डॉ. एच.एस. राठौर
पृथ्वी पर जीवन विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी एवं सूक्ष्म जीवों के रूपों में प्रकट होता है और एक समय पर इनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है जिसे मृत्यु कहते है। मनुष्य जीवों में सर्वश्रेष्ठ है एवं विकासवाद के क्रम में सर्वोच्च स्थान पर है। सबसे परिष्कृत मस्तिष्क एवं किसी भी ऋतु में सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता सिर्फ मनुष्यों में ही विकसित हुई है। जीवों का जन्मजात (नैसर्गिक) व्यवहार उनकी प्रवृत्ति (इंसटिंक्ट) के अनुसार ही होता है। यह उनके मस्तिष्क एवं ग्राह्य अंगों से निंयत्रित होता है। विकासवाद के अनुसार जैसे-जैसे तंत्रिका तंत्र विकसित हुआ, वैसे जीवों की प्रवृत्ति (व्यवहार) भी बदलती गई। प्राणियों में सीखने की प्रवृत्ति भी विकसित हुई एवं वानरों तक विकास होते होते एक प्रवृत्ति और विकसित हो गई जिसे लरनिंग-रिसनिंग नाम दिया गया जिसका अर्थ है सीखना-सोचना एवं सीख के अनुभव की याद के आधार पर नयी समस्या हल करने की क्षमता।
मानव के मस्तिष्क में सोचने, समझने, विचार करने एवं समस्याओं के निदान की अद्भुत क्षमता होती है। इस अवस्था में मनुष्य में पशुओं वाली (पाशविक) प्रवृत्तियाँ न्यूनतम स्तर पर होती है एवं नियंत्रित भी होती है (भूख, प्यास, नींद, क्रोध, सहवास आदि)। सही मायनों में प्रवृत्तियों का नियंत्रित प्रवाह ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ बनाता है। कुछ मनुष्यों में मस्तिष्क की अवस्था बाल्यकाल से, कुछ में विशेष वातावरण से एवं कुछ में अभ्यास से मनन में भी उच्चतर स्थित में पहुँच जाती है जिसे प्रज्ञा कहते हैं। ऐसे व्यक्ति की गणना समझदार या ज्ञानियों में होती है। आमजनों में भी ऐसे व्यक्ति को सुलझे हुए व्यक्तित्व वाला समझा जाता है।
हर युग में मनुष्यों के जीवन के पुराने परम्परागत तरीकों से हट कर कुछ नये अवसर आते हैं जिनके लिए युवाओं में एवं बच्चों में भी आकर्षण होता है। इससे प्रतिस्पर्धाएँ निरन्तर बढ़ती है एवं सफलता- असफताओं का सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है। असफल युवा कुछ प्रयासों के बाद अपनी पसन्द बदलते हुए अन्य मुकाम पर पहुँच जाते हैं । इस स्थिति में भी अधिकांश लोग जो भी प्राप्त हो गया, उससे संतुष्ट होकर विवाह करके जीवन यात्रा प्रारम्भ कर देते है। कुछ वर्तमान नौकरी के साथ कोई बेहतर विकल्प तलाशते हैं, उसकी तैयारी भी करते है एवं सफल भी होते हैं। कुछ युवा भारी मन से जो मिल गया, उसे कुंठा के साथ निर्वाह करते हैं एवं मन में मलाल पाल लेते हैं कि उन्हें उनकी काबिलियत से कम प्राप्त हुआ है। कुछ तो अवसाद की अवस्था में पहुँच जाते है।
असंतोष – असफलता का नतीजा आत्महत्या जैसे सामाजिक अपराध में होता है। पिछले कुछ वर्षों में आत्महत्या के मामलों के आँकड़े बढ़े है जो गंभीर चिन्ता का विषय है। सभी आयु, लिंग, धर्म एवं व्यवसाय के लोगों में आत्महत्या करने के मामले जानकारी में आते रहते है। इस मुद्दे पर कुछ कहने-सुनने-लिखने पढ़ने से पहले कुछ तथ्यों पर गौर करना आवश्यक होगा। विकासवाद के सिद्धान्तों के अनुसार प्राणी मात्र में हर हाल (परस्थिति) में जिन्दा रहने की तमन्ना के साथ बेहतर जीवन जीने की एवं अधिकतम सन्तान उत्पन्न की नैसर्गिक प्रवृत्ति होती ही है। ऐसा नहीं होने की दशा में जीवों का विकास सम्भव ही नहीं था अतः जीव सदैव जिन्दा रहना चाहता है, चाहता रहेगा जब तक शरीर प्राकृतिक या दुर्घटनावश मृत्यु को प्राप्त नहीं हो जाता।
जाहिर है कि जीवों (प्राणियों) में आत्महत्या जैसा व्यवहार होना अपेक्षित ही नहीं हालांकि कुछ जीवों में ऐसा व्यवहार देखा गया जिससे ऐसा भ्रम एवं असमंजस्य ही रहा कि विकासवाद के समय आत्महत्या की प्रवृत्ति तो नहीं पनप रही थी। इसी संदर्भ में यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं जिनका आधार उपलब्ध प्रकाशित शोधपत्र एवं विकीपीडिया हैं जो इस धारणा को पूरी तरह से नकारने में सहायक होंगे कि आत्महत्या कोई नैसर्गिक प्रवृत्ति रही है।
कई पक्षियों के नर-मादा के जोडे़ में से किसी एक की मृत्यु के बाद साथी धीरे-धीरे भोजन-पानी छोड़ देता है जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है। कुछ कुत्ते एवं घोड़े घर के हर सदस्य द्वारा दिया गया भोजन ग्रहण नहीं करते हैं एवं जिस सदस्य ने कुत्ते या घोड़े को प्रारम्भ से ही लालन-पालन किया हो, उसकी मृत्यु के पश्चात् भोजन-पानी ग्रहण नहीं करते एवं मृत्यु को प्राप्त होते है। वास्तव में पशु-पक्षी किसी व्यक्ति या माहौल के आदी हो जाते हैं एवं उससे वंचित होने पर, आदत से लाचार होने पर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अतः इस तरह के प्रकरणों को आत्महत्या से जोड़ना सर्वथा गलत होगा। कुछ कुत्तों एवं बत्तखों द्वारा स्वयं को जल में डुबाकर मारने की घटनाओं का भी जिक्र मिलता है परन्तु सच्चाई विवादित ही रही।
अफ्रीका में पाये जाने वाले काले मुँह के बन्दरों के समूह के कुछ बन्दर (वरवेट मंकी) किसी हिंसक पशु के आने पर जोरो से शोर मचाकर आक्रमणकारी को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं ताकि शेष साथी भाग सके। प्रायः शोर मचाने वाले बन्दर आक्रमणकारियों द्वारा मार दिये जाते हैं परन्तु ऐसी घटनाओं को आत्महत्या का प्रयास तो नहीं माना जा सकता है। एक डाल्फिन द्वारा अपने आपको दम घोंट कर मरने का आरोप एक टेलीविजन शो के मार्फत साठ के दशक में प्रदर्शित फिल्म ‘द कोव’ में बताया गया था जिसकी पुष्टि वैज्ञानिकों द्वारा कभी नहीं की गई। अरस्तू ने एक घोड़े द्वारा आत्महत्या करने का जिक्र उनकी पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ ऐनीमल्स’ में मिलता है हालांकि इसकी पुष्टि नहीं की गई।
जीवों का विशेष व्यवहार ‘ एलट्रूइजम’ (परोपकारिता या परहितवाद) जिसका सम्बन्ध विकासवाद से भी जोड़ा गया है, इसका उदाहरण देखते है। एक मादा मकड़ी स्टीगोडायफस का स्वयं के नवजात शिशुओं द्वारा भक्षण एवं एक मकड़ी के नर का उसी की मादा द्वारा निशेचण पश्चात् खाया जाना। ये उदाहरण एलट्रूइजम की पराकाष्ठा है. इसके बावजूद इसे आत्महत्या तो नहीं कहा जा सकता।
शोधकर्ताओं ने मनुष्य में सेल्फ डिस्ट्रक्शन बिहेवियर (स्वयं को कष्ट या हानि पहुँचाने का प्रयास) जैसे मुद्दे को असामान्य श्रेणी का व्यवहार माना एवं आत्महत्या को भी इसमें शामिल कर लिया। आनुवांशिकी आधारों (जेनेटिक बेसिस) को जानने हेतु केंडीडेट जीन (जिम्मेदार डी.एन.ए. के हिस्से) को पहचानने की दिशा में भी गहन शोध कार्य किये गये। सिरेटोनिन को व्यक्ति का मिजाज नियंत्रक (मूड रेगुलेटर) रसायन मानकर इसके निर्माण में गड़बड़ी का कारण मानव जीन टी.पी.एच. वन में माइक्रोडिलीशन एवं सिरेटोनिन रिसेप्टर की गड़बड़ी आत्मघाती व्यवहार की जिम्मेदार ठहराई गई। महिलाओं में पुरूषों से दुगुने आत्महत्याओं का सम्बन्ध एक्स क्रोमोसोम में जुड़े जीन (एचटीआरटूसी) से भी जोड़ा गया। सम्भव है कि भविष्य में प्रसव पूर्व आनुवांशिकी विकृतियों के निदान हेतु गर्भस्थ भ्रूण के जीनोम (प्रत्येक कोशिका के केन्द्र स्थित डीएनए) के अध्ययन (प्रिनेटल डायग्नोसिस) से ऐसी आनुवांशिकी गड़बड़ियों का पता लगने से आनुवांशिकी सलाह केन्द्र की सिफारिश उपरान्त विधि सम्मत चिकित्सीय आनुवांशिक विज्ञानी की निगरानी में गर्भपात किया जा सकेगा। भविष्य में ऐसी जागरूकता एवं सुविधाएँ होने से ही शब्द कोषों से ‘आत्महत्या’ जैसा घृणित शब्द एवं समाज से आत्महत्या जैसा सामाजिक अपराध लुप्त हो सकेगा। वास्तव में आत्महत्या किसी भी सामान्य जीव की नैसर्गिक प्रवृत्ति है ही नहीं। यदि ऐसा होता तो सभी जीवों में यह प्रवृत्ति समान रूप से देखने को मिलती।