स्वामी सत्यानन्द रचित ऋषि दयानन्द के भावपूर्ण जीवनचरित की भूमिका में प्रस्तुत महत्वपूर्ण विचार

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मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानन्द के प्रमुख जीवन चरितों में एक जीवन चरित है ‘श्रीमद्दयानन्द प्रकाश’। इस ग्रन्थ के लेखक हैं स्वामी सत्यानन्द जी। स्वामी दयानन्द जी के जीवन चरितों में पं. लेखराम जी रचित जीवन चरित का शीर्षस्थ स्थान है। अन्य सभी जीवन चरित उनके द्वारा संग्रहित जीवन चरित की सामग्री के आधार पर ही लिखे गये हैं। अन्य महत्वपूर्ण जीवन चरितों में पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय, मास्टर लक्ष्मण आर्य (उर्दू), श्री हर विलास शारदा (अंग्रेजी), डा. भवानीलाल भारतीय रचित नवजागरण के पुरोधा, श्री रामविलास शारदा आदि लिखित जीवन चरित आते हैं परन्तु सभी जीवन चरितों में स्वामी सत्यानन्द जी द्वारा लिखित ‘श्रीमद्दयानन्द प्रकाश’ जीवन चरित का अपना महत्व है। वह महत्व इस ग्रन्थ की प्रभावशाली भाषा है। ऋषि दयानन्द जी का अनुयायी बनने से पूर्व स्वामी सत्यानन्द जी जैन मत के अनुयायी बताये जाते हैं। आपने ऋषि भक्त बनने के बाद अनेक उपदेश दिये और पत्र-पत्रिकाओं में लेख आदि लिखे। उनका एक ग्रन्थ ‘सत्योपदेशमाला’ है जिसके अनेक संस्मरण छप चुके हैं। बहुत वर्ष पहले आर्यसंसार, कलकत्ता के विशेषांक रूप में भी यह ग्रन्थ प्रकाशित हुआ था। सम्प्रति यह ग्रन्थ ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ द्वारा भव्य रूप में प्रकाशित होकर सुलभ है। इस ग्रन्थ की भाषा भी मन व आत्मा को आनन्दित करती है।

 

स्वामी सत्यानन्द जी ने ऋषि दयानन्द जी का जो जीवन चरित लिखा है उसकी भूमिका भी अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली है। इसका प्रथम पैरा तो हृदय को झंकृत कर देता है। हमने वर्षों पूर्व जब आर्य विद्वानों से इस ग्रन्थ की प्रंशसा सुनकर इसे पढ़ा तो हमने इसे उसके अनुरूप व उससे अधिक ही पाया। यही कारण था कि हमने युवावस्था में ही भूमिका के कुछ प्रमुख शब्दों वा वाक्यों को स्मरण कर लिया था। आज हम यह पूरी भूमिका पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि निम्न हैः

 

‘‘महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन रूप संघर्षण ही ने मेरी अन्तरात्मा मे आस्तिक भाव की ज्योति को प्रकट किया है। विश्वास शिला पर आरूढ़ होने के समय से अपने धार्मिक जन्मदाता महापुरुष के प्रति, मेरे हृदय में गाढ़ अनुरागवृत्ति और अगाध भक्ति अनवच्छिन्न रुप से चली आई है। इस कारण, आर्यसमाज के धर्म क्षेत्र में रात्रिदिवा विचरण करते, जहां कहीं से अद्वितीय दयानन्द के गुणों का कोई मणि मोती मिल जाता, तो मैं उसे बड़ी सावधानी से अपनी टिप्पणी पत्रिका की पेटी में टिप्पण कर सुरक्षित रख लेता। फिर, प्रसंगानुसार, अपने भाषणों में, व्याख्यानों में, कथाओं में, वार्तालाप में बार-बार उनका कीर्तन करता। इस प्रकार अनेक वर्षों की कार्य तत्परता से मेरे पास ऋषिराज के समुज्जवल वृत्तान्तों की एक रत्नराशि संचित हो गई।

 

इसके अतिरिक्त, पांच वर्ष तक, ऋषि-जीवन की विशेष सामग्री एकत्र करने के प्रयोजन से, मैंने विशेष पर्यटन किया। उस यात्रा में जहां मुझे महाराज के उत्तमोत्तम वृत्त प्राप्त हुए, वहां अतिशय वृद्ध ऋषि-भक्तों के चित्तादर्श में उनकी मनोहर छवि देखने का भी सौभाग्य उपलब्ध हुआ। जिस समय वयोवृद्ध भक्तजन प्रेमाश्रुओं से अपने कपोलों को, आंचलों को, अपने वक्ष-स्थलों को सिंचन करते, ऋषि के रहन-सहन का, बोल-चाल का, रीति-नीति के कर्म-क्रिया का, दिनचर्या का और आपादमस्तक, मनोमोहिनी मूर्ति का वर्णन करते-करते गद्गद् हो जाते, तब पता लगता कि आर्यसमाज का आदर्श पुरुष कितना महान् है, कितना उत्तम है और कितना पवित्र है।

 

इस भूरि परिभ्रमण से, मेरे पास, महाराज के जीवन-समाचार की कई टिप्पणी पत्रिकायें हो गईं। मैं चाहता तो यही था कि अभी दो वर्ष तक और मनन करूं, परन्तु गत शीतकाल में मेरी विचार-परम्परा में परिवर्तन आ गया। मैंने निश्चय कर लिया कि आगामी उष्णकाल में, किसी एकान्त प्रदेश में अधिक नहीं तो व्याख्यानमाला की माला तो निर्माण कर ही लेनी चाहिये।

 

मुख्य दो कारणों से, मैंने दो वर्ष पहले लेखनी अवलम्बन की। एक तो सज्जन स्नेही पुनः-पुनः प्रेरणा करते थे कि टिप्पणी पत्रिकाओं को पुस्तकाकार कर देना उचित है, इनके खो जाने का भी भय है। आज कल करते कार्य, रह भी जाया करते हैं। दूसरे गतवर्ष के पौष और फाल्गुन में मैंने दो बार काशी की, यात्रा की। वहां कई दिनों तक रहकर स्वर्गीय देवेन्द्रनाथ द्वारा संग्रह की हुई ऋषि-जीवनी की सामग्री को भी देखा। उनकी टिप्पणी पत्रिकाओं को सुना। उनमें कई ऐसी पत्रिकायें थीं जिनके पृष्ठों के पृष्ठ पढ़े नहीं जाते थे, संकेत समझ में नहीं आते थे। प्रसंगों के मिलाने में कठिनता से काम लेना पड़ता था। उन पर से प्रति उतारने वाला अटकल और अनुमान से काम लेता था। स्वर्गीय बाबू की संगृहीत सामग्री की ऐसी अस्तव्यस्त अवस्था देखकर मैंने मन ही मन कहा कि किसी के अधूरे छोड़े कार्य की पीछे ऐसी ही दशा होती है। मुझे अपनी टिप्पणियों को यथासम्भव शीघ्र ग्रन्थन कर देना चाहिये।

 

ऊपर कहे कारणों से प्रेरित हो, गत उष्णकाल में, मैंने एक बहुत ही विविक्त स्थान में रहकर इस पुस्तक को लिखा। इसमें आर्यपथिक श्री लेखरामजी की सामग्री से बड़ा भारी भाग लिया है। कई प्रश्नोत्तरों और लेखों को संक्षिप्त तो करना पड़ा  है, परन्तु भावों की सुरक्षा पर पूरा ध्यान रक्खा है। ‘भारत सुदशाप्रवर्तक’ आदि समाचार-पत्रों से भी कुछ एक अंश लिये गये हैं।

 

इतनी महार्घता के युग में, मैं इस ऋषिकथा को मुद्रण न कर सकता यदि लाहौर निवासी पण्डित ठाकुरदत्त शर्मा, अधिपति अमृतधारा, सुप्रसिद्ध सर्जन रायसाहिब डा. मथुरादासजी, अमृतसर के प्रसिद्ध डा. श्रीयुत सत्यपालजी, श्रीयुत लाला जयदयालजी कपूर और लाला देवीदयालजी कोटनक्का निवासी अपनी उदारता से मुझे प्रोत्साहित न करते। पंजाब के प्रसिद्ध हिन्दी लेखक श्री सन्तरामजी बी.ए. ने मेरी लिखी पुस्तक की मुद्रणालय के लिये शुद्ध और स्वच्छ प्रति उतारने में प्रभूत परिश्रम किया है। श्री पं. ठाकुरदत्तजी के लघुभ्राता पं. श्री हीरानन्द जी का मैं हार्दिक घन्यवाद करता हूं कि तीसरे संस्करण से संशोधनादि का भार अपने ऊपर लेकर वे इस पुस्तक को सुन्दर बनाने में भरसक प्रयत्न करते रहे हैं। इन सज्जनों की सहायता से आज मैं महर्षि के महत्व रुप मणिमुक्ताओं की महामूल्य माला आर्यमण्डल को अतिशय समादर और सम्मान से समर्पण करता हूं। -सत्यानन्द सम्वत् 1975’’

 

स्वामी सत्यानन्द जी ने अपनी भूमिका की पहली पंक्ति में ही लिखा है कि ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाशादि के अध्ययन रूप संघर्षण ने ही उन्हें आस्तिक वा ईश्वर विश्वासी बनाया है। वह यह भी बताते हैं कि जब उनका ईश्वर पर विश्वास हो गया तभी से उनके हृदय में ऋषि दयानन्द जी के प्रति गाढ़ अनुरागवृत्ति और अगाध भक्ति अनवच्छिन्न रूप से चली आई है। अन्य अनेक तथ्यों का उद्घाटन भी इस भूमिका से हो रहा है, अतः हमने इस पूरी भूमिका को पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। पता नहीं क्या कारण रहे होंगे कि बाद में वह राम भक्ति में खो गये और उन्होंने ‘श्रीराम शरणम्’ मत की स्थापना की। जो भी हो उनके द्वारा ऋषि दयानन्द का दिया गया जीवन चरित आर्यसमाज की साहित्यिक सम्पदा का एक महत्वपूर्ण रत्न है। हमारे एक स्थानीय मित्र हैं कर्नल रामकुमार आर्य। पिछले दिनों हमने उन्हें यह जीवन चरित पढ़ने के लिए दिया। वह इस जीवन चरित से इतने प्रभावित हैं और कहते हैं कि उन्होंने पूर्व वर्षों में जो पढ़ा वह अपनी जगह है और यह ग्रन्थ व इसकी सामग्री का स्थान अपनी जगह एवं अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जिन ऋषि भक्तों ने यह जीवन चरित पढ़ा है वह भाग्यशाली हैं। जिन्होंने न पढ़ा हो तो उन्हें एक बार इसे अवश्य पढ़ना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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