कविता
कब छलकि जाय मन की गगरी !
/ by गोपाल बघेल 'मधु'
कब छलकि जाय मन की गगरी, कौन जानता; वो डाल डाल पात पात, हमको नचाता !सम्बंध गाढ़े और हलके, समय ढ़ालता; अनुभव कराके नये नये, चित्त रचाता ! भोजन का भेद आत्मशोध, विचारों को शुध; दो व्यक्तियों को विलग करा, वो ही मिलाता !क्या होगा वक़्त बाद, कहाँ इंसान जानता; संस्कार भोग हमरे करा, हमको […]
Read more »