तुम असीम नम्रता के प्रतीक
पेड़ की शाख़ा-से झुके रहे,
और हर बार
और भी झुकते गए।
तुम्हारी स्नेह-दृष्टि अनुकंपा-सरोवर,
तुम्हारे बोल संवेदना से भरपूर ,
शब्द मख़मली,
मैं अनजाने में कभी बे-मुरव्वत
कभी जाने में बेलिहाज़ ,
तुम अकृत्रिम, अप्रभावित
सदैव विनम्र रहे, निरहंकार रहे ,
और इसीलिए अब
जब-जब मैं अपनी अँधियारी
सुनसान सुरंगों में जाती हूँ,
मैं सोचती हूँ-
तुम, तुम मेरे मित्र,
तुम किस मिट्टी,
किस धातु के बने हो!
विक्लव आँधी की सायं-सायं,
दहाड़ते बादलों की गर्जन,
विषम परिस्थितियों का आक्रोश
नियति की क्रूर पुकार –
कोई भी तो तुमको
विचलित नहीं कर सके,
पर मेरी तनिक भी बेरुखी से
तुम सहसा हिल जाते हो,
यूँ अशान्त हो जाते हो, कि जैसे
तुम्हारा समस्त सँसार
पर्वत से अलग हुए
सी पत्थर-सा लुढ़क गया हो,
या, आने वाले कल की किताब
आज खुल गई, और उसमें लिखी
कोई दुखद कहानी बेरहम अतीत की
मानस-पटल पर स्वयं को
दुहरा-दुहरा गई हो —
छोड़ गई कोई उदास सपना
पीला-पीला-दर्दीला
पथरीला,
देर-देर तक जिसके टुकड़े
तुम्हारी निरीह आँखों में चुभते रहे।
जानती हूँ मैं
बहुत उदास हो जाते हो तुम,
मेरी असंवेदनशीलता से
आहत हो जाते हो, टूट-टूट जाते हो,
इस पर भी मेरे कुशल के लिए तुम
भगवान से सहृदय प्रार्थना करते हो,
मेरे लिए तुम मोम-से पिघले रहते हो।
तभी तो पूछती हूँ तुमसे
” मित्र, तुम किस मिट्टी के बने हो? ”
सुनो, असंवेदनशीलता मेरी आदत, मेरी
प्रसमता नहीं है।
मैं भी तुम्हें इस तरह मोम-सा
पिघलता नहीं देख सकती,
भीतर-ही-भीतर रो देती हूँ, गल जाती हूँ,
पर है कोई असंगती मुझमें
कि फिर भी मैं तुम्हारे सम्मुख
पाषाण-मूर्ति-सी तनी रहती हूँ।
विजय निकोर
Binu ji: my heartfelt thanks. I am using a hotel computer, and therefore, do not have Hindi font. Regards, Vijay
अति सुन्दर – हार्दिक बधाई
प्रिय BNG:
आपका हार्दिक आभार।
विजय निकोर
अच्छी अभिव्यक्ति सुन्दर भावपक्ष सुन्दर कलापक्ष,बहुत ख़़ूब।