अचानक सभी को “न्यायालय के सम्मान”(?) की चिंता क्यों सताने लगी है?…

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-सुरेश चिपलूनकर

पिछले एक-दो महीने से सभी लोगों ने तमाम चैनलों के एंकरों को गला फ़ाड़ते, पैनलिस्ट बने बैठे फ़र्जी बुद्धिजीवियों को बकबकाते और अखबारों के पन्ने रंगे देखे होंगे कि अयोध्या के मामले में फ़ैसला आने वाला है हमें “न्यायालय के निर्णय का सम्मान”(?) करना चाहिये। चारों तरफ़ भारी शोर है, शान्ति बनाये रखो… गंगा-जमनी संस्कृति… अमन के लिये उठे हाथ… सुरक्षा व्यवस्था मजबूत… भौं-भौं-भौं-भौं-भौं-भौं… ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला-ब्ला… आदि-आदि। निश्चित ही सभी के कान पक चुके होंगे अयोध्या-अयोध्या सुनकर, मीडिया और सेकुलरों ने सफ़लतापूर्वक एक जबरदस्त भय और आशंका का माहौल रच दिया है कि (पहले 24 सितम्बर) अब 30 सितम्बर को पता नहीं क्या होगा? आम आदमी जो पहले ही महंगाई से परेशान है, उसने कमर टूटने के बावजूद अपने घर पर खाने-पीने के आईटमों को स्टॉक कर लिया।

प्रधानमंत्री की तरफ़ से पूरे-पूरे पेज के विज्ञापन छपवाये जा रहे हैं कि “यह अन्तिम निर्णय नहीं है…”, “न्यायालय के निर्णय का पालन करना हमारा संवैधानिक और नैतिक कर्तव्य है”… “उच्चतम न्यायालय के रास्ते सभी के लिये खुले हैं…” आदि टाइप की बड़ी आदर्शवादी लफ़्फ़ाजियाँ हाँकी जा रही हैं, मानो न्यायालय न हुआ, पवित्रता भरी गौमूर्ति हो गई और देश के इतिहास में न्यायालय से सभी निर्णयों-निर्देशों का पालन हुआ ही हो…

प्रणब मुखर्जी और दिग्विजय सिंह जैसे अनुभवी नेता से लेकर “बुरी तरह के अनुभवहीन” मनीष तिवारी तक सभी हमें समझाने में लगे हुए हैं कि राम मन्दिर मामले के सिर्फ़ दो ही हल हैं, पहला – दोनों पक्ष आपस में बैठकर समझौता कर लें, दूसरा – सभी पक्ष न्यायालय के निर्णय का सम्मान करें, तीसरा रास्ता कोई नहीं है। यानी संसद जो देश की सर्वोच्च शक्तिशाली संस्था है वह “बेकार” है, संसद कुछ नहीं कर सकती, वहाँ बैठे 540 सांसद इस संवेदनशील मामले को हल करने के लिये कुछ नहीं कर सकते। यह सारी कवायद हिन्दुओं को समझा-बुझाकर मूर्ख बनाने और मामले को अगले और 50 साल तक लटकाने की भौण्डी साजिश है। क्योंकि शाहबानो के मामलेमें हम देख चुके हैं कि किस तरह संसद ने उच्चतम न्यायालय को लतियाया था, और वह कदम न तो पहला था और न ही आखिरी…।

अरुण शौरी जी ने 1992 में एक लेख लिखा था और उसमें बताया था कि किस तरह से देश की न्यायपालिका को अपने फ़ायदे के लिये नेताओं और सेकुलरों द्वारा जब-तब लताड़ा जा चुका है – गिनना शुरु कीजिये…

एक- यदि हम अधिक पीछे न जायें तो जून 1975 में इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने श्रीमती गांधी को चुनाव में भ्रष्‍ट आचरण का दोषी पाकर छह सालों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्‍य ठहरा दिया था। न्यायालय के इस निर्णय के खिलाफ “प्रायोजित प्रदर्शन” करवाये गये। जज का पुतला जलाया गया। श्रीमती गांधी ने सर्वोच्‍च न्‍यायालय में फैसले के खिलाफ अपील की। उनके वकील ने न्‍यायालय से कहा, ‘’सारा देश उनके (श्रीमती गांधी के) साथ है। उच्‍च न्‍यायालय के निर्णय पर ‘स्‍टे’ नहीं दिया गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे।” सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने सशर्त ‘स्‍टे’ दिया। देश में आपात स्थिति लागू कर दी गई, हजारों लोगों को जेलों में बंद कर दिया गया। चुनाव-कानूनों में इस प्रकार परिवर्तन किया गया कि जिन मुद्दों पर श्रीमती गांधी को भ्रष्‍ट-आचरण का दोषी पाया गया था वे आपत्तिजनक नहीं माने गये, वह भी पूर्व-प्रभाव के साथ। कहा गया कि तकनीकी कारणों से जनादेश का उल्‍लंघन नहीं किया जा सकता। “तथाकथित प्रगतिशील” लोगों ने इसकी जय-जयकार की, उस समय किसी को न्यायपालिका के सम्मान की याद नहीं आई थी।

दो- कई वर्षों की मुकदमेबाजी तथा नीचे के न्‍यायालयों के कई आदेशों के बाद आखिरकार 1983 में सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने आदेश दिया कि वाराणसी में शिया-कब्रगाह में सुन्नियों की दो कब्रें हटा दी जायें। उत्तर प्रदेश के सुन्नियों ने इस निर्णय पर बवाल खड़ा कर दिया (जैसा कि वे हमेशा से करते आये हैं)। उत्तर प्रदेश की सरकार ने कहा कि न्यायालय का आदेश लागू करवाने पर राज्य की शांति, व्यवस्था को खतरा पैदा हो जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ही आदेश के कार्यान्वयन पर दस साल की रोक लगा दी। लेकिन संविधान के किसी “हिमायती”(?) ने जबान नहीं खोली।

तीन- 1986 में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया कि, जिस मुस्लिम पति ने चालीस साल के बाद अपनी लाचार और बूढ़ी पत्नी को छोड़ दिया है, उसे पत्नी को गुजारा भत्ता देना चाहिये। इसके खिलाफ भावनाएँ भड़काई गईं। सरकार ने डर कर संविधान इस प्रकार बदल दिया कि न्यायालय का फैसला प्रभावहीन हो गया। राजीव भक्तों ने कहा कि यदि “ऐसा नहीं करते तो मुसलमान हथियार उठा लेते”। उस समय सभी सेकुलरवादियों ने वाह-वाह की, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को जूते लगाने का यह सबसे प्रसिद्ध मामला है।

चार-अक्तूबर 1990 में जब वी.पी.सिंह ने मण्डल को उछाला तो उनसे पूछा गया कि यदि न्यायालयों ने आरक्षण-वृद्धि पर रोक लगा दी तो क्या होगा? उन्होंने घोषणा की- हम इस बाधा को हटा देंगे, यानी संसद और विधानसभाओं में बहुमत के आधार पर न्यायालय के निर्णय को धक्का देकर गिरा देंगे, “प्रगतिशील”(?) लोगों ने उनकी पीठ ठोकी… न्यायालय के सम्मान की कविताएं गाने वाले दुबककर बैठे रहे…

पांच- 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने कावेरी जल विवाद पर अपना फैसला सुनाया-
“न्यायाधिकरण के आदेश मानने जरूरी हैं” परन्तु सरकार ने आदेश लागू नहीं करवाये। कभी कहा गया कर्नाटक जल उठेगा तो कभी कहा गया तमिलनाडु में आग लग जायेगीन्यायपालिका के सम्मान की बात तो कभी किसी ने नहीं की?

छह- राज्यसभा में पूछे गये एक सवाल- कि रेल विभाग की कितनी जमीन पर लोगों ने अवैध कब्जा जमाया हुआ है? रेल राज्य मंत्री ने लिखित उत्तर में स्वीकार किया कि रेल्वे की 17 हजार एकड़ भूमि पर अवैध कब्जा है तथा न्यायालयों के विभिन्न आदेशों के बावजूद यह जमीन छुड़ाई नहीं जा सकी है क्योंकि गैरकानूनी ढंग से हड़पी गई जमीन को खाली कराने से “शांति भंग होने का खतरा”(?) उत्पन्न हो जायेगा… किसी सेकुलर ने, किसी वामपंथी ने, कभी नहीं पूछा कि “न्यायालय का सम्मान” किस चिड़िया का नाम है, और जो हरामखोर सरकारी ज़मीन दबाये बैठे हैं उन्हें कब हटाया जायेगा?

सात अफ़ज़ल गुरु को सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ाँसी की सजा कब की सुना दी है, उसके बाद दिल्ली की सरकार (ज़ाहिर है कांग्रेसी) चार साल तक अफ़ज़ल गुरु की फ़ाइल दबाये बैठी रही, अब प्रतिभा पाटिल दबाये बैठी हैं… सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय और सम्मान(?) गया तेल लेने।

आठलाखों टन अनाज सरकारी गोदामों में सड़ रहा है, शरद पवार बयानों से महंगाई बढ़ाये जा रहे हैं, कृषि की बजाय क्रिकेट पर अधिक ध्यान है। सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि अनाज गरीबों में बाँट दो, लेकिन IMF और विश्व बैंक के “प्रवक्ता” मनमोहन सिंह ने कहा कि “…नहीं बाँट सकते, जो उखाड़ना हो उखाड़ लो… हमारे मामले में दखल मत दो”। कोई बतायेगा किस गोदाम में बन्द है न्यायपालिका का सम्मान?

ऐसी अनेक घटनाएं हैं, जिनमें सरेआम निचले न्यायालय से लेकर, विभिन्न अभिकरणों, न्यायाधिकरणों और सर्वोच्च न्यायालय तक के आदेशों, निर्देशों और निर्णयों को ठेंगा दिखाया गया है, इनमें जयपुर के ऐतिहासिक बाजारों में अवैध निर्माण को हटाने के न्यायालय के आदेशों से लेकर कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा एक “अवैध मस्जिद” को नष्ट करने के आदेशों तक की लम्बी श्रृंखला है, जिनकी अनुपालना “शांति भंग होने की आशंका”(?) से नहीं की गई, इसके उलट बंगाल की अवैध मस्जिद को तो नियमित ही कर दिया गया।

इनका पहला सबक है, कि सरकार और कानून एक खोखला मायाजाल है। जब शासक वर्ग श्रीमती गाँधी की तरह अपने स्वार्थों के लिये कानून को बदल देता है, जब न्यायालय आपात-स्थिति में दिए गये निर्णयों की तरह शासकों के भय से खुद कानून की हत्या कर देते हैं, जब सरकार शाहबानों मामले की तरह “एक वर्ग के भय”(?) से घुटने टेक देती है, जब सरकार आतंकवादियों की चुनौती का सामना करने में कमजोर साबित होती है तो दूसरे भी यह नतीजा निकालते हैं, कि सरकार को झुकाया जा सकता है- झुकाया जाना चाहिये, कि न्याय और कानून भी ताकतवर के कहे अनुसार चलते हैं, परन्तु राम मन्दिर के मामले में हिन्दुओं को लगातार नसीहतें, भाषण, सबक, सहिष्णुता के पाठ, नैतिकता की गोलियाँ, गंगा-जमनी संस्कृति के वास्ते-हवाले सभी कुछ दिया जा रहा हैकारण साफ़ है कि यह उस समुदाय से जुड़ा हुआ मामला है जो कभी वोट बैंक नहीं रहा, हजारों जातियों में टुकड़े-टुकड़े बँटा हुआ है, जिसका न तो कोई सांस्कृतिक स्वाभिमान है, और न ही जिसे इस्लामिक वहाबी जेहाद के खतरे तथा चर्च और क्रॉस की “मीठी गोलीनुमा” छुरी का अंदाज़ा है।

सेकुलरिज़्म के पैरोकार और वामपंथ के भोंपू जिसे ‘हिन्दू कट्टरपंथी’ कहते हैं वह रातोंरात पैदा नहीं हो गया है, उन्होंने देखा है कि सामान्य निवेदनों पर जो न्यायालय और सरकार कान तक नहीं देते वे “संगठित समुदाय के एक धक्के” से दो सप्ताह में ही ध्यान से बात सुनने को तैयार हो जाते हैं। यह सबक अच्छा तो नहीं है, पर कांग्रेसी सरकारों और कछुआ न्यायालयों ने ही यह सबक उन्हें सिखाया है। कांग्रेस का छद्म सेकुलरिज़्म, वामपंथ का मुस्लिम प्रेम और हिन्दू विरोध, हुसैन और तसलीमा टाइप का सेकुलरिज़्म और कछुआ न्यायालय ये चारों ही हिन्दू कट्टरपंथ को जन्म देने वाले मुख्य कारक हैं…

रही मीडिया की बात, तो उसे विज्ञापन की हड्डी डालकर, ज़मीन के टुकड़े देकर, आसानी से खरीदा जा सकता है, खरीदा जा चुका है…। जहाँ मुस्लिम और सिख साम्प्रदायिकता ने लगातार सरकार से मनमानी करवाई है, हमारे समाचार-पत्रों और चैनलों ने दोहरे-मापदण्ड, और कुछ मामलों में तो “दोगलेपन” का सहारा लिया है। जम्मू के डेढ़ लाख शरणार्थियों की अनदेखी इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। क्योंकि यदि वे मुसलमान होते, तो क्या समाचार-पत्र और मानवाधिकार संगठन उनको इस तरह कभी नजर अन्दाज नहीं करते। मीडिया ने पिछले कुछ दिनों से जानबूझकर भय और आशंका का माहौल बना दिया है, ताकि आमतौर पर सहिष्णु और शान्त रहने वाला हिन्दू इस मामले से या तो घबरा जाये या फ़िर उकता जाये।

अयोध्या मामले में भी अखबारों और बिकाऊ चैनलों का यही रुख है। किसी अखबार ने यह नहीं लिखा, कि मध्य-पूर्व के देशों में सड़कें चौड़ी करने जैसे मामूली कारणों से सैंकड़ों मस्जिदें गिरा दी गई हैं। किसी अखबार ने नहीं लिखा कि सऊदी अरब की सरकार ने सामान्‍य नहीं, बल्कि पैगम्‍बर के साथियों की कब्रों और मकबरों तक को ध्‍वस्‍त किया है। जब यह दिखने लगा कि वि.हि.प. द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य वजनी हैं तो उनको अनदेखा किया गया, पुरातात्विक साक्ष्यों को मानने से इंकार कर दिया गया, फ़र्जी इतिहासकारों के जरिये तोड़-मरोड़कर पेश किया गया। इस दोगलेपन ने भी हिन्दुओं का गुस्सा उतना ही भड़काया है, जितना सरकार के मुस्लिम साम्प्रदायिकता के सामने घुटने टेकने ने। हिन्दुओं का यह वर्षों से दबा हुआ गुस्सा, बाबरी ढाँचे के विध्वंस या गुजरात दंगों के रुप में कभीकभार फ़ूटता है।

बकौल अरुण शौरी… “…इस दोगलेपन तथा वहाबी साम्प्रदायिकता और आतंकवाद के सामने घुटने-टेकू सरकारी नीति के कारण हिन्दू भावनाएँ जितनी उग्र हो गई है उनको कम समझना जबर्दस्त भूल होगी…”। संदेश साफ है, ”यदि आप शाहबानों के मामले में सरकार से समर्पण करा सकते हैं तो हम अयोध्या के मामले में ऐसा करेंगे। यदि आप 10 फीसदी का वोट बैंक बना रहे हैं, तो हम 80 प्रतिशत लोगों का वोट-बैंक बनायेंगे, चाहे उसके लिये कोई भी तरीका अपनाना पड़े”। न्यायालय का सम्मान तो हम-आप, सभी करते हैं, लेकिन उसे अमल में भी तो लाकर दिखाओ… सिर्फ़ हिन्दुओं को नसीहत का डोज़ पिलाने से कोई हल नहीं निकलेगा।शाहबानो और अफ़ज़ल गुरु के मामलों में उच्चतम न्यायालय की दुर्गति से सभी परिचित हो चुके हैं, “न्यायालय के सम्मान” के नाम पर हिन्दुओं को अब और बेवकूफ़ मत बनाईये… प्लीज़।

अयोध्या का राम मन्दिर आन्दोलन सात सौ साल पहले हुए एक “दुष्कर्म” का विरोध भर नहीं है, यह तो गत सत्तर सालों की नेहरुवादी-मार्क्सवादी राजनीति के विरोध का प्रतीक है, विशेष कर पिछले दस-बीस सालों की तुष्टीकरण, दलाली, दोमुंहेपन और वोट बैंक की राजनीति का, इसलिये अयोध्या विवाद का हल किसी ‘फारमूले’ में नहीं है। मानो यदि किसी हल पर सहमति हो भी जाती है लेकिन सेकुलर-वामपंथी राजनीति का घृणित स्वरूप ऐसा ही बना रहता है तो अयोध्या से भी बड़ा तथा उग्र आन्दोलन उठ खड़ा होगा।

फ़िर मामले का हल क्या हो??? सीधी बात है, न्यायालय की “टाइम-पास लॉलीपाप” मुँह में मत ठूंसो, संसद में आम सहमति(?) से प्रस्ताव लाकर, कानून बनाकर राम मन्दिर की भूमि का अधिग्रहण करके उस पर भव्य राम मन्दिर बनाने की पहल की जाये, सिर्फ़ और सिर्फ़ यही एक अन्तिम रास्ता है इस मसले के हल का… वरना अगले 60 साल तक भी ये ऐसे ही चलता रहेगा…

16 COMMENTS

  1. डा: पुरुषोतम मीना जी संभवत: आपका संकेत लखनऊ शहर से है| लखनऊ शहर के नाम पर कोई उच्च न्यायालय नहीं है| जी हाँ, ईलाहाबाद हाई कोर्ट के स्थाई लखनऊ बेंच द्वारा ही फैसला लिया गया है जो सामान्यता ईलाहाबाद हाई कोर्ट के नाम से जाना जाता है|

  2. I would like to see more such articles in teh media. This is need of the day that such powerful articles grounded in truth reach every Bharteeya so that they can learn about the true history of Bharat and its political parties as well as its leaders. I bet very few people in Bharat know that Indira Gandhi was found guilty of corruption charges by the High court.
    Thank you very much Suresh Ji. You are doing a great service to the nation by bringing truth in front of people (specially youth).

  3. मुस्लिम और सिख साम्प्रदायिकता ने लगातार सरकार से मनमानी करवाई है इस शब्द पर आपत्ति है ! 1984 के सिख विरोधी दंगे जो की सुनियोजित थे देश भर में निर्दोष सिक्खों को लुटा गया बहु बेटियों की अस्मत को लुटा गया सिक्ख यूवको के गले में जलते टायर डाल कर जलाया गया आज तक न किसी को सजा मिली और न ही मुआवजा मिला क्यों , क्योकि यह देश भक्त कौम है क़ुरबानी देना जिसके खून में समाया है आपका लेख बहुत अच्छा है परन्तु एक शब्द ने पुरे लेख की सार्थकता को ख़त्म कर दिया ! आज भी पाकिस्तान में सिक्ख असुरकझित है उनसे तालिबानियों द्वारा जजिया कर वसूला जाता है कश्मीर में कश्मीरी पंडित तो पलायन कर चुके है परन्तु 60000 सिक्खों को आज भी धर्म परिवर्तन के लिए डराया जा रहा है परन्तु अफ़सोस आप की सोच ………………………………

  4. सुरेश जी, आपने बड़े सशक्त ढंग से समझा दिया है कि न्यायपालिका और सरकार उन्ही के काम करेगी जिनमें दम होगा. केवल १०% मुस्लिम अपनी नाजायज़ मांगें मनवा सकते हैं तो फिर हम ८०% हिन्दू अपनी जायज़ मांगें क्यों नहीं मनवा सकते? केवल इसी लिए कि हम राजनैतिक रूप में अभी संगठित नहीं हैं. यदि हम मतदाता के रूप में एक हो जाएँ तो किस में दम है जो
    -हमारी उपेक्षा कर सके. एक विदेशी लुटेरे, हत्यारे आक्रान्ता के स्मारक का नासूर भारत की छाती पर बनाने की हिमामायत कर सके.
    – देश के दुश्मन बाबर के पक्ष में एक शब्द भी बोलने का साहस कर सके.
    * तो कुल मिला कर सन्देश यही है कि यदि सम्मान से जीना है, देश के दुश्मनों से रक्षा करनी है, अपने देवों के पूजा स्थलों को बचाना है तो मतदाता के रूप में संगठित होना पडेगा. वरना यूँही एक-एक करके हम हर मोर्चे पर अपने म्मान, सुरक्षा, सम्पत्ती और स्वत्व को गंवाते रहेंगे.

  5. आदरणीय श्री चिपलूनकर जी,
    नमस्कार।

    मैं आपकी इस बात से तो शतप्रतिशत सहमत हूँ कि मीडिया द्वारा जैसा माहौल इस बार निर्णय के सुनाये जाने से पूर्व बनाया गया, वैसा पहले कभी भी किसी भी निर्णय के सुनाये जाने से पूर्व नहीं बनाया गया, लेकिन आपने जितने भी उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, वे सब मिलकर इस एक मामले के समक्ष तुच्छ हैं। इसलिये देश में शान्ति और सद्भाव बनाये रखने के लिये यदि हाई कोर्ट के निर्णय का सम्मान करने की बात किसी भी ओर से कही गयी या कही जाती रही तो उसका एक मात्र वही अर्थ नहीं है, जैसा कि आपका सोचना है? इसके अलावा इस बार कोर्ट के निर्णय का सम्मान करने की मांग केवल उन्हीं के द्वारा नहीं की गयी, जिन्हें आपने गिनाया है, बल्कि उनके द्वारा भी की गयी, जिन्हें आपने सम्भवत: जानबूझकर नहीं गिनाया!

    आदरणीय श्री चिपलूनकर जी, समाज एवं देश में शान्ति एवं सद्भाव बनाये रखना और सारी बातों से महत्वूपर्ण है। फिर भी आपको अपनी बात अपनी तरह से कहने का सम्पूर्ण हक है।

    आदरणीय श्री चिपलूनकर जी, आपने अपने आलेख में सुप्रीम कोर्ट के अनेक ऐसे निर्णयों का हवाला दिया है, जिन्हें संसद द्वारा निष्प्रभावी कर दिया गया। इस प्रकार की एकपक्षीय जानकारी एक साथ पढकर रोमांचित होने वालों के लिये एवं इस जानकारी को आगे उसी प्रकार से जैसे आपने अरुण शौरीजी को उद्धरित किया है, उद्धरित करने वालों के लिये संग्रहणीय है।

    आदरणीय श्री चिपलूनकर जी, मुझे जानकर आश्चर्य हुआ कि मण्डल कमीशन को छूकर भी आप एक ऐसे आपके प्रिय विषय को कैसे अछूता छोड गये, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिये संविधान में पहला संशोधन किया गया था और उसके बाद लगातार संविधान में अनेक संशोधन किये जा चुके हैं। निकट भविष्य में भी संशोधन सम्भावित है। आश्चर्य कि इतना महत्वपूर्ण निर्णय आप जैसे व्यक्ति द्वारा कैसे भुला दिया गया? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस बारे में अन्तिम बार जो संशोधन किया गया था, उस समय भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार थी?

    आदरणीय श्री चिपलूनकर जी, मैं विनम्रतापूर्वक याद दिला रहा हूँ। सुप्रीम कोर्ट ने सबसे पहले तो आरक्षण को असंवैधानिक ही घोषित कर दिया था। उसके बाद आदेश दिया था कि आरक्षित वर्ग के लोक सेवक को पदोन्नित में आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। इसे संसद ने बदल दिया, फिर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि आरक्षण प्राप्त करके आरक्षित वर्ग का कनिष्ठ लोक सेवक उच्च पद पर पदोन्नत हो भी गया तो वह निचले पद पर वरिष्ठ रहे सामान्य वर्ग के लोक सेवक के बाद में उच्च पद पर पदोन्नत होने पर फिर से कनिष्ठ हो जायेगा। इसे भी संसद ने बदल दिया। देखें अनुच्छेद 16 के उप अनुच्छेद 4 एवं इसके उपखण्डों में लगातार संशोधन किये गये।

    शुभाकांक्षी
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  6. सुरेश चिपलूनकर जी का लेख बिना मिलावट और ढोंग के अपने में उस सत्य को संजोए है जो किसी धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति को भारत की अखंडता और सार्वजनिक हित को ध्यान में रख बहुमत का आदर करने को बाध्य कर देता है|

    मैंने अभी अभी ईलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला पढ़ा है और ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकतर भारतीय इस फैसले से संतुष्ट हैं| मैंने यह भी सुना है कि एक पक्ष के वकील नें असंतुष्टि जताई है|

    मेरा अपना विचार है कि इस गंभीर स्थिति में मुसलमान समुदाय को अपने हिंदू भाईयों के प्रति सद्भावना दिखाने का विशेष अवसर नहीं खोना चाहिए और इस प्रकार छ: दशक से चली आई इस समस्या के समाधान में अपना सहयोग दे भारत में बलिदान और सहनशीलता का गौरव बढाना चाहिए|

    ऐसी स्थिति में साम्प्रदायिक विष घोलने वाले उपद्रवी तत्वों पर कड़ी निगरानी रखी जानी चाहिए ताकि भारत में रहते दोनों धर्मों के अनुयायी और दूसरे वर्ग के लोगों में आपसी प्रेम और सद्भावना बनी रहे और सब मिल भारत को उन्नत्ति के मार्ग में आगे बढाते रहें|

    • “मैंने अभी अभी ईलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला पढ़ा है…”
      ईलाहाबाद हाईकोर्ट के स्थान पर लखनऊ हाईकोर्ट होना चाहिए.
      डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  7. न्याय के मंदिरों का उपहास उड़ने वालो सावधान .देखो सारा संसार भारत की न्याय पालिका की जय जय कार कर रहा है .लखनऊ पीठ के फैसले पर सारा भारत और सभी धर्मों के अनुयायी अपना सम्मान प्रकट कर चुके हैं .लेकिन कुछ तो होंगे ही जो इसमें भी राजनीती खोजेंगे .हो सकता है की अपनी भड़ास पूर्व वत जारी रखें .
    हो सकता है की उच्चतम न्यायलय में भी कोई पक्ष अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करे .
    किन्तु यह sunishchit है की अब कोई एक पक्ष यह दावा नहीं कर सकता की वो सम्पूर्ण भूमि का स्वामित्व धारक है .यह फैसला भारत की सर्व धर्म समभाव और उसके सांस्कृतिक वैविध्य को पुष्ट करने में सहायक सावित होगा .यह देश के हित में है .श्री सुरेश चिपलूनकर जी के प्रतिगामी आक्रामक विचारों और मनघडंत उद्धरणों को शिद्दत से ठुकराया जा चूका है .

  8. Dear Sir,
    Indian Judicialy is just like a joge chalna aaje pahuchna pichhe, yae koie nai bat nahi hai, Indian judicialy me yak to jujment diclear is late jujsment is not implemtnted.
    Thank you
    you are absuletely right.
    Rajesh kumar.

  9. शुरेश जी बहुत बहुत धन्यवाद
    कांग्रेस हमेशा से ही देश तोरने का कार्य कर रही है चाहे कोई बकी कांग्रेस की प्रधानमंत्री हो सभी ने तुस्तिताकन को बदहवा दिया है

  10. मैं केबल इतना कहना चाहता हूँ की आपको देश के सबसे बड़े नीति निर्धारक योजना आयोग अथवा प्रधानमंत्री का सलाहकार होना चाहिए
    आपके लेख जानकारी के स्त्रोत के रूप मैं संग्रह के पात्र हैं

  11. सुरेश चिपलूनकर जी प्रवक्ता.कॉम के
    सचिन तेंदुलकर आप ही है. जबरदस्त….!

  12. सत्य वचन. धन्यवाद सुरेश जी. सोई हुई आम जनता को जगाने का
    पुनीत कार्य करते रहिये.

  13. आदरणीय सुरेश भाई आप के लेख पढने के बाद बोलने के लिये कुछ रह ही नहीं जाता. सत्य को पूर्ण रूप से निचोड़ कर आप हमारे सामने इस तरह से प्रस्तुत करते हैं कि कोई जवाब ही नहीं. एक एक वाक्य, उस वाक्य के एक एक शब्द में सत्य का ही निवास है. और एक ऐसा सत्य जो सबको जागने के लिये मजबूर कर देता है.

    यदि आज हमारे देश में थोडा बहुत गर्व करने लायक बचा है तो वह केवल आप जैसे राष्ट्रभक्तों के कारण ही है अन्यथा इन शर्मनिर्पेक्षियों ने तो कब का देश को बलि चढ़ा दिया होता.

    आपने इतने सारे उदाहरण गिना ही दिए जब न्यायालय के निर्णयों की धज्जियां इन कांग्रेसियों और सेक्युलरों द्वारा अपने क्षुद्र स्वार्थों को पूरा करने के लिये उड़ाई गयीं. किन्तु अब जब हिन्दुओं का मामला सामने आया तो माननीय(?) नयायपालिका की याद आ गयी. कसाब के मामले में भी तो न्यायपालिका के आदेशों का उलंघन ही किया है इन सेक्युलरों ने.

    सुरेश भाई वैसे तो इन महत्वपूर्ण तथ्यों से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है, किन्तु फिर भी इन पर कभी इस प्रकार विचार ही नहीं गया. इस महत्वपूर्ण सहयोग के लिये बहुत बहुत धन्यवाद…

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