कविता साहित्य वह समझता मुझको रहा ! February 25, 2016 by गोपाल बघेल 'मधु' | Leave a Comment वह समझता मुझको रहा, मैं झाँकता उसको रहा; वह नहीं कुछ है कह रहा, मैं बोलता उससे रहा ! अद्भुत छवि आलोक रवि, अन्दर समेटे वह हुआ; नयनों से लख वह सब रहा, स्मित वदन बस कह रहा ! हाथों पुलक पद प्रसारण, भौंहों से करता निवारण; भृकुटी पलट ग्रीवा उलट, वह द्रश्य हर जाता […] Read more » वह समझता मुझको रहा !