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गजल

वत्स ! क्या अब तुम वह नहीं!

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वत्स ! क्या अब तुम वह नहीं, जो पहले थे? निर्गुण की पहेली, अहसास की अठखेली; गुणों का धीरे धीरे प्रविष्ट होना सुमिष्ट लगना, पल पल की चादर में निखर सज सँवर कर आना! महत- तत्व से जैसे प्रकट होता सगुण का आविर्भाव, हर सत्ता का रिश्ता रख आत्मीय अवलोकन; पूर्व जन्मों के भावों का प्रष्फुरीकरण, वाल हास में लसी मधुरिमा का आलिंगन! अब वह कहाँ गया, माँ को शिशु समझ निहारना, चाहना दुग्ध माँगना निकट रख नेह करना; हर किसी की गोद आ आनन्द लेना, नानी नाना को नयनों से आत्मीय दुलार देना! व्यस्त होगये हो अब अपने खेलों में, हाथी घोड़ों गाड़ियों के खिलौनों में; यू-ट्यूव पर चलचित्र देखने में, माँ को ‘ना’ करने औ दौड़ाने में! अहं का यह अवतरण, चित्त का विचरण, है तो आत्म विस्तार का व्याप्तिकरण; पर ‘मधु’ के प्रभु की उसमें छिपी चितवन, कहती है, वे वे ही हैं, जो अतीत से अपने थे! ✍? गोपाल बघेल ‘मधु’

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