कविता साहित्य
ना ही शरीर ना ही मन हूँ !
by गोपाल बघेल 'मधु'
ना ही शरीर ना ही मन हूँ, आत्म स्वयम्भू; क्यों वृथा व्यथा मैं हूँ सहूँ, विचरते विभु ! करते हैं नाट्य सब पदार्थ, प्राण त्राण वश; अस्तित्व कहाँ अपने, नृत्य करते वे विवश ! शक्ति है शिव की, प्रकृति कृति गति उन्हीं के हाथ; वे ही त्रिलोक विचरें सतत, पात्र हर के साथ ! हैं देश काल उनके, ब्रह्म-कण उन्हीं के गात; वे ही समात प्रष्फुरात, विहँसे सिहरे गात ! वे मेरे शीष दे अशीष, ‘शिवोऽहम्’ कहत; ‘मधु’ उनकी गोद बैठे रमत, रुनझुनात भू ! रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’
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