प्रणाली नहीं बदली तो खंडित होगा देश

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सूर्यकांत बाली

आज जो खंडित जनादेश आ रहे हैं, उसका कारण स्पष्ट है। आज हमारा समाज इतना अधिक खंडित हो चुका है कि वह एक देश और एक समाज के रूप में सोच नहीं पाता। समाज का हर छोटा खंड अपने स्वार्थ में इतना अधिक तल्लीन रहता है कि वह अपने लिए वोट देता है, देश् के लिए नहीं।

एक राज्य अपने पूरे राज्य के लिए वोट नहीं देता। जाति, संप्रदाय आदि वर्ग अपने लिए वोट देते हैं, इसलिए ये खंडित जनादेश आ रहे हैं।

जनादेश खंडित न हो और स्पष्ट जनादेश आए, इसके लिए राजनीतिक दल भी कुछ प्रयास नहीं कर रहे। बल्कि उनकी कोशिश समाज के इस विखंडन को और बढ़ावा देने की ही है। इसलिए इस खंडित जनादेश् का कोई समाधान तुरंत निकलेगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। ऐसी स्थिति में संवैधानिक उपाय अपनाए जाने जरूरी हैं। ऐसा कभी नहीं होता कि समाज अपने आप आदर्श को अपना ले।

जब समाज अपनी दिशा खुद तय न कर सके और राजनीति दिशाविहिन हो जाए तो समाज के प्रबुध्द वर्ग जो राजनीति में, अर्थ जगत में, समाज में, अध्यात्म में प्रबुध्द लोग हैं, उनको आगे आना चाहिए और संवैधानिक उपायों के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इसका कोई उदाहरण नहीं है। हमारे पास उदाहरण भी हैं।

भारत ही भांति अमरीका भी कई राज्यों के एक संघ जैसा ही है। परंतु अमरीका में वे समस्याएं कभी नहीं आतीं जो हमारे यहां आती हैं। हमने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली अपनाया। परंतु ब्रिटेन में यह प्रणाली इसलिए सफल थी क्योंकि ब्रिटेन काफी छोटा देश् है। भारत जैसे बड़े देश में ब्रिटेन जैसे छोटे देश की प्रणाली चलनी मुश्किल थी, परंतु नेहरू आदि तत्कालीन भारतीय नेतागण ब्रिटेन को दुनिया का सबसे महान देश मानते थे। इसीलिए उन्होंने वहां की प्रणाली अपना ली।

हमारे लिए यह प्रणाली ठीक नहीं है। इस प्रणाली को अपने अनुकूल बनाने के लिए इसमें गुणात्मक परिवर्तन करना ही होगा। चाहे इसके लिए देश के संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करना पड़े परंतु हमें यह सुनिश्चित करना ही होगा कि देश के एक सर्वोच्च पद, उसे प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति कुछ भी कहें, उसे पूरे देश का जनादेश मिलना ही चाहिए। वह सांसदों के भरोसे काम करे और राज्य का मुख्यमंत्री विधायकों के भरोसे चलता रहे तो सांसदों और विधायकों के क्षुद्र स्वार्थों के कारण वे ठीक से काम नहीं कर पाएंगें और इस खंडित जनादेश के दुष्परिणाम और भी बढ़ते चले जाएंगे।

इसलिए एक आमूलचूल परिवर्तन करके इस संसदीय प्रजातंत्र की प्रणाली के स्थान पर राष्ट्रपति प्रणाली लानी ही होगी, अन्यथा यह देश खंडित हो जाएगा। देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री पूरे देश का जनादेश लेकर आए और एक बार चुने जाने पर निश्चित अवधि तक काम करे, परिणाम दे और परिणाम के आधार पर पुन: चुना जाए या जनता द्वारा पदच्युत कर दिया जाए।

यही प्रणाली राज्यों में भी होनी चाहिए। सांसदों और विधायकों की भूमिका को नए रूप में परिभाषित किया जा सकता है परंतु उनके हाथ में सरकार के अधिकार देना खतरनाक हो सकता है। और राज्यपाल की अलग समस्या है। बार-बार एक बात उठती है कि राज्यपाल को गैर राजनीतिक होना चाहिए, एक मिथ्यालाप है। राज्यपाल यदि राजनीतिक व्यक्ति नहीं होगा तो क्या आध्यात्मिक व्यक्ति होगा। यह पद ही राजनीतिक है तो इस पर नियुक्त होने वाला व्यक्ति राजनीतिक न भी हो तो नियुक्त होने के बाद बन जाएगा।

इस प्रकार यह निश्चित हो चुका है कि भारत जैसे विशाल देश में ब्रिटेन जैसे छोटे देश का तंत्र असफल रहा है परंतु क्षुद्र स्वार्थों में लिप्त हमारे नेता इस पर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं। यदि हमें एक ठीक राजनीतिक तंत्र चाहिए जो देश के विकास के लिए जरूरी है, तो संविधान में आमूलचूल परिवर्तन करके ब्रिटिश संसदीय प्रणाली से अपना मोह तोड़ना होगा। ब्रिटेन हमारा आदर्श नहीं हो सकता।

हमार आदर्श अमरीका भी नहीं हो सकता। परंतु इन दोनों में हमारे नजदीकी आदर्श व्यवस्था कोई है तो वह अमरीका का है। अपने देश की जरूरतों और परिस्थितियों के अनुसार इसको एक भारतीय स्वरूप प्रदान करके, हमें इसे स्वीकारने की दिशा में सोचना चाहिए। इसके सिवा और कोई विकल्प नहीं है। अक्सर ऐसा होता है कि जब संसद में ऐसी कोई समस्या आती है तो हम इस पर विचार करना शुरू करते हैं परंतु समस्या हल हो जाने के बाद इस पर विचार करना बंद कर देते हैं।

यह देश का दुर्भाग्य है कि देश के राजनीतिक चिंतक और कार्यकर्ता तात्कालिक सोच रखते हैं, उनमें दूरगामी सोच नहीं रखते। देश के दूरगामी विकास राजनीति की सुस्थिरता और देश के सशक्तिकरण् के लिए हमें एक नए तंत्र पर विचार करना होगा जिसमें एक बार चुनाव होने के बाद पांच वर्ष या निश्चित अवधि के लिए सरकार काम करे, परिणाम दे। इसमें जनता की कोई सीधी भूमिका नहीं है।

वास्तव में जनता कुछ संगठनों के माध्यम से कार्य करती है। आज भी देश में देश के बारे में ईमानदारी और निष्ठा से सोचने वाले संगठन हैं। वे भले ही चुनावी राजनीति में सीधे भाग न लेते हों परंतु उनका कर्तव्य है कि देश को दिशा देने के लिए एक सोच के साथ सामने आएं।

चुनाव के समय वे राजनीतिक दलों पर दबाव बनाएं कि वे संविधान और तंत्र को ठीक करने के लिए प्रतिबध्द बनें। ऐसे सामाजिक संगठनों की राजनीतिक शक्ति विकसित होनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो लोगों का उन पर विश्वास भी बनेगा और इससे समाधान भी निकलेगा। लालू यादव सरीखे नेता कभी भी एक जाति विशेष की राजनीति से बारह नहीं निकलना चाहेंगे।

इसलिए देश के बारे में समग्रता से विचार करने वालों को ऐसे नेताओं पर दबाव बनाना होगा कि वे भी समग्रता से विचार करे। राजनीतिक स्थिरता और अनुकूल प्रणाली लाने के लिए देश में आवश्यक वातावरण बने, इसके लिए आज एक जनआंदोलन की आवश्यकता है।

(भारतीय पक्ष द्वारा आयोजित परिचर्चा -क्या भारत में संसदीय लोकतंत्र असफल सिद्ध हो रहा है- के संदर्भ में)

4 COMMENTS

  1. पारलेमेंटरी सिस्टिम लोकशाही नहीं है क्यों की उसमे ६०% मतदाता जो हारे हुए उमीदवार को मत देते है उनको प्रतिनिधित्व नहीं मिलता / बहु प्रतिनिधि मतदात संघ बनाने के लिए आन्दोलन जरुरी है / इ मेल भेज कर चर्चा करे

  2. बहुत अच्छा विषय उठाया है श्री सूर्यकांत जी ने. वाकई इस विषय पर हर स्तर पर, हर मंच पर, हर रूप में परिचर्चा की जरुरत है.
    पराधीनता के समय पूरा देश आजादी चाहता था. अपना राज्य, अपना शाशन चाहते थे. कोई यह सोचकर नहीं लड़ रहा था की सासन किस प्रणाली पर निर्भर होगा. किन्तु कुछ लोगो ने पुरे देश का भाग्य निश्चित कर दिया. संविधान बनाने से पहले चर्चा की जा सकती थी की कोण सी प्रणाली सही होगी, उपयुक्त होगी. वैसे भी केवेल केवेल संविधान का पुख्य प्रष्ट ही तो हमारा है बाकी तो श्री स्वामी रामदेव जी कह rahe है की यह तो ट्रान्सफर of पॉवर है.

    आज फिर से जन आन्दोलन की जरुरत है. सरकार में सबकी भागीदारी होने चाइये न की केवेल बाहुबली नेताओ की.

  3. सिद्धांत रूप में देखे तो विचार तो आपका ठीक लगता है पर इसकी क्या गारंटी है की प्रत्यक्ष चुनाव से आया हुआ व्यक्ति तानाशाह नहीं बन जायेगा?देश की समस्यायों से निपटने में असमर्थ होने पर वह सेना की हाथों में कठपुतली भी बन सकता है.किसी भी प्रणाली में दोष उतना ज्यादा नहीं होता जितना उसके अनुसार चलने वालो में.आवश्यकता है समाज में इमानदारी के प्रतिष्ठापण की.यह कैसे होगा,यह विचारणीय प्रश्न है.

  4. क्रांती का पौधा हर पल बढ रहा है. जरुरत है एक हृष्ट-पुष्ट क्रांती के तैयार होने तक धैर्य की.

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