कविता कुछ यूँ ही बीत रहा होता था जीवन July 22, 2013 / July 22, 2013 by प्रवीण गुगनानी | Leave a Comment पीड़ा कैसे व्यक्त हो सकती थी? वह तो थी जैसे कोमल, अदृश्य से रोम रोम में गहरें कहीं धंसी हुई, भला वह कैसे बाहर आ सकती थी? चैतन्य दुनियादारी की आँखों के सामनें पीड़ा स्वयं एक रूपक ही तो थी जो नहीं चाहती थी कभी किसी को दिख जाने का प्रपंच. रूपंकरों […] Read more » कुछ यूँ ही बीत रहा होता था जीवन