राजनीति

सत्ता की राजनीति की रणनीति और चुनावी जंग

कुमार कृष्णन 

सबकी नजर बिहार विधानसभा चुनाव पर टिकी है। बिहार की राजनीति केंद्र की सियासत की भी धुरी बनी हुई है। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 को लेकर राजनीतिक दल सक्रिय हैं। सभी पार्टियां उन मतदाताओं को आकर्षित करने का प्रयास कर रही हैं जो निर्णायक साबित हो सकते हैं। युवा और महिला मतदाताओं पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। दलित और पिछड़े वर्गों को लुभाने के लिए घोषणाएं  की जा रही है। पार्टियां 2020 के चुनाव के आंकड़ों का विश्लेषण कर रणनीति बना रही हैं। बिहार  विधानसभा 2025 में कांटे की टक्कर देखने को मिल सकती है। राज्य में मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी महागठबंधन के बीच है। दोनों ही गठबंधन इस बार महिला वोट बैंक को साधने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि बिहार में करीब 3.5 करोड़ महिला वोटर्स हैं। ऐसे में ये महिला वोटर्स इतनी ताकत रखती हैं कि वो एकतरफा ही किसी भी गठबंधन को सत्ता तक पहुंचा दें। इसीलिए इन वोटर्स को लुभाने के लिए राजनीतिक पार्टियों बड़े-बड़े वादे और दावे कर रही हैं।

राजद नेता और पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के नेतृत्व में विपक्षी दलों के महागठबंधन ने सबसे पहले अपना घोषणा पत्र ‘तेजस्वी पत्र’ के नाम से जारी किया था। इसमें महिलाओं के लिए कई योजनाओं का ऐलान किया गया था। कुछ इसी तरह शुक्रवार, 31 अक्टूबर को सत्तारूढ़ गठबंधन यानी राजग ने भी अपना घोषणा पत्र ‘संकल्प पत्र’ जारी किया। उन्होंने भी अपने घोषणा पत्र से इस बात के स्पष्ट संकेत दे दिए हैं कि वे भी महिला वोट बैंक को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं।

बिहार में पहला विधानसभा चुनाव 1951 में हुआ और तब से लेकर अब तक 17 बार विधानसभा के चुनाव का गवाह बिहार रहा है। यह प्रदेश का 18वां चुनाव है। इन चुनावों के दौरान बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में कई बदलाव आए और कई दलों ने अपनी पहचान बनाई। प्रदेश में 1951 से लेकर 1962 तक सत्ता पर कांग्रेस का दबदबा रहा लेकिन, 1967 के विधानसभा चुनाव में यहां कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया। यहीं से बिहार में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत मानी जाती है। यह वही बिहार है, जहां महामाया प्रसाद सिन्हा, कर्पूरी ठाकुर और भोला पासवान शास्त्री जैसे नेताओं के नेतृत्व में अल्पकालिक सरकारें बनीं और बिहार में राजनीतिक अनिश्चितता का दौर भी यहीं से शुरू हुआ।

हालांकि, 1977 का साल आया और बिहार में जनता पार्टी ने चुनाव में 214 सीटों पर जीत दर्ज की और कांग्रेस की करारी हार हुई। एक बार फिर सत्ता में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व की वापसी हुई। यह सरकार भी ज्यादा दिन तक नहीं चली और फिर रामसुंदर दास के हाथों में सत्ता की कमान आ गई।

1980 में कांग्रेस ने बिहार की सत्ता में फिर से वापसी की और तब जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री बने. 1985 में भी कांग्रेस ने अपना प्रदर्शन दोहराया और एक बार फिर सत्ता पर अधिकार कर लिया। इसके बाद का दौर लालू यादव का आया। 1990 में जनता दल की सरकार बनी और लालू मुख्यमंत्री बने। फिर 1995 में भी जनता दल की सरकार बनी और कमान लालू यादव के हाथ ही रही लेकिन, तब तक बिहार में समता पार्टी और भाजपा उभरती ताकतें बन चुकी थीं। 2000 में राबड़ी देवी ने बिहार में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई। इसके बाद दौर आया 2005 का जब बिहार में दो बार विधानसभा चुनाव हुए। फरवरी 2005 में हुए चुनाव में किसी पार्टी को प्रदेश में बहुमत नहीं मिला और यहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इसके बाद अक्टूबर-नवंबर में फिर से चुनाव हुए और जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को बहुमत हासिल हुआ और नीतीश कुमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।

यहीं से बिहार की राजनीति में नीतीश युग का आगमन हुआ और बीच में एक बार जीतन राम मांझी के अल्पकाल को छोड़ दें तो बिहार में सत्ता के शिखर पर नीतीश कुमार ही काबिज हैं।

अब एक बार बिहार की कुछ ऐसी सीटों पर नजर डालते हैं, जिन पर सबकी नजरें टिकी रहती हैं। बिहार की राजनीति में सोनपुर विधानसभा सीट सबसे अहम मानी जाती है। सारण जिले के अंतर्गत आने वाली इस सीट से चुनकर केवल दिग्गज नेता ही विधानसभा तक नहीं पहुंचे बल्कि इस सीट से राज्य को दो मुख्यमंत्री भी मिले। रामसुंदर दास और लालू प्रसाद यादव ने इसी सीट से जीत दर्ज की और बिहार की सत्ता के सिंहासन पर बतौर मुख्यमंत्री काबिज हुए। ये वही सीट है जिस पर 2010 में राबड़ी देवी को हार का सामना करना पड़ा था।

इसके साथ बिहार के सबसे खूबसूरत जिले कैमूर में एक ऐसी विधानसभा सीट भी है जहां पिछले 20 साल से जो नेता भी विधायक बना, उसे बिहार सरकार में मंत्री जरूर बनाया गया हालांकि, इस सीट पर कोई भी पार्टी अपना दबदबा नहीं बना पाई है। यह है कैमूर जिले के अंदर आने वाली चैनपुर विधानसभा सीट। इस सीट से जीते अलग-अलग पार्टी के चार विधायक बिहार सरकार में मंत्री रहे हैं। इसमें भाजपा के लाल मुनी चौबे, राजद के महाबली सिंह, भाजपा के बृजकिशोर बिंद और बसपा छोड़कर जदयू में आए मोहम्मद जमां खां का नाम शामिल है। इसी जिले में रामगढ़ विधानसभा सीट भी आती है, जिससे राजद नेता जगदानंद सिंह जीतते रहे और लालू यादव और राबड़ी देवी की सरकार में 15 सालों तक लगातार मंत्री रहे।

अब बिहार की कुछ और हॉट सीट पर निगाह डालते हैं, जिनमें दरभंगा ग्रामीण, समस्तीपुर, हसनपुर, मोरवा, विभूतिपुर, मधुबनी और लौकहा शामिल हैं। फिलहाल इनमें से छह सीटों पर राजद और एक पर माकपा का कब्जा है। दरभंगा ग्रामीण से राजद के ललित कुमार यादव, समस्तीपुर से अख्तारूल इस्लाम, हसनपुर से तेजप्रताप यादव, मोरवा से रंजय कुमार साह, विभूतिपुर से माकपा के अजय कुमार, मधुबनी से समीर कुमार महासेठ और लौकहा से भरत भूषण मंडल विधायक हैं। सारी 7 सीटें मिथिलांचल क्षेत्र में आती हैं। मिथिलांचल में कुल 30 विधानसभा सीटें हैं, जिनमें से 23 पर एनडीए का कब्जा है, लेकिन ये 7 सीटें विपक्षी गठबंधन के पास हैं।

वहीं, बिहार के लखीसराय का सूर्यगढ़ा सीट है, जिस पर अब तक हुए चुनाव में कभी भी जदयू को जीत हासिल नहीं हुई है। वैसे यह विधानसभा सीट मुंगेर लोकसभा क्षेत्र का हिस्सा है। 1990 तक इस सीट पर कांग्रेस और वाम दलों का कब्जा रहा। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में इस सीट पर राजद ने कब्जा किया। हालांकि, इस सीट पर भाजपा के प्रत्याशी ने भी जीत हासिल की है। यह वही सूर्यगढ़ा क्षेत्र है जहां का ‘सूरजगढ़ा का युद्ध’ आज भी सबको याद होगा। 1534 में शेरशाह सूरी और हुमायूं के बीच यहां ऐतिहासिक युद्ध हुआ था। इस युद्ध में शेरशाह सूरी ने हुमायूं को हराकर दिल्ली की गद्दी हासिल की थी। यहीं भगवान बुद्ध ने पास की एक पहाड़ी पर तीन साल तक तपस्या की थी।

इसके साथ ही बिहार के पूर्वी चंपारण जिले में पड़ने वाली एक हॉट सीट है जहां भारतीय जनता पार्टी पिछले 20 सालों से अजेय है। पूर्वी चंपारण जिले की मोतिहारी सीट जहां से बीजेपी से पहले 2 अन्य दल अपनी जीत की हैट्रिक लगा चुके हैं। कांग्रेस को तो इस सीट पर जीत का स्वाद चखे 45 साल हो गए हैं। इस सीट पर राजद को लगातार 5 बार हार का स्वाद चखना पड़ा है।

वहीं, हिलसा, बरबीघा, मटिहानी, भोरे, सिकटा, कल्याणपुर, बाजपट्टी, किशनगंज, बखरी, खगड़िया, राजापाकर, भागलपुर, डेहरी आन सोन, औरंगाबाद, अलौली, महाराजगंज, सिवान, सिमरी बख्तियारपुर, सुगौली, परिहार, रानीगंज, प्राणपुर, अलीनगर, बहादुरपुर, सकरा, हाजीपुर, बछवाड़ा, परबत्ता, मुंगेर, आरा, टिकारी, झाझा, कुड़हनी, चकाई के साथ रामगढ़ विधानसभा सीट ऐसी हैं, जिसमें हार-जीत का अंतर 12 से 3,000 वोट के बीच का था और इस बार इन सीटों पर दोनों गठबंधन की नजरें टिकी हुई हैं। इसमें से कुछ सीटें एनडीए के पास हैं तो कुछ पर महागठबंधन का कब्जा है। ऐसे में इन सीटों पर पहले की जीत को बरकरार रखना और बाकी की सीटों पर जीत दर्ज करना दोनों ही गठबंधन के लिए चुनौती है क्योंकि परिस्थितियां बदल गई हैं और इस बार एनडीए के साथ चिराग पासवान हैं। जिनकी पार्टी ने वोट काटकर इस सीट पर हार-जीत का अंतर इतना कम कर दिया था। इसके साथ ही दरभंगा की अलीनगर सीट पर भी इस बार सबकी नजर है। इस सीट पर भाजपा की तरफ से मैथिली ठाकुर को उम्मीदवार बनाया गया है।

अब 14 नवंबर को चुनाव परिणाम आने के बाद ही स्पष्ट होगा कि बिहार की जनता का आशीर्वाद किस गठबंधन किस गठबंधन को मिला है और इन सीटों पर जीत-हार का अंतर कितना है।

कुमार कृष्णन