भारत माता की महान सपूत स्वामी विवेकानंद


आधुनिक विश्व को भारतीयता से परिचित कराने वाले नरेन्द्र नाथ दत्त उर्फ स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकत्ता में हुआ। वह दौर पश्चिम के अंधानुकरण और स्वसंस्कृति के प्रति हीनभावना का था। ऐसे समय में स्वामी विवेकानंद ने भारतीयों में आत्मसम्मान और गौरव का भाव भरा। 1893 में अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद जिसका मुख्य उद्देश्य पश्चिम की श्रेष्ठता की स्थापना था वहां स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति का ऐसा डंका बजाया जिसकी गूंज पूरे विश्व में सदियों तक रहेगी। भारत और भारतीयों की आस्था और विश्वास को अंधविश्वासी, रूढिवादी और हमारे ज्ञान को बेकार  कहने वालों के समक्ष 11 सितम्बर, 1893 को स्वामी विवेकानंद ने भारतीय दर्शन के बहुलतावाद, सहिष्णुता को स्थापित किया। शिकागो धर्म संसद और उसके पश्चात स्वामीजी ने अमेरिका, ब्रिटेन और पश्चिम के बौद्धिक जगत जिसमे हावर्ड और आक्सफर्ड भी शामिल थे, को भारत की ज्ञान परम्परा से साक्षात्कार कराया। कुछ विचारक उसे पूर्व और पश्चिम की  मान्यताओं और जीवन मूल्यों का प्रथम तुलनात्मक अध्ययन घोषित करते हैं तो कुछ की दृष्टि में वह घटना भारतीय स्वतंत्रता का बौद्धिक, आध्यात्मिक स्वतंत्रता का शंखनाद था। वास्तविकता यह है कि वह एक ऐसा शास्त्रार्थ था जिसने भारत और भारतीयता को विश्व मंच पर प्रतिष्ठित किया।

यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि 19वीं शताब्दी औद्योगीकरण और विज्ञान की विजय की प्रतीक रही है, जहां बौद्धिकता, तर्क  का परचम लहराने का प्रयास किया जा रहा था। पश्चिम में अध्यात्म पर भौतिकवाद की श्रेष्ठता, समाज और राष्ट्र की विचित्र अवधारणाएं प्रस्तुत की जा रही थी। डार्विन, फ्रायड, हेगेल, मार्क्स जैसे विचारक एक ऐसे संसार की अवधारणा प्रस्तुत कर रहे थे जहां संघर्ष ही मानव का एकमात्र सत्य है।  उस वातावरण में शिकागो की विश्व धर्म संसद में दिये अपने भाषण में स्वामी विवेकानंद ने गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत, पुनर्जन्म के लिए जैनेटिक्स (आनुवांशिकी) और डी.एन.ए की बात की। यह स्वामीजी की बौद्धिक तार्किकता और वैज्ञानिकता का जादू था कि पश्चिम अपने ही तर्कों में उलझ गया। पश्चिम यह जानकर अभिभूत था कि उन्होंने भारतीय वाड्मय के मात्र एक अंश को ही उनके सम्मुख रखा है। उनकी प्रतिभा को देखते हुए हावर्ड विश्वविद्यालय ने उन्हें अपने यहां प्रोफेसर के रूप में कार्य करने का प्रस्ताव किया। स्वामी विवेकानंद ऐसे संन्यासी थे जिनकी प्राथमिकता स्वयं के लिए यश या मोक्ष नहीं, अपने देश के हर व्यक्ति के दुखों की समाप्ति थी। इसीलिए उन्होंने भारत लौटकर ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ का उद्घोष करते हुए दीन दुखियों की सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। 1894 में स्वामी अखण्डानन्द को लिखे पत्र में उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘खेतड़ी नगर की गरीब और नीची जातियों के घर घर जाओ और उन्हें धर्म का उपदेश दो। उन्हें भूगोल तथा अन्य इसी प्रकार के विषयों की मौखिक शिक्षा भी दो। निठल्ले बैठे रहने और राजभोग उड़ाने तथा .’हे प्रभु रामकृष्ण’ कहने से कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक कि गरीबों का कुछ कल्याण न हो। …..तुमने पढ़ा है, मातृदेवो भव, पितृदेवो भव- अपनी माता को ईश्वर समझो, अपने पिता को ईश्वर समझो- परन्तु मैं कहता हूँ दरिद्रदेवो भव, मूर्खदेवो भव – गरीब, निरक्षर, मूर्ख और दुःखी, इन्हें अपना ईश्वर मानो। इनकी सेवा करना ही परम धर्म समझो। किमधिकमिति। आशीर्वाद पूर्वक सदैव तुम्हारा,   विवेकानंद।’  (वि.सा./खण्ड 3 / पृ.-357, पत्रावली)
वेदों को गडरियों का गीत कहने वालों को वेदों की धरती भारत का दर्शन समझाने वाले स्वामी विवेकानंद ने कर्म सिद्धांत को आधार बना जीवन की व्याख्या की तो भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और प्राणी शास्त्र की भारतीय आध्यात्म की दृष्टि से विवेचन प्रस्तुत की। उस काल के कुछ तथाकथित समाज सुधारकों द्वारा फैलाये गये झूठ का बहुत आत्मविश्वास पर्दाफास करते हुए कहा, ‘हमारे समाज में विधवा होते ही हर स्त्री को जलाने का प्रचार मिथ्या है क्योंकि मेरी स्वयं की मां विधवा है लेकिन वह न केवल जीवित है बल्कि अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह कर रही है।’
 स्वामीजी सिंह गर्जना करते हैं, ‘मुझे गर्व है कि मै ऐसे धर्म से संबंध रखता हूॅ जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों सिखाया है। मुझे गर्व है कि मैं ऐसे राष्ट्र से हूॅ जिसने सभी धर्माे और पृथ्वी के सभी देशों के शरणार्थियों को समाहित किया है।’ विवेकानंद का यह कथन भी महत्वपूर्ण है कि व्यक्ति का स्वस्थ होना आवश्यक है। ईश्वर भक्ति के साथ व्यक्ति को राष्ट्रभक्त भी होना चाहिए।
अपनी राजयोग नामक पुस्तक में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, ‘यदि ईश्वर है तो उसका साक्षात्कार करना होगा। यदि आत्मा नाम की कोई चीज है तो उसकी उपलब्धि करनी होगी। अन्यथा विश्वास न करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। इसके लिए हम जिस ढंग से भौतिक शास्त्र पढ़ते- समझते हैं, उसी ढंग से धर्मविज्ञान भी समझना-सीखना होगा।’ कहा तो यह भी जाता है स्वामी विवेकानंद की राजयोग संबंधी पुस्तक विश्वविख्यात लेखक टालस्टाय ने बहुत मनोयोग पढ़ी थी।  
पश्चिम की मनगढ़ंत अवधारणाओं का नकारते हुए ‘प्राच्य और पाश्चात्य’ विषयक लेख में स्वामीजी लिखते हैं – ‘यूरोपीय पण्डितों का यह कहना कि आर्य लोग कहीं से घूमते फिरते आकर भारत में जंगली जाति को मार काट कर और जमीन छीन कर स्वयं यहाँ बस गए, केवल अहमकों की बात है। आश्चर्य तो इस बात का है कि हमारे भारतीय विद्वान भी उन्हीं के स्वर में स्वर मिलते हैं और यही सब झूँठी बातें हमारे बाल-बच्चों को पढ़ाई जाती है-यह घोर अन्याय है। ……… यूरोपियनों को जिस देश में मौका मिलता है, वहाँ के आदिम निवासियों का नाश करके स्वयं मौज से रहने लगते हैं, इसलिए उनका कहना है कि आर्य लोगों ने भी वैसा ही किया है!  यूरोप का उद्देश्य है-सबको नाश करके स्वयं अपने को बचाये रखना। आर्यों का उद्देश्य था-सबको अपने समान करना अथवा अपने से भी बड़ा बनाना।’ ( वि.सा./खण्ड 10 / पृ. 110-112 )
‘हिन्दू और यूनानी’ नामक लेख में स्वामी जी लिखते हैं, ‘यूनानी राजनीतिक स्वतंत्रता की खोज में था। हिन्दू ने सदैव आध्यात्मिक स्वतंत्रता की खोज की। दोनों ही एकपक्षीय हैं। भारतीय राष्ट्र की रक्षा या देशभक्ति की अधिक चिन्ता नहीं करता, वह केवल अपने धर्म की रक्षा करेगा, जबकि यूनानियों में और यूरोप में भी (जहाँ यूनानी सभ्यता प्रचलित है) देश पहले आता है।  केवल आध्यात्मिक स्वतंत्रता की चिन्ता करना और सामाजिक स्वतंत्रता की चिन्ता न करना एक दोष है, किन्तु इसका उलटा होना तो और भी बड़ा दोष है। आत्मा और शरीर दोनों की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न किया जाना चाहिए।’ वि.सा./खण्ड 1/ पृ. 286)
29 सितंबर 1894 को अपने प्रिय शिष्य आलासिंगा पेरुमल को लिखे पत्र में कहते हैं, ‘विकास के लिए पहले स्वाधीनता चाहिए। तुम्हारे पूर्वजों ने पहले आत्मा को स्वाधीनता दी थी इसलिए धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास हुआ, पर देह को उन्होंने सैकड़ों बंधनों के फेर में डाल दिया, बस इसी से समाज का विकास रुक गया। पाश्चात्य देशों का हाल ठीक इसके विपरीत है। समाज में बहुत स्वाधीनता है, धर्म में कुछ नहीं। इसके फलस्वरूप वहाँ धर्म बड़ा ही अधूरा रह गया, पर समाज ने भारी उन्नति कर ली।’ .( वि.सा./खण्ड 3 / पृ.. 317, पत्रावली)
12 जनवरी उनके जन्मदिवस को युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है ताकि भारत का हर युवा उनसे प्रेरणा ले। हर युवा को जानना चाहिए कि अध्ययन में उनकी विशेष रूचि थी। आरंभ में नरेन्द्र बहुत तर्कशील थे। यहां तक कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस के ईश्वर से प्रत्यक्ष मिलन का मजाक उड़ाया करते थे। उनके तर्को से एक नहीं, अनेक बार परमहंस जी आहत तक हुए। लेकिन अपनी जिज्ञासाओं से मुक्ति के लिए संवाद जारी रखा। नरेन्द्र और परमहंस जी के एक बहुचर्चित संवाद के अनुसार –  
नरेन्द्र  –  हमारा जीवन जटिल क्यों है ?
परमहंस  –  विश्लेषण न करो जीवन का। बस उसे जियो। आनंद पूर्वक जियो। विवेक के साथ जियो। तुम विवेकानंद हो।
नरेन्द्र  –  हमें दुख क्यों होता है ?
परमहंस    –  दुख हमारा स्वभाव बन गया है। दुख होता नहीं है। वह एक तुलनात्मक  अवस्था है। सुख का न होना दुख नहीं होता। सुख और दुख दोनों से ही दूर रहो।
नरेन्द्र  – अच्छे लोगों का जीवन कष्टप्रद क्यों होता है?
परमहंस  – कष्ट एक प्रक्रिया है जीवन की श्रेष्ठता की। सोना तपकर शुद्व होता है। हीरा भी रगड़ा जाने पर ही चमकता है। कष्ट एक परीक्षा है। अच्छे लोग उस परीक्षा से गुजरते हैं तभी उनका जीवन सार्थक होता है।
नरेन्द्र  –  सफलता का आधार क्या है ?
परमहंस  –  सार्थकता। सफलता और सार्थकता में अंतर है। दूसरों के मापदण्ड सफलता होते हैं किंतु संतुष्टि स्वयं का मापदण्ड है। सफल होना एक सामान्य उपलब्धि है किंतु सार्थकता अन्यतम है।
नरेन्द्र  –  कर्म कैसे करें ?
परमहंस – निस्वार्थ। यह ध्यान दो कि तुमने अब तक क्या किया। मत सोचो कि कितना और  चलोगे।
लगातार ऐसे प्रश्नों से परमहंस ने जान लिया था कि एक नया सूर्य उदित होने को है जो धर्म, अध्यात्म और प्रेम का मार्ग प्रशस्त करेगा। जब नरेन्द्र ने अपने गुरु के जीवन को असाधारण और अपना सर्वस्व ईश्वर को समर्पित करने वाला पाया तो इसका उन पर ऐसा प्रभाव हुआ कि उन्होंने सुबह मिला तो शाम के भोजन की चिंता नहीं की। सात समुद्र पार हजारों मील दूर शिकागो पहुंचने पर पता खो गया तो उन्होंने मालगाड़ी के डिब्बे में रात बितायी। अपार कष्ट सहते हुए भी विश्व धर्म संसद में अपने संबोधन के इस प्रथम वाक्य से सबका दिल जीत लिया। उन्होंने कहा –

मेरे अमरीकी बहनों और भाइयों!
आपने जिस सम्मान सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैं उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलने वाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने महान जरथुष्ट जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है। भाईयो मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं-
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
अर्थात जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
यह सभा, जो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक है स्वतः ही गीता के इस अदभुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत के प्रति उसकी घोषणा करती है-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। 

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।
अर्थात जो कोई मेरी ओर आता है-चाहे किसी प्रकार से हो, मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। पर अब उनका समय आ गया हैं और मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो।’
स्वामी विवेकानंद जी के उस ऐतिहासिक भाषण का एक-एक शब्द और उनके जीवन का प्रत्येक क्षण भारतीय संस्कृति को प्रतिष्ठित करता है। उनपर एक नहीं, असंख्य ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। भारत माता के महान सपूत स्वामी विवेकानंद जी को पढ़, समझ और आत्मसात कर भारत निश्चित विश्वगुरु के मार्ग पर अग्रसर होगा।

डा. विनोद बब्बर 

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