिशा प्रदान करती रही है। इसकी महत्ता का प्रमाण यह तथ्य भी है कि ‘गीता’ को भारत समेत विश्‍व भर में सर्वाधिक वितरित किया जाने वाला ग्रंथ माना जाता है, जिसकी मान्यता न्यायिक प्रक्रियाओं से लेकर संविधान तक में परिलक्षित होती है। संविधान की मूल प्रति में अर्जुन को उपदेश देते श्रीकृष्ण का चित्र इसी सांस्कृतिक-दार्शनिक स्वीकार्यता का प्रतीक है। इसलिए भारत में गीता पर जितने भाष्य लिखे गए हैं, उतने शायद किसी अन्य ग्रंथ पर नहीं।

वस्‍तुत: यहीं इसकी बहुअर्थी शक्ति है;  शंकराचार्य ने इसे अद्वैत-ब्रह्म का दार्शनिक आधार बताया, रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत के रूप में भक्तिपरक व्याख्या की, लोकमान्य तिलक ने इसे समाज-क्रांति और कर्मयोग का आधार बनाया, गांधीजी ने सत्य, अहिंसा और कर्तव्य-निष्ठा की दिशा में इसका उपयोग किया और बिनोबा भावे ने इसे सामाजिक न्याय और भूदान आंदोलन के लिए प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया। यह विविधता यह संकेत देती है कि गीता सार्वभौमिक है।

वर्तमान समय में केंद्र सरकार ने गीता को वैश्विक सांस्कृतिक संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है। कुरुक्षेत्र में आरंभ हुआ अंतरराष्ट्रीय गीता महोत्सव इसका उदाहरण है। इस वर्ष चालीस देशों में गीता जयंती का आयोजन होना यह संकेत देता है कि गीता का सनातन संदेश भौगोलिक और सांस्कृतिक सीमाओं से परे मानवता को जोड़ने वाला सार्वभौमिक ज्ञान है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गीता की प्रासंगिकता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इसका अनुवाद अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, उर्दू, अरबी और फारसी सहित अनेक भाषाओं में किया गया है। पश्चिमी देशों के कई विश्वविद्यालय गीता को दर्शन और धार्मिक अध्ययन में पाठ्य सामग्री के रूप में पढ़ाते हैं। 19वीं और 20वीं शताब्दी के अनेक पश्चिमी दार्शनिकों ने गीता की तुलना ग्रीक, रोमन और ईसाई ग्रंथों से करते हुए इसे अधिक समन्वित और मानव-हितकारी बताया है।

 ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो गीता महाभारत के युद्धभूमि पर अर्जुन और श्रीकृष्ण के संवाद के रूप में प्रस्तुत होती है। उत्खनन, समुद्र तल अनुसंधान तथा खगोल-आधारित शोधों के आधार पर महाभारत का काल लगभग ईसा से 3100 वर्ष पूर्व माना जाता है। अत: इस आधार पर गीता का उपदेश मानव जाति को कम से कम पाँच हजार वर्ष पूर्व प्राप्त हुआ। गीता के 700 श्लोकों में 573 श्लोक स्वयं श्रीकृष्ण के वचन हैं, जबकि 84 श्लोक अर्जुन के, 42 संजय के और एक धृतराष्ट्र से जुड़ा हुआ है।

कह सकते हैं कि पिछले पांच हजार सालों से लगातार श्रीमद्भगवद्गीता एक दार्शनिक ग्रंथ होने के साथ ही संवादात्मक साहित्य का संभवतः सबसे प्रभावी उदाहरण बना हुआ है। इसमें 18 अध्याय हैं, जिनमें से प्रत्येक को “योग” नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि वे जीवन के किसी विशिष्ट आयाम के साथ मन को जोड़ने (युज) के उपदेश देते हैं; विषाद, सांख्य, कर्म, ध्यान, भक्ति, संन्यास से लेकर मोक्ष तक की संवाद यात्रा आपको मन की अनेक अवस्‍थाओं में ले जाते हुए अंत में परम शांति में स्‍थापित कर देती है, जहां न राग है, न मोह है, न लोभ है और न ही किसी प्रकार का हर्ष या शोक है।

वस्‍तुत: गीता का मूल उद्देश्य मनुष्य को समस्या से पलायन से मुक्‍त करते हुए समाधान के लिए बौद्धिक, मानसिक और नैतिक शक्ति प्रदान करना है। अर्जुन का विषाद पूरे मानव समाज का प्रतिनिधि है; जब कर्तव्य और भावनाएँ टकराती हैं, जब नैतिकता और व्यवहारिकता के बीच संघर्ष होता है। श्रीकृष्ण का उपदेश बताता है कि समस्या की जड़ अज्ञान और मोह में है। जब व्यक्ति वास्तविकता के ज्ञान से दीप्त होता है तो असमंजस स्वतः दूर हो जाता है। यही कारण है कि गीता ज्ञान, भक्ति और कर्म तीनों मार्गों को समन्वित करती है और बताती है कि जीवन की समग्रता इन तीनों के संतुलन में है।

अध्‍ययन के स्तर पर गीता की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसका बहु-स्तरीय ज्ञान-तंत्र है। इसमें मनोविज्ञान भी है, अध्यात्म भी; समाजशास्त्र भी है और नैतिक दार्शनिकता भी। गीता मनुष्य की इंद्रियों, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की कार्यप्रणाली पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है। यह एक प्रकार से उस काल का “कॉग्निटिव साइंस” कहा जा सकता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक शोधों में जो बातें विवेक, एकाग्रता, भावनात्मक संतुलन और मानसिक दृढ़ता के संदर्भ में कही जाती हैं, गीता हजारों वर्ष पूर्व उन सभी तत्वों को सूत्रबद्ध कर चुकी है।

प्रकृति के पाँच तत्वों पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के साथ मनुष्य की चेतना का संबंध समझाने का दृष्टिकोण गीता को आध्यात्मिक ज्ञान के साथ ही कहना होगा कि ब्रह्मांडीय विज्ञान के रूप में भी स्थापित करता है। इसमें दृश्य जगत से लेकर अदृश्य चेतना तक का विश्लेषण मिलता है। गीता का यह दृष्टिकोण आधुनिक “क्वांटम चेतना” और “कॉस्मिक एनर्जी” संबंधी शोधों से अद्भुत रूप से मेल खाता है। दूसरी ओर गीता का सामाजिक दर्शन कहता है कि यदि व्यक्ति का चरित्र आदर्श, सत्यनिष्ठ, पराक्रमी, संयमी और दृढ़ संकल्प वाला हो, तो परिवार, समाज और राष्ट्र का कल्याण सुनिश्चित है। गीता मूलतः व्यक्तित्व निर्माण का ग्रंथ है, क्योंकि वही व्यापक सामाजिक निर्माण का प्रारंभिक आधार है। शक्ति, विनम्रता, दया, साहस, भक्ति, विवेक, समत्व ये सब गीता में वर्णित वे गुण हैं जो किसी भी राष्ट्र को स्थिरता और प्रगति की ओर ले जाते हैं।

समाजशास्त्रीय स्तर पर गीता यह भी स्पष्ट करती है कि मनुष्य की सफलता का मूल कारण उसका दृष्टिकोण है। समत्व, अर्थात सुख-दुःख, लाभ-हानि और मान-अपमान में संतुलित रहना, आधुनिक तनाव-प्रबंधन और “इमोशनल इंटेलिजेंस” की अवधारणाओं का मूल स्रोत माना जा सकता है। इसी प्रकार निष्काम कर्म अर्थात फल की चिंता से मुक्त होकर कर्तव्य पालन आज के प्रबंधन विज्ञान में “फ्लो स्टेट” और “गोल-डिटैच्ड एफिशियेंसी” जैसे सिद्धांतों से तुलनीय है। गीता का अंतिम और सबसे विशिष्ट संदेश यह है कि मनुष्य को विवेक, वैराग्य और कर्म इन तीनों को साथ लेकर चलना चाहिए। यह संयोजन मनुष्य को सक्रिय रखते हुए भी मानसिक शांति प्रदान करता है। इसलिए गीता युद्धक्षेत्र में जन्मी, परन्तु युद्ध का नहीं कर्तव्य, ज्ञान और भक्ति की समन्वित चेतना का संदेश देती है।