कविता विकृत होते प्रकृति संबंध October 16, 2015 by अरुण तिवारी | Leave a Comment ’हम’ को हटा पहले ’मैं’ आ डटा फिर तालाब लुटे औ जंगल कटे, नीलगायों के ठिकाने भी ’मैं’ खा गया। गलती मेरी रही मैं ही दोषी मगर फिर क्यूं हिकारत के निशाने पे वो आ गई ? हा! ये कैसे हुआ ? सोचो, क्यूं हो गया ?? घोसले घर से बाहर फिंके ही फिंके, धरती […] Read more » विकृत होते प्रकृति संबंध