दोहे
बिन खोदे, कुरेदे औ कसे!
/ by गोपाल बघेल 'मधु'
बिन खोदे, कुरेदे औ कसे, वे ही तो रहे; आशा औ निराशा की फसल, वे ही थे बोए! हर सतह परत पर्दा किए, प्राण पखारे; प्रणिपात किए शून्य रखे, स्वर्णिम धारे! दहका औ महका अस्मिता की, डोर सँभाले; डर स्वान्त: सुशान्त किए, द्वारे निहारे! बीमारी कोई कहाँ रही, तयारी रही; मानव के मन की प्रीति श्रीति, खुमारी रही! ‘मधु’ वाद्य यंत्र तार तरासे औ तराजे; उर उसासों में वे थे रहे, राग रसाए! ✍? गोपाल बघेल ‘मधु’
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