कविता
बाल्कनी
by बीनू भटनागर
महानगरों में, ऊँची उँची इमारते, यहाँ कोई पिछवाड़ा नहीं, ना कोई सामने का दरवाज़ा, इमारत के चारों तरफ़ , बाल्कनी का नज़ारा, धुले हुए कपड़े……… बाल्कनी में लहराते सूखते, कभी झाड़न पोछन सूखते, कभी कालीन या रजाई को धूप मिलती, घर के फालतू सामान को पनाह देती है ये बाल्कनी, घर का अहम हिस्सा है […]
Read more »