फिर लौटी लूणी की मिठास

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दिलीप सिंह बीदावत

यह तीसरा अवसर है लूणी में पानी के प्रवाह का। इससे पूर्व 2017 में अरावली क्षेत्र में हुई
भारी बारिश से बाढ़ के हालात बने थे। सालों से सूखी पड़ी लूणी नदी में पानी के बहाव को
देखने हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। इस बार पाली जिले में अधिक बरसात होने के कारण
सूकड़ी और बांडी नदी के उफान ने लूणी की प्यास बुझाई। अथाह पानी देखकर मरूधरा के
लोगों का ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा, वहीं इस नदी की कोख से मुनाफा देखने वाले भी कम
खुश नहीं है। नदी के बहाव के साथ बजरी की आवक बढ़ने से अवैध खनन माफिया अभी से
लाखों के मुनाफे का सपना देख रहे हैं, वहीं नदी के किनारे पर आबाद रंगाई-छपाई के कारखाने
भी कुछ दिन चोरी-छिपे केमिकल युक्त रसायन पानी में डालकर इस बहती मरूगंगा में हाथ
धो लेंगे। नदी के उद्गम स्थल से लेकर अंतिम छोर तक किनारे पर बसे लोगों के लिए भी
हर्ष का विषय है। पिछले दो सालों में इस नदी में डंप किए गए कचरे की संड़ाध से कुछ
समय मुक्ति मिल जाएगी। नदी अपने बहाव के साथ कचरा कच्छ के रण में उड़ेल देगी।

  
विकास के नाम पर विनाश की
लीला के कारण दशकों से सूखी पड़ी
मारवाड़ की मरू गंगा पर कुदरत
मेहरबान हो रही है। भले ही यह
जलवायु परिवर्तन का असर है कि
कहीं कम और कहीं ज्यादा बरसात
हो रही है, लेकिन लूणी नदी के लिए
यह सकारात्मक पल है। सदियों से
जन-जीवन की प्यास बुझाने वाली
यह नदी विकासकर्मियों, व्यवसाइयों, उद्योगपतियों, खनन तथा भू-माफियाओं, नेताओं और
नौकरशाहों के शोषण व जनसमुदाय की अनदेखी के चलते अपने अस्तित्व पर आसूं बहा रही
थी। लेकिन कुदरत की मेहरबानी से एक बार फिर लूणी खिलखिला उठी है। अपने उद्गम स्थल
पश्चिमी रेगिस्तान की धरा से बहते हुए कच्छ के रण में समाहित होने वाली लूणी में पानी
के बहाव की खबर लोगों के लिए हर्ष का विषय रही। किनारों पर बसे सैकड़ों गांवों के लोग
नदी के स्वागत के लिए आए। पर्यावरण प्रेमियों ने पूजा-अर्चना की। किसानों ने खोई हुई
समृद्धि को याद किया। जनसमुदाय ने सूखे जल संसाधनों के फिर से भरने की कामना की।

अजमेर जिले की नाग पहाड़ियों से यात्रा शुरू कर पश्चिमी राजस्थान में 330 किलोमीटर बहने
वाली यह नदी थार के रगिस्तान के लिए कभी वरदान थी। अपने उद्गम स्थल से यात्रा प्रारंभ
करते हुए नागौर, जोधपुर, पाली, बाड़मेर, जालौर में बहते हुए असंख्य झरनों, नालों और आधा
दर्जन सहायक नदियों का जल लेकर कच्छ के रण में प्रवाहित होने वाली इस नदी को
समुदायों ने कई उप नामों से भी नवाजा है। लवणवती, सागरमती, मरूआशा, साक्री, मरुगंगा
आदि नामों से जानी जाने वाली मरुप्रदेश की इसे सबसे लंबी नदी मानी जाती है। थार के
रेतीले क्षेत्र में बहते हुए लवणीय कणों का मिश्रण कर लेने के कारण इसे आधी खारी आधी
मीठी नदी भी कहा जाता था। बढ़ती हुई शहरी जनसंख्या की प्यास बुझाने, विकास के लिए
जल जरूरतों को पूरा करने के लिए नदी की कोख को बांधते हुए बनाए गए बांधों के कारण
सूख चुकी इस नदी को गंदगी डालने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा। पाली, जोधपुर,
बालोतरा के वस्त्र रंगाई-छपाई एवं अन्य उद्योगों से निकलने वाला रसायनयुक्त पानी नदी में
डाले जाने के बाद इसका आधुनिक नाम कैमिकल नदी रख दिया गया। बजरी खनन और
अवैध कब्जाधारी भी इस नदी को दिन-रात नोचते हैं। पाली और बालोतरा के वस्त्र रंगाई-
छपाई उद्योगों से निकलने वाले रसायनिक पानी की मीलों तक फैली संड़ाध सभ्य समाज को
नाक पर हाथ रखने को मजबूर करती है। इस बार बहाव के कारण एक बार तो नदी की
काया कंचन हो जाएगी, लेकिन भविष्य अंधकारमय दिखता है।

लूणी के किनारे बसे हुए सैकड़ों
गांवों, कस्बों के लोगों ने लूणी से
अपने जीवन की खुशहाली और
बदहाली दोनों तरह के अनुभव देखे
हैं। 37,363 वर्ग किलोमीटर जलग्रहण
क्षेत्र वाली इस नदी के किनारों पर
बसे गांवों में खेती और पशुपालन
व्यवसाय फलता-फूलता था। क्षेत्र का
भूजल रिचार्ज होता था। कुंओं का
पैंदा तर होता था। पीने के पानी के उपयोग के साथ-साथ खेती में सिचाई के लिए भरपूर
पानी था। नदी सूख जाने के बाद लोग तरबूज उगाते थे। मक्का, बाजरा के साथ-साथ गेहूं व
मीर्च मसालों की खेती भी होती थी। जोधपुर, नागौर, पाली, सिरोही, जालौर और बाड़मेर के
हजारों कुएं, कुइयां, बावड़ियां रिचार्ज होते थे। किनारे बसे लोगों का कहना है कि नदी के बहाव
वाले समय में कभी पीने के पानी की कमी नहीं होती थी। चार-पांच फुट गहरा गड्ढा खोदने
पर मीठा पानी मिल जाता था। बिठुजा गांव से बालोतरा क्षेत्र के सैकड़ों गांवों में पेयजल की
सप्लाई होती थी। आर्थिक समृद्धि नदी के किनारों पर बसे कस्बों गांवों में प्रतिवर्ष लगने
वाले पशु मेलों में दिखती थी। तिलवाड़ा का मल्लीनाथ पशु मेला, सिणधरी का पशु मेला
प्रसिद्ध था जहां दूर-दूर से लोग पशुओं और कृषि उत्पादों की खरीद-फरोख्त करने आते थे।
क्षेत्र में पर्याप्त पानी मिलने के कारण महीनों तक पशुपालक यहां टिके रहते थे। बाड़मेर के
समदड़ी, पारलू, कनाना, सराणा, बिठुजा, बालोतरा, जसोल, सिणधरी कस्बों से जुड़े सैकड़ों गांवों
की समृद्धि और खुशहाली अब केवल लोगों की स्मृतियों का इतिहास भर रह गई है। इस

बार लोग खुश हैं। पिछले दो दशकों से सूखे पड़े कुंओं में फिर से पानी आएगा। जल स्तर
बढ़ेगा। अस्थाई ही सही, कुछ तो छिनी हुई समृद्धि और खुशहाली हिस्से में आएगी।
हालांकि बढ़ते शहरीकरण, लोगों की पेयजल जरूरतों, उद्योगों, व्यवसायों को पानी उपलब्ध
कराने के लिए बनाए गए बांधों ने लूणी की जलधार पर कब्जा किया वहीं उपयोग के बाद
निकलने वाले गंदे पानी को लूणी के हवाले कर दिया। बालोतरा में लगभग 700 से अधिक
वस्त्र रंगाई-छपाई की इकाइयां लगी है। प्रति दिन 25 करोड़ का व्यपार होता है तथा एक लाख
से अधिक लोगों को रोजगार मिलता है। इन इकाइयों से निकलने वाला रसायनयुक्त पानी
लूणी में छोड़े जाने के कारण न केवल नदी प्रदूषित हुई है बल्कि बालोतरा से आगे के बहाव
वाले क्षेत्र का भूजल भी प्रदूषित हो गया है। उच्च न्यायालय के रोक के आदेश के बावजूद
लूणी के शोषक ऊंची रसूख और अकूत दौलत के दम पर न्यायालय के आदेशों को ठेंगा दिखा
रहे हैं। नदी के बचाव को लेकर जूझ रहे क्षेत्रीय लोगों की आवाज भ्रष्ट नौकरशाहों और
समुदाय के प्रति गैरजवाबदार नेताओं की अनदेखी के कारण दब जाती है। अपने संकटकाल में
भी यह नदी कुछ न कुछ दे रही है। लेकिन सरकार का खजाना, व्यापारियों की तिजोरियां व
समुदाय को खुशहाली देने वाली इस नदी को राजकीय व्यवस्था, वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों और
सामाजिक व्यवस्था ने उपेक्षा और गंदगी के अलावा कुछ भी नहीं दिया है। अभी भी वक़्त है
लूणी को उसके पुराने स्वरुप में लौटाने की। क़ुदरत ने इस नदी को फिर से लबालब भर कर
हमें एक आखिरी मौक़ा दिया है। आने वाली पीढ़ी को स्वच्छ और निर्मल लूणी से बेहतर
उपहार कुछ और नहीं दिया जा सकता है। (चरखा फीचर्स)

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