गीता-विरोध की रणनीति / शंकर शरण

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शंकर शरण

हाल में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने स्कूलों में गीता-सार पढ़ाने के विरुद्ध एक ईसाई याचिका खारिज करते कहा कि वह मजहबी नहीं, दार्शनिक पुस्तक है। यह बात हमारे उच्च और सर्वोच्च न्यायालय पहले भी कह चुके हैं। फिर भी, ईसाई और इस्लामी नेता भारतीय दर्शन-चिंतन के महान ग्रंथों के प्रति सक्रिय विरोध नहीं छोड़ते। कुछ ही पहले कर्नाटक में इस्लामी प्रतिनिधियों ने गीता पढ़ाने को ‘असंवैधानिक’ कहकर न्यायालय में चुनौती दी थी।

ध्यान देने की बात यह है कि न्यायालयों की सुचिंतित सम्मति के बावजूद ईसाई, इस्लामी रणनीतिकार ताक में रहते हैं। मुहम्मद घूरी की तरह बार-बार चढ़ाई करते हैं। भारत का बौद्धिक वर्ग इस से कुछ सीख नहीं लेता। यह अत्यंत चिंताजनक है। एक हिन्दू देश में, बल्कि मूल हिन्दू देश में ही हिन्दू ग्रंथों की शिक्षा का विरोध किया जाता है, और हिन्दू समाज को कुछ समझ में नहीं आता!

कर्नाटक और मध्य प्रदेश, दोनों जगह गीता पढ़ाने के विरुद्ध इस्लामी और ईसाई प्रतिनिधियों की दलील एक ही थी। कि “तब तो कल कोई कुरान और बाइबिल भी पढ़ाना चाहेगा। यदि स्कूलों में मजहबी किताबें पढ़ाई जाने लगेंगी, तो विद्यार्थियों का क्या होगा?” वे प्रतिनिधि जानते हैं कि गीता मजहबी किताब नहीं है। जब किसी भोले, गरीब या फँसे हिन्दू को धर्मांतरित करा कर अपने मजहब में लाना होता है, तो वे यहाँ तक कहते हैं कि हिन्दू धर्म तो कोई रिलीजन ही नहीं। उसके देवी-देवता झूठे हैं। कि हिन्दू तो ‘हीथन’ या ‘काफिर’ हैं, यानी रिलीजन से बाहर। जिसे गॉड / अल्लाह का अनुग्रह नहीं मिलेगा। उसे ईसाई या मुसलमान बनाकर ‘प्रकाश देने’ की पेशकश की जाती है। मगर जब गीता पढ़ाने का विरोध करना हो, तब वह रिलीजस बताई जाती है। क्या हिन्दू समाज के प्रबुद्ध लोग इस स्थाई बैर-भाव के सतत आक्रमण को कभी नहीं समझेंगे?

यह आक्रमण और बैर ही है, यह गीता के विरुद्ध उनके तर्क के पाखंड से भी उजागर है। क्योंकि उन्हीं ‘अल्पसंख्यक’ शिक्षा संस्थानों में, जिनके प्रतिनिधि मध्य प्रदेश और कर्नाटक में न्यायालय गए, बाइबिल, कुरान, हदीस पढ़ाए ही जा रहे हैं। बल्कि मदरसों में तो मुख्यतः वही पढ़ाया जाता है। देश भर में लाखों मदरसों, मकतबों (यहाँ तक कि ए.एम.यू. जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालयों) के पाठ्यक्रम इस का प्रमाण हैं। उन संस्थाओं को न केवल सरकारी अनुदान मिलते हैं, बल्कि उनके प्रमाण-पत्रों को सामान्य शिक्षा संस्थानों के समकक्ष मान्यता दी जा रही है। यानी ठीक मजहबी पुस्तकों की पढ़ाई सरकारी मदद से चलाई जा रही है। जबकि हिन्दू धर्म-दर्शन की महान पुस्तक को पढ़ाने से रोकने का दुराग्रह होता है! वह भी इस मजहबी बताकर।

विभिन्न ईसाई मिशनरियों द्नारा चलाए जा रहे बड़े-बड़े सार्वजनिक स्कूलों में भी बाइबिल पढ़नी होती है। कई जगह उस की परीक्षा भी देनी होती है। उस के लिए छल, प्रलोभन से लेकर प्रताड़न तक उपाय किए जाते हैं। बच्चे के होम-वर्क वाली नित्य प्रयोग की स्कूली डायरी में ईसाई प्रचार वाली दर्जनों प्रार्थनाएं भरी रहती है, जबकि उस में किसी हिन्दू प्रार्थना को स्थान नहीं है। यह ऐसे कान्वेंट स्कूलों में, जहाँ 99% बच्चे हिन्दू हैं। ऐसी सचेत सेमेटिक मजहबी जबर्दस्ती पर आपत्ति नहीं की जाती। किन्तु गीता की दार्शनिक, नैतिक, ज्ञान-चरित्र-वर्धक शिक्षा देने के मामूली प्रयास को भी रोकने का हर उपाय किया जाता है।

सबसे दुर्भाग्य यह है कि ऐसे कुटिल प्रयासों का समर्थन हमारा बुद्धिजीवी वर्ग ‘भगवाकरण’-विरोध के नाम पर करता है। मगर उन्हें कुरान या बाइबिल जैसी पढ़ाइयों पर ‘ईसाईकरण’ का विरोध करते नहीं सुना जाता। ऐसी पढ़ाई को औपचारिक शैक्षिक मान्यता मिली हुई है। ‘इस्लामिक स्टडीज’ के अंतर्गत भारत के बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों में खुला मजहबी शिक्षण हो रहा है, जिस के लिए हिन्दू जनता का धन दिया जाता है। जबकि हिन्दू कहलाने वाली एक महान दार्शनिक कृति को भी शिक्षा से जोड़ने का विरोध होता है! ऐसी कृति का भी जिस का अध्ययन किसी को नैतिक, बौद्धिक रूप से जाग्रत करने की सामर्थ्य रखता है। क्या विरोध इसीलिए होता है?

भारत में ही गीता को शिक्षा से बाहर रखना एक सचेत, हिन्दू-विरोधी जबर्दस्ती है जो हिन्दू जनता पर ही थोपी जाती है। दूसरे मजहबी शिक्षण को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूपों में सहयोग और प्रोत्साहन तक मिलता रहा है। जबकि भारतीय ज्ञान-परंपरा की हर चीज से हिन्दुओं को वंचित करने की जिद है।

गीता वैसी रिलीजियस पुस्तक नहीं, जैसे पश्चिमी समाजों में होती हैं। यह केवल मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने ही नहीं कहा। कई अंतर्राष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त प्रबंधन संस्थानों में गीता का अध्ययन पाठ्य-सामग्री में शामिल है। ताकि अपने काम को ठीक से करने की प्रेरणा, चरित्र और बुद्धि मिल सके। विश्व के अनेकानेक महापुरुषों ने विश्व का यथार्थ समझने के लिए गीता को अनमोल रचना माना है। ऐसे लोग सभी धर्मों, क्षेत्रों के हुए हैं। इसलिए, वस्तुतः गीता का विरोध ही एक घातक मजहबी दृष्टि है।

विश्व के अनेक महान वैज्ञानिक, चिंतक और लेखक गीता से लाभ उठाते रहे हैं। उन में अल्बर्ट श्वाइतजर, अल्डस हक्सले, हेनरी थोरो, लेव टॉल्सटॉय, हरमन हेस, इमरसन आदि नाम तुरत ध्यान में आते हैं। उदाहरणार्थ, हक्सले ने कहा था, “भगवदगीता मानवता के समृद्ध आध्यात्मिक विकास का सबसे सुव्यवस्थित चिंतन है। यह आज तक के सब से शाश्वत दर्शन का एक सबसे स्पष्ट और बोधगम्य सार है; इसलिए इस का मूल्य केवल भारत के लिए नहीं, वरन संपूर्ण मानवता के लिए है।” तुर्की के पूर्व राष्ट्रपति बुलेंत एजेवित भी गीता का नियमित अध्ययन करते थे। उन्होंने इस का अपनी मातृभाषा में अनुवाद भी किया। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव हैमरशोल्ड, केन्या के राष्ट्रपति जामो केन्याता भी गीता-प्रेमी थे। मैक्स वेबर जैसे महान समाजशास्त्री ने गीता को राजनीति और नैतिकता के अंतःसंबंध पर विश्व में सबसे सुसंगत पाठ्य-सामग्री कहा था।

किन्तु स्वयं भारत-भूमि में गीता-विरोध की जिद है। ध्यान दें कि स्वतंत्र भारत में हिन्दू मनीषा के साथ दोहरा अन्याय होता रहा है। यह ब्रिटिश भारत में भी नहीं हुआ था। तब तक गीता हमारे विद्यालयों में नियमित पाठ्य-सामग्री का स्वभाविक अंग थी। किन्तु स्वतंत्र भारत में विडंबना हुई कि आधुनिक शिक्षा के नाम पर पश्चिमोन्मुख, भौतिकवादी और कामकाजी शिक्षा को हिन्दू नौनिहालों पर शिक्षा के एक मात्र रूप में थोपा गया। उसी का कुफल कि आज हिन्दू बुद्धिजीवी निर्मूल हो चुके हैं। तभी तो उन्हें ऐसी प्रवृत्तियाँ चिंतित नहीं करती।

स्वतंत्र भारत में उपनिषद, रामायण, महाभारत, आदि कालजयी ग्रंथों को न ज्ञान-भंडार का सम्मान मिला, न धर्म-पुस्तक का। यदि इन्हें कुरान, बाइबिल की तरह धर्म-पुस्तक माना जाता, तो इन के प्रति कुत्सा फैलाने का दुस्साहस कोई न करता। जो सारे वामपंथी लेखक, प्रचारक करते रहे हैं। आलोचना, भर्त्सना करने के लिए सभी हिन्दू पुस्तकें ‘एकेडमिक’ हो जाती हैं! खिल्ली उड़ाने के लिए ही ‘मेनी रामायन्स’ और ‘300 रामायण’ जैसे पाठ विश्वविद्यालयों के सिलेबस में डाले जाते हैं। किन्तु जब गीता या रामायण को सहजता से पढ़ाने का प्रस्ताव हो, तब इन्हें ‘रिलीजियस’ कहकर दूर रखने का प्रयत्न होता है। इस दोहरेपन को सोची-समझी रणनीति, हिन्दू-विरोधी और ज्ञान-विरोधी षडयंत्र न कहें तो क्या कहें?

भारत में हो रहे इस दोहरे अन्याय को यूरोप के उदाहरण से भी समझा जा सकता है। ईसाइयत संबंधी शिक्षा-विषय वहाँ भौतिकी, रसायन, अर्थशास्त्र आदि की तरह स्थापित है। वह पढ़कर भी हजारों युवा उन्हीं कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से हर वर्ष स्नातक होते हैं जैसे कोई अन्य विषय पढ़कर। तदनुरूप उन की विशिष्ट पत्र-पत्रिकाएं, सेमिनार, सम्मेलन भी होते हैं। ईसाइयत संबंधी विमर्श, शोध, चिंतन के अकादमिक जर्नल ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, सेज, जैसे प्रमुख अकादमिक प्रकाशनों से प्रकाशित होते हैं। इक्के-दुक्के नहीं, अनगिनत। अतः यूरोपीय जगत ईसाइयत के संपूर्ण अध्ययन को सहज विषय के रूप में मुख्य शिक्षा-प्रणाली में सम्मानित आसन देता है। मुस्लिम देशों में तो इस्लामी शिक्षा ही केंद्रीय और बुनियादी शिक्षा है। किन्तु उसी ईसाइयत और इस्लाम के प्रतिनिधि भारत में हिन्दू धर्म-दर्शन की पुस्तक पढ़ाने का विरोध करते हैं! यह निस्संदेह स्थाई बैर-भाव से चलाया जा रहा आक्रमण ही है।

दुर्भाग्यवश असंख्य हिन्दूवादी भी इस स्थायी-बैरभाव के सैद्धांतिक आधार को नहीं समझते, और उलटे इस्लामी दर्शन-नीति-कार्यनीति को बिना समझे उसे श्रद्धा-सुमन चढ़ाते रहते हैं। इस आशा में, कि इस से मुस्लिम उन्हें उदार, मित्र समझकर उन से प्रेम-वार्ता करेंगे, और भाजपा-संघ को समर्थन देने लगेंगे। इसे वे मन ही मन अपनी कुशल राजनीति समझते हैं। जबकि इस्लामी-ईसाई रणनीतिकार इस से अपनी उग्रता में ही प्रोत्साहित होते हैं। यह मानकर, और ठीक ही मानकर, कि उन का वैचारिक-रणनीतिक प्रतिकार करने वाला कोई नहीं है। गाँधी ने यही किया था, और नतीजा करोड़ो हिन्दुओं के बलिदान, अपमान में हुआ। आज हिन्दूवादी वही कर रहे हैं, और गीता, रामायण के हर विरोध को, बल्कि हिन्दू समाज पर हर वैचारिक-सांस्कृतिक हमले को मतिशून्य होकर जाने देते हैं। सबका सारा ध्यान केवल राजनीतिक गददी और वोट बनाने की ओर है। धर्म रहे या जाए, इस की चिंता उन के कार्यक्रमों, बयानों, अभियानों में नहीं झलकती। यह इस्लामी, ईसाई रणनीतिकारों के ठीक विपरीत है, जो हर तरह की छोटी-छोटी लड़ाई गढ़ते, लड़ते रहते हैं ताकि हिन्दू धर्म और समाज को कमजोर करते रह सकें। यदि हाल यही रहा तो उन की सफलता लाजिमी है

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